भारतीय जनता पार्टी के चर्चित सांसद वरुण गांधी अपनी उपेक्षा से खफा बताए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी नेतृत्व उन्हें कोई भाव नहीं दे रहा। चुनाव आयोग को भेजी अपने स्टार प्रचारकों की सूची में भी भाजपा ने उनका नाम शामिल नहीं किया। उनके करीबी सूत्रों का कहना है कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले वरुण भाजपा को अलविदा भी कह सकते हैं।
वरुण गांधी की मां मेनका गांधी मोदी सरकार में मंत्री हैं। वे नेहरू गांधी परिवार की बहू और पीलीभीत से सांसद हैं, जबकि वरुण इस समय सुल्तानपुर से लोकसभा के सदस्य हैं। उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की उम्मीदवार अमिता सिंह को दो लाख से ज्यादा मतों के अंतर से हराया था। 2009 में वे पहली बार लोकसभा में चुनकर आए थे। तब उनकी मां ने अपनी पारंपरिक पीलीभीत सीट उनके लिए छोड़ी थी और वे खुद पड़ोस की आंवला सीट से चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंची थीं।,वरुण गांधी ने यों अपनी मां के चुनाव प्रचार की कमान पीलीभीत में 2004 में ही संभाल ली थी जब वे महज 24 साल के थे, लेकिन 2009 के चुनाव में भाजपा ने उन्हें सिर माथे बिठाया था। पीलीभीत में उनके एक उग्र बयान को लेकर काफी विवाद भी हुआ था। तब की सूबे की मुख्यमंत्री मायावती ने इस बयान को सांप्रदायिकता भड़काने वाला बताकर वरुण के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज करा दिया था। हालांकि वरुण बाद में इस मामले में अदालत से बरी हो गए थे।
सांसद बन जाने के बाद वरुण ने उत्तर प्रदेश की सियासत में अपने हाथ पैर मारने की लगातार कोशिश की। राजनाथ सिंह ने पार्टी अध्यक्ष रहते इस युवा नेता को खूब बढ़ावा भी दिया। मई 2013 में उन्होंने वरुण गांधी को अपनी टीम में महासचिव बनाया था। उसके बाद से ही वरुण सूबे का मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पाल रहे थे। उनके सुल्तानपुर संसदीय क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया में इसके लिए बाकायदा अभियान भी छिड़ गया था। पर पार्टी ने उनकी इस हसरत को दबा दिया। केंद्र में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से पार्टी में वरुण की अनदेखी शुरू हो गई। उसी का नतीजा है कि लंबे समय से न वे पार्टी के किसी कार्यक्रम में दिखाई दिए हैं और न खुद किसी तरह की सक्रियता दिखाई है।
जहां तक वरुण का सवाल है, वे अच्छी तरह समझ चुके हैं कि भाजपा में उनके बेहतर भविष्य की संभावना नहीं है। वे यह भी जानते हैं कि उनकी मां बेशक कैबिनेट मंत्री हैं पर सरकार और पार्टी में उनकी भी ज्यादा हैसियत नहीं है। जो है उसके भी दो कारण हैं। एक तो मेनका उत्तर प्रदेश में सात बार लोकसभा चुनाव जीतने वाली भाजपा की संतोष गंगवार के अलावा अकेली नेता हैं दूसरे उन्हें मंत्री बनाने के पीछे भाजपा नेतृत्व की मंशा सोनिया गांधी को चिढ़ाना भी है।मेनका गांधी पीलीभीत से लोकसभा चुनाव पहली बार 1989 में जनता दल के उम्मीदवार की हैसियत से जीती थीं। तब वे रामकृष्ण हेगड़े, चंद्रशेखर और जार्ज फर्नांडीज जैसे नेताओं के साथ थीं। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन्हें अपनी सरकार में मंत्री भी बनाया था। पर 1991 के लोकसभा चुनाव में राम लहर के कारण वे भाजपा उम्मीदवार से हार गई थीं। उसके बाद ही वे भाजपा में शामिल हुई और लगातार लोकसभा चुनाव जीत रही हैं।