उन्नाव में विधानसभा चुनाव को लेकर इस बार यहां महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों से कहीं ज्यादा प्रभावी आवारा मवेशी और औद्योगिक क्षेत्र में संचालित टेनरियों से निकलने वाला रासायनिक कचरा है। इससे अब हर कोई निजात पा लेना चाहता है। यही कारण है कि चिन्हित मुद्दों से चिंतित सत्ताधारी दल ने इसे समय रहते दुरुस्त करने की बहुत कोशिश की, लेकिन इस भगीरथ प्रयास में उसे सफलता कहां तक मिलती है, यह 10 मार्च की तारीख तय करेगी।

उन्नाव में राजधानी की सीमा से जुड़े क्षेत्र बन्थरा से लेकर कानपुर जाजमऊ तक 70 किलोमीटर लंबी दूरी के तकरीबन दोनों ओर टेनरियां और स्लाटर हाउस (तकनीकी बूचड़खाने) संचालित हैं जिनके इर्द-गिर्द बसे गांवों के साथ गंगा की सहायक नदियां लोन और सई नदी भी इनकी चपेट में हैं। जिसके कारण लखनऊ या कानपुर से सड़क या रेल मार्ग से आवाजाही करने वाले लोग उन्नाव के मुहाने पर पहुंचते ही अपनी नाक पर रूमाल लगाने की कोशिश करने लगते हैं।

याद दिला दें कि प्रदेश के बूचड़खानों में ताला लगवाने के आश्वासन पर वर्ष 2017 में सत्तारूढ़ हुई भाजपा सरकार के प्रयासों से गोवंश की हत्या में ठहराव तो आया लेकिन विराम अब तक नहीं लग सका है जिसके कारण जिले की पुरवा व हसनगंज तहसील क्षेत्र में गाहे-बगाहे प्रतिबंधित मवेशियों के अवशेषों को देखकर एक वर्ग अभी भी धरना प्रदर्शन करता दिखाई पड़ता है लेकिन इस बदलाव से उपजी नई आफत (गोवंश का सड़कों से लेकर खेतों तक विचरण की स्वछन्दता) लोगों को उनके मारे जाने से ज्यादा तकलीफ दे रही है।

ताज्जुब तो इस बात पर है कि गाय, गंगा, गीता (बेटियों) के संरक्षण की दुहाई देने वाले जिम्मेदारों का कार्यकाल बीत जाने पर भी वह पूरे प्रदेश में मूक मवेशियों को संरक्षण नही दिला सके। इस संबंध में एससी वर्मा, ब्रजेश पांडेय के अलावा समाजसेवी अवध नरेश सिंह ने कहा कि प्रदेश में वर्ष 2017 से योगी सरकार के गठन के बाद भले ही कोई विशेष विकास न हुआ हो लेकिन आवारा पशुओं के तेजी से हुए विकास और उनके प्रति क्रूरता व संरक्षण करने को लेकर सियासी दांव पेच चलते जरूर दिखाई पड़े हैं लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि इतना सब होने के बावजूद अव्यवस्थाओं को सुधारने का प्रयास कहीं भी नजर नहीं आया।