गिरिजाशंकर

कोई रंगकर्मी या रंग संस्था ठान ले तो वह किस तरह अपने शहर की नई पहचान गढ़ सकता है, संस्कृति प्रेमी नया समुदाय निर्मित कर सकता है, यह देखना हो तो आजमगढ़ आइए। दो युवा रंगकर्मी दंपति ममता पंडित और अभिषेक पंडित ने अपने रंगकर्म और फिल्म समारोह के जरिये इस शहर को एक नई पहचान दी है।

अब आजमगढ़ किसी आतंकी गतिविधि के लिए या कट्टा निर्माण के लिए नहीं बल्कि कैफी आजमी, बाबा आजमी, अयोध्यासिंह हरिऔम, राहुल सांस्कृत्यायन की विरासत के साये में हर साल होने वाले फिल्म समारोह के लिए जाना जाता है। पांच सालों से यह महोत्सव आयोजित हो रहा है, जिसमें फिल्मी दुनिया की महत्त्वपूर्ण हस्तियां शिरकत करती हैं।

अभिषेक व ममता अपनी रंग संस्था सूत्रधार के जरिए पिछले दो दशक से रंगमंच कर रहे हैं और उनका नाम और काम देश भर में जाना जाता रहा है। आजमगढ़ के एक बंद पड़े सिनेमा हाल शारदा को उन्होंने अपनी कर्मस्थली बना लिया है। यही नाटकों का अभ्यास होता है, कार्यशालाएं होती हैं और नाटकों का मंचन भी होता है। सिनेमा हाल की सुविधा का लाभ लेते हुए उन्होंने पांच बरस पहले फिल्म समारोह के आयोजन का आगाज किया।

इस साल के फिल्म समारोह का प्रसिद्ध निदेशक तिग्मांशु धूलिया ने उद्घाटन किया। इस अवसर पर उनकी फिल्म राग देश का प्रदर्शन किया गया। फिल्म प्रदर्शन के बाद तिग्मांशु धूलिया से उनकी फिल्म यात्रा पर लंबी बातचीत की गई। तिग्मांशु मूलत: रंगकर्मी है तथा एनएसडी से प्रशिक्षित है। उन्होंने अपने फिल्म निर्माण से जुड़े अनेक प्रसंगों की चर्चा की।

अगले दिन प्रसिद्ध अभिनेत्री हिमानी शिवपुरी की लघु फिल्म ’ठलोसम’ का प्रदर्शन हुआ। इस मौके पर उनसे लंबी बातचीत की गई कि किस तरह वे एनएसडी आई उनकी फिल्मी यात्रा शुरू होकर अब तक जारी है। तीसरे दिन निर्देशक इश्तियाक खान की फिल्म ’द्वंद्व’ का प्रदर्शन हुआ और उनकी रंगमंच तथा फिल्मों के अब तक अनुभव पर संवाद किया गया। ये मेहमान दर्शकों के सवालों से भी रूबरू हुए।

फिल्म समारोह में कुछ विदेशी फिल्मकारों ने भी हिस्सा लिया और उनकी फिल्मों का प्रदर्शन भी हुआ। इन फिल्मों में आस्ट्रेलिया के चार्ल्स थामसन की हिंदी फिल्म गाय हमारी माता है का प्रदर्शन भी शामिल रहा। पिछले कुछ सालों से छोटे शहरों के रंगकर्मियों में फिल्मों के प्रति अलग तरह का रुझान देखने में आ रहा है। एक रुझान तो फिल्मों में काम करने का है। रंगमंच के कई बड़े नाम भी फिल्मों व वेव सीरिज में छोटा मोटा काम करने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं।

नए रंगकर्मियों की पहली पसंद फिल्म हो गई है। जरा सा मौका लगा तो नाटक के कारण अभ्यास को छोड़कर वे शूटिंग में भाग जाते हैं। चूंकि हिंदी फिल्मों का निर्माण अब विकेन्द्रित होकर छोटे शहरों की तरफ सक्रिय हो गया है तो रंगकर्मियों को मौके भी बहुत मिल रहे हैं। इससे रंगमंच का बड़ा नुकसान हो रहा है।

दूसरा रुझान रंगकर्मियों में फिल्म समारोहों के आयोजन का देखने को मिल रहा है। इससे उनका रंगमंच कतई प्रभावित नहीं हो रहा है क्योंकि वे फिल्मों में जाने के प्रति कतई लालायित नहीं है बल्कि अपने रंगमंच के लिए दर्शक व सहयोगी वर्ग का विस्तार देने की गरज से फिल्म समारोह का आयोजन करने लगे हैं।

सीधी, आजमगढ़ जैसे स्थानों पर फिल्म समारोहों का आयोजन नीरज कुंदेर या ममता अभिषेक पंडित जैसे रंग निर्देशक कर रहे हैं, जिनकी पहली प्राथमिकता रंगमंच है। छोटे शहरों में आयोजित होने वाले फिल्म समारोहों में यदि ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन हो सके तो सुखद अध्याय की शुरुआत माना जाएगा। इससे नए फिल्मकारों को भी एक बेहतर मंच मिल सकेगा और दर्शकों को अच्छा सिनेमा देखने को मिलेगा।

फिल्म सोसायटी का चलन अब लगभग बंद हो गया है। ऐसे में उसका स्थान फिल्म समारोह लेती दिखती हैं। आजमगढ़ फिल्म समारोह ने थोड़े समय में ही अपनी और अपने शहर की अलग पहचान बना ली है। इसे बंधे बंधाए ढांचे में आयोजित करने के बजाय और अधिक सार्थक बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।