उत्तर प्रदेश का सियासी मिजाज थोड़ा हट कर है। यहां अपने दम पर मैदान में उतरने वाले सियासी दलों को गठबंधन के बनिस्बत मतदाताओं ने अधिक पसंद किया। ढाई दशक में उत्तर प्रदेश में हुए तो कई सियासी गठबंधन लेकिन कोई टिका नहीं। या यूं कहें कि उत्तर प्रदेशियों ने ऐसे सियासी मेल को खारिज कर दिया।
फिर वो कांग्रेस-सपा, सपा-बसपा का गठबंधन रहा हो या भारतीय जनता पार्टी का सहयोगी दलों को साथ ले कर मैदान मारने का प्रयास रहा हो। कोई गठबंधन प्रदेश की जनता की निगाह में टिकाऊ साबित नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश में गठबंधन के इतिहास पर निगाह डालें तो पहली मर्तबा ऐसा साल 1967 में हुआ। उस वक्त चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल (लोकदल) बनाया और सरकार बनाई। उस सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ भी शामिल हुए।
लेकिन यह सरकार एक साल भी नहीं चली। चौधरी चरण सिंह के इस प्रयोग के विफल होने के बाद वर्ष 1970 में कांग्रेस से अलग हुए विधायकों ने त्रिभुवन नारायण सिंह के नेतृत्व में साझा सरकार बनाई। इस सरकार में कई अन्य दलों के साथ जनसंघ भी शामिल था, लेकिन छह महीने भी यह सरकार नहीं चल सकी।
छह महीने के बाद टीएन सिंह को विधानसभा या विधान परिषद में से किसी सदन की सदस्यता लेना अनिवार्य था। उन्हें गोरखपुर की मनीराम सीट से चुनाव लड़ाया गया। लेकिन कांग्रेस के पण्डित रामकृष्ण द्विवेदी ने उन्हें पराजित कर दिया। इस तरह सूबे के इतिहास में टीएन सिंह अकेले ऐसे मुख्यमंत्री रहे जो बिना किसी सदन के सदस्य बने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए।