जितेंद्र कुमार

आमतौर पर फिल्में मैं कम देखता हूं। लेकिन पिछले कुछ दिनों से लगातार कई मित्रों ने मौजूदा राजनीति पर बहसों के बीच में मुझे ‘पीके’ फिल्म देखने की सलाह दी। फिर जब कुछ हिंदूवादी संगठनों ने इस फिल्म का विरोध तेज कर दिया तो मेरे ऊपर एक तरह का दबाव बन गया और आखिर मैंने यह फिल्म देखी। अगर आपने सिनेमा हॉल में ‘पीके’ को देखा होगा तो आपको लगा होगा कि पूरी फिल्म एक लय में चलती है और लोग खूब आनंद लेते हैं। जब फिल्म खत्म होती है तो दर्शक आपस में बात करते निकलते हैं कि इसमें हिंदू धर्म के खिलाफ तो कहीं कुछ नहीं है, बल्कि कर्मकांड और ढोंग का विरोध किया गया है। एकबारगी यह फिल्म लगती भी ऐसी है। लेकिन निष्कर्ष के लिए यही कहना शायद इतना आसान नहीं है।

मुझे ‘पीके’ शुरू से ही एक राजनीतिक संदेश वाली फिल्म लगी, जिसे व्यवस्थित दक्षिणपंथ और ‘हिंदू पुनरुत्थानवाद’ के मौजूदा आक्रामक उभार के संदर्भों में भी देखा जाना चाहिए। हम चाहें तो ध्यान रख सकते हैं कि धर्म और बाजार खुद को बनाए और बचाए रखने के लिए अगर अधिकतम सख्त और बर्बर हो जाते हैं तो बिना किसी सीमा के ‘लचीले’ भी हो सकते हैं। ये दोनों व्यवस्था के खिलाफ आम जनता के पक्ष में दिखते हुए भी जनता के खिलाफ व्यवस्था के पक्ष में हो सकते हैं। ‘पीके’ की यही राजनीति है। यह फिल्म ऊपर से भले ही ‘क्रांतिकारी’ दिखती हो, मगर इसके अंतिम संदेश में ही सब कुछ छिपा है कि धर्म और ईश्वर की सत्ता में कोई गड़बड़ी नहीं है; बस बाबाओं के चंगुल में फंसना और पाखंड निबाहना गलत है। मसलन, ‘एक शक्ति’, यानी ईश्वर या हिंदू धर्म को ‘ठीक’ बताने वाली इस फिल्म में आज भी मौजूद छुआछूत, जातीय भेदभाव और दूसरे संप्रदाय के खिलाफ घृणा के बारे में इशारा भी क्यों नहीं किया गया?

मुझे इस फिल्म की दूसरी राजनीति थोड़ी बारीक लगी। पिछले कुछ समय से भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों के कुछ नेता कथित ‘लव जिहाद’, धर्मांतरण, मंदिर-मस्जिद वगैरह के मसले पर जिस तरह सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाली बेलगाम बयानबाजी कर रहे हैं, क्या वही सब इस फिल्म में तपस्वी बाबा नाम के पात्र के जरिए नहीं दिखाई गई है? एक आम ‘औसत हिंदू’ उन नेताओं और फिल्म के तपस्वी बाबा के संवादों को कैसे देखेगा? हाल ही में एक लेख में मैंने पढ़ा और उसमें शायद ठीक ही कहा गया कि फिल्म देखते हुए सिनेमा हॉल में जो लोग खुश हो रहे हैं, तालियां बजा रहे हैं, उनमें से दो-चार को छोड़ कर सभी ‘हिंदू’ हैं।

दरअसल, यही ‘औसत’ और ‘भले हिंदू’ लोग हिंदुत्व की राजनीति करने वालों के असली निशाने हैं। सोचने-समझने वाले लोग इस तरह के ‘संदेशों’ के दायरे में नहीं हैं, राजनीति में और फिल्म में भी। इसलिए भगवान तक पहुंचने के लिए नायक जब लोगों को ‘गलत नंबर’ को छोड़ कर ‘सही नंबर’ डायल करने को कहता है, तो बड़ी बारीकी से ‘नंबर’ लगाने के लिए ‘माध्यम’ का जिक्र छोड़ दिया जाता है।

जाहिर है, ‘गलत नंबर’ का चरण खत्म होने के बाद ‘सही नंबर’ लगाने के लिए ‘माध्यम’ की जरूरत बनी रहेगी। वह ‘माध्यम’ क्या और कौन होगा? कुछ वर्ष पहले आई फिल्म ‘ओह माई गॉड’ में एक धर्मगुरु नायक को कहता है- ‘यह मत भूलो कि जब तक डर है, लोग यहां (हमारे पास) आएंगे।’ कुल मिला कर फिल्म के जरिए ‘बाबावाद’ या पाखंड के खिलाफ एक तात्कालिक और आभासी ‘विरोध’ पैदा होता भी है तो उसे ‘डर’ के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया जाता है, जहां से ‘बाबावाद’ की ओर वापसी एक नियति है। दूसरी ओर, हिंदुत्ववादी समूहों की ओर से विरोध के लिए जो दलीलें दी गई हैं, उनका कोई सिर-पैर समझ नहीं आता है। बल्कि कई बार संदेह होता है कि कहीं विरोध के पीछे फिल्म को लाभ पहुंचाने और इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का खेल तो नहीं है!

मेरे एक मित्र ने कभी मुझे कहा था कि उनके किसी दोस्त ने दो राजनीतिक दलों को ‘गाली देने की भाषा’ में एक किताब लिखी है; इस किताब का सार्वजनिक दहन क्यों नहीं करा देते! मैंने कहा था कि अगर आपके मित्र ने कुछ उपयोगी लिखा है तो उन राजनीतिक दलों को सीख मिलेगी और ऊल-जलूल लिखा है तो उसका जवाब कोई न कोई लिख कर दे ही देगा। किताब को क्यों जलाया जाए? इस जवाब पर निराशा के बावजूद उन्होंने ठहाका लगाया और कहा कि ‘अरे नहीं! वे चाह रहे हैं कि अगर किताब का एक-दो जगह सार्वजनिक दहन कर जाए तो उसकी बिक्री बढ़ जाएगी!’ उनके जवाब से मैं हतप्रभ था। यों ‘पीके’ फिल्म को देखने के बाद मुझे थोड़ा-बहुत ऐसा भी लग रहा है!

 

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