लगभग हर प्रदेश ने बॉलीवुड को अपने यहां आने का न्योता दे रखा है। ताजा नाम है उत्तर प्रदेश का। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सूबे में फिल्मसिटी बनाने की घोषणा कर बॉलीवुड को न्योता दिया है। न्योता देने वाले ज्यादातर प्रदेशों में पहले से ही फिल्मसिटी बनी हुई हैं। कुछ राज्य सरकारों ने बनाई हैं, कुछ निजी निवेशकों ने।
केरल में 2016 से चित्रांजलि स्टूडियो को फिल्मसिटी बनाने पर काम चल रहा है। यह एक हजार करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट है।
कोरोना महामारी के चलते इसमें देर हुई वरना नवंबर से इस पर काम शुरू हो जाता। 2007 में चंडीगढ़ में पार्श्वनाथ डेवलपर ने 227 करोड़ लागत से फिल्मसिटी की योजना बनाई थी, जिसके तकनीकी सलाहकार अभिनेता निर्देशक सतीश कौशिक थे। वह प्रोजेक्ट परवान नहीं चढ़ पाया। 1996 में अविभाजित आंध्र प्रदेश में रामोजी फिल्मसिटी बनी। तमिलनाडु ने 1994 में एमजीआर फिल्मसिटी बनाई। शाहरुख खान को ब्रांड एंबेसेडर बना कर पश्चिम बंगाल सरकार ने भी 10 अरब रुपए लगाकर चंद्रकोना में प्रयाग फिल्मसिटी बनाई। यह 2700 एकड़ में फैली है और इसे दुनिया की सबसे बड़ी फिल्मसिटी बताया जाता है।
भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की औसत विकास दर 10 फीसद से ज्यादा रही है। 20 भाषाओं में हर साल सैकड़ों फिल्में बनाने वाले उद्योग के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की कवायद आज भी जारी है। मगर प्रदेश सरकारों की सिनेमा को लेकर मानसिकता में बदलाव नहीं आया है। आजादी से पहले जब सिनेमा शुरू हुआ तो अंग्रेजों ने इस पर इसलिए टैक्स लगाया कि उन्हें आशंका थी कि भीड़ इकट्ठी होने से लोग संगठित होकर उनके खिलाफ बगावत कर सकते हैं। वह मनोरंजन कर आजादी के बाद जस का तस रहा। यहां तक कि प्रदेश की सरकारों ने सिनेमा पर शराब और सिगरेट की तरह टैक्स लगाए। जीएसटी आने से पहले झारखंड की सरकार सिनेमा टिकटों पर 110 फीसद टैक्स लेती थी।
मुंबई फिल्मों का गढ़ रहा है। यहां 70 के दशक में फिल्मसिटी बनाई गई। पुणे में फिल्म इंस्टीट्यूट खोला गया। दोनों से फिल्मजगत को सहारा मिला। पुणे फिल्म संस्थान ने सिनेमा को बेहतरीन कलाकार और तकनीशियन दिए। मगर 70 के दशक में बनी मुंबई की फिल्मसिटी का आलम यह था 20 साल गुजरने के बाद भीवहां जूनियर आर्टिस्ट ‘झाड़ की आड़’ में कपड़े बदलते थे। सालों वे अपने लिए बुनियादी सुविधाओं की मांग करते रहे।
चतुर कारोबारियों को जब लगा कि सिनेमा दौड़ता घोड़ा है तो उसकी पूंछ के पीछे अपने उत्पाद बांध दिए और इस तरह मल्टीप्लेक्स खड़े हो गए, जहां सिनेमा देखने के साथ अन्य चीजों की खरीदारी की जाने लगी। वजह यह थी कि भारतीयों में क्रिकेट के साथ ही सिनेमा देखने का भी जुनून है। इस जुनून को हालिया उदाहरण से समझा जा सकता है। कोरोना के चलते आठ महीनों तक सिनेमा और थियेटर बंद रहने के बाद बीते माह पुणे में जब ‘एका लग्नाची पुढची गोष्ट’ (आज, 12 दिसंबर से इसका मंचन है) नाटक के लिए टिकट खिड़की खुली तो मात्र एक घंटे में सारी टिकटें बिक गर्इं।
अब नाटक, सिनेमा को कामधेनु मानकर दुहने और शराब, सिगरेट की तरह टैक्स लगाने का उदाहरण भी देखिए। बीते माह नवंबर के दूसरे सप्ताह में मुंबई महानगरपालिका ने नाटक, सिनेमा, मल्टीप्लेक्स, खुले मैदान और सभाघरों पर टैक्स बढ़ोतरी का प्रस्ताव रखा। पहले हर शो पर 28 से 60 रुपए टैक्स लगता था। महानगरपलिका ने इसे बढ़ाकर 1000 रुपए करने का प्रस्ताव रख दिया। इससे नाटक सिनेमा पर टैक्स लगाने की सरकारों की मानसिकता को समझा जा सकता है।
योगी आदित्यनाथ की घोषणा के साथ ही कहा जाने लगा कि यह बॉलीवुड को यूपी ले जाने का षडयंत्र है। राजनीतिक बयानबाजी शुरू हो गई। बेहतर है कि पधारो म्हारे देश कहते रहने वाले दूसरे सूबे भी फिल्म निर्माताओं की जरूरतें समझ उसका इंतजाम करें और अपने राजस्व में बढ़ोतरी की योजनाएं बनाएं।