उत्तर प्रदेश में चुनावी बुखार तेज हो रहा है, लेकिन राजनीतिक दलों में बड़े स्तर पर इस बात को लेकर असमंजस बना हुआ है कि किसी पार्टी को इस बार के चुनाव में बहुमत हासिल होगा या नहीं। वोटों के बिखराव और पार्टियों के प्रति वोटरों के रुझान को लेकर भी राजनीतक विश्लेषक किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहे हैं। यही वजह है कि सभी प्रमुख दलों ने जातीय गणित को ध्यान में रख कर अपने उम्मीदवारों का चयन किया है। अल्पसंख्यकों के वोटों पर खास निगाह है।  उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दल हर हथकंडा आजमा रहे हैं। पिछले दो बार से एक तिहाई वोट पाने वाला सत्ता तक पहुंच रहा है। ऐसे में लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल हर विधानसभा सीट पर वोटों के जातीय आंकड़ों के लिहाज से अपनी दाल गलाने की जुगत में लगे हुआ है। कोई दलितों के वोटों पर दांव लगा रहा है तो कोई सवर्ण वोटों पर।

अल्पसंख्यकों के वोट को हासिल करने की कोशिश में कई दल जुटे हैं। पार्टियों को लगता है कि उनके परंपरागत वोट के साथ अगर अल्पसंख्यकों के वोट उनकी झोली में आ जाते हैं तो वे 30 फीसद के जादुई आंकड़े के खासे नजदीक पहुंच जाएंगे। इस लिहाज से अभी तक सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश को लेकर स्थिति किसी हद तक स्पष्ट है। यहां का चुनाव मुजफ्फरनगर व उसके बाद इस क्षेत्र में हुई बड़ी घटनाओं से उपजे हालात और समीकरणों से प्रभावित होगा। जिस लिहाज से सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी से लेकर बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस व राष्ट्रीय लोकदल आदि ने अपने प्रत्याशियों का चयन किया है, उसे देख कर इतना तो साफ है कि सब अपने परंपरागत वोटबैंक के अलावा बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों के वोट हासिल करने की पुरजोर कोशिश में हैं। इसके अलावा दलितों के वोट को तोड़ने की कोशिश है। वर्ष 2011 की जनगणना के लिहाज से यूपी में लगभग 23 फीसद दलित वोट हैं।
सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक, पिछले चुनावों में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को 54 फीसद मुसलिम, 23 फीसद अन्य पिछड़ी जाति, 16 फीसद दलित व 12 फीसद अगड़ी जातियों के वोट हासिल हुए थे। जबकि बसपा को 14 फीसद मुसलिम, 20 फीसद अन्य पिछड़ी जाति, 56 फीसद दलित व 8 फीसद अगड़ी जातियों के वोट, भाजपा को 9 फीसद मुसलिम, 3 फीसद अन्य पिछड़ी जाति व 55 फीसद अगड़ी जातियों के वोट हासिल हुए थे। कांग्रेस को सात फीसद मुसलिम, 10 फीसद अन्य पिछड़ी जाति, 11 फीसद दलित व 10 फीसद अगड़ी जातियों के वोट हासिल हुए थे।

भाजपा ने पिछले कुछ चुनावों की तरह इस बार भी अपना सारा ध्यान अगड़ी जाति के वोटरों पर केंद्रित कर रखा है। पार्टी इस बात को भली तरह समझ रही है कि उसे अल्पसंख्यकों का वोट नहीं के बराबर मिलना है। इसी वजह से भाजपा ने इस बार भी एक भी अल्पसंख्यक को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया है। भाजपा को यह अंदेशा जरूर है कि अल्पसंख्यक वोटों का इस बार ध्रुवीकरण हो सकता है। जानकारों का कहना है कि यही वजह है कि संघ ने भाजपा के समर्थन में सवर्ण व परंपरागत वोटरों को घर-घर के निकाल कर वोट देने के लिए प्रेरित करने का बीड़ा उठाया हुआ है, जबकि समाजवादी पार्टी ने अल्पसंख्यकों के वोट को बिखरने से रोकने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन तक कर लिया है।