उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अब सिर पर है। तो भी दलित मतदाता की उदासीनता को लेकर तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। सूबे में दलितों की आबादी करीब 21 फीसद है। वैसे तो दलितों में अनेक जातियां हैं, पर ज्यादा आबादी जाटव, पासी, धोबी और कोयरी मतदाताओं की है। वाल्मीकि, धानुक, खटीक, बहेलिया, बावरिया, धनगर, गोंड, नट, मुसहर और शिल्पकार जैसी जातियां उंगलियों पर गिने जाने लायक ही हैं। सबसे ज्यादा 60 जाटव मतदाता हैं। इसके बाद पासी, धोबी और कोरी ये तीनों जातियां भी 10-11 फीसद हैं। चूंकि उत्तर प्रदेश में जाटव सबसे ज्यादा हैं और चार बार सूबे की मुख्यमंत्री होने का कीर्तिमान कायम करने वाली मायावती इसी जाति की हैं, लिहाजा दलितों की इस चुनाव में चुप्पी का असली कारण मायावती की चुनावी निष्क्रियता को ही माना जा रहा है।

मायावती ने दलितों का और कुछ भला चाहे किया हो या न किया हो पर उनमें यह आत्मविश्वास तो जगाया ही है कि वे केवल प्रजा नहीं हैं, वे राज भी कर सकते हैं। 1995 में जब भाजपा के समर्थन से मायावती पहली बार सूबे की मुख्यमंत्री बनी थीं तो उसके बाद ही दलित मुखर हुए और उनमें सियासी जागरूकता भी बढ़ी। इससे पहले अमूमन उत्तर प्रदेश के दलितों को कांगे्रस का वोट बैंक माना जाता था। दलितों में मायावती की पैठ का ही यह परिणाम हुआ कि अगड़ी और पिछड़ी जातियों के नेता बसपा के उम्मीदवार बन विधानसभा और लोकसभा में पहुंचे। 20 फीसद वोट की गारंटी की मायावती की हैसियत ने ही उनके चुनावी टिकटों को कीमती बना दिया। लोकसभा ही नहीं विधानसभा टिकट भी करोड़ों की वसूली कर बांटने के मायावती पर खूब आरोप लगे। उन्होंने कभी इन आरोपों को नकारा नहीं। उल्टे यही कहा कि दूसरी पार्टियों की तरह उन्हें पूंजीपति चंदा नहीं देते। लिहाजा वे कार्यकर्ताओं के चंदे से ही बहुजन समाज पार्टी और दलितों का आंदोलन चला पाती हैं।

चार बार सूबे की मुख्यमंत्री रहीं मायावती की इस चुनाव में सक्रियता नजर नहीं आने को लेकर भी तमाम अटकलें लग रही हैं। अमित शाह ने उन पर तंज किया तो मायावती ने जवाब ट्विटर पर दिया कि उनके पास इतना धन नहीं है कि चुनाव की तारीखों के एलान से पहले ही बड़ी रैलियां कर सकें। दरअसल मायावती की सियासी निष्क्रियता का ही नतीजा है कि पार्टी के ज्यादातर कद्दावर नेता उनका साथ छोड़ गए। कुछ को उन्होंने खुद बाहर कर दिया। पर चुनाव में सक्रियता न होने से एक तरफ तो उनके समर्थक दलितों में निराशा का भाव है। दूसरी तरफ कुछ लोग उन पर भाजपा की अंदरखाने मदद करने का आरोप भी लगा रहे हैं। इसकी वजह सरकारी एजंसियों की तरफ से होने वाली कार्रवाई भी हो सकती है। नहीं तो कोई वजह नहीं कि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से मायावती ने भाजपा पर कभी हमला नहीं बोला। वे हमेशा कांगे्रस को ही कोसती रही। हमला सपा पर भी किया पर भाजपा को नहीं छेड़ा।

केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे और दलित हितों के मुखर पैरोकार माने जाने वाले 92 वर्षीय संघप्रिय गौतम इस समय सियासत में सक्रिय नहीं हैं। पर वे भी मान रहे हैं कि इस बार मायावती के वोट बैंक में कमी आएगी। पहले भी दलितों में जाटव ही उनका साथ ज्यादा देते थे। पर इस बार भाजपा को नापसंद करने वाले जाटव मतदाता बसपा के बजाय ऐसे दल का रुख कर सकते हैं जो भाजपा को टक्कर दे रहा हो। वैसे दलितों की बसपा के बाद स्वाभाविक पसंद गौतम के हिसाब से कांगे्रस रही है। लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में अभी तक कांगे्रस को हर कोई मुकाबले से बाहर मान रहा है। ऐसे में अगर कुछ दलित मतदाता सपा के पाले में खिसक जाएं तो बकौल गौतम किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।‘

भाजपा दलितों की स्वाभाविक पार्टी नहीं’

भाजपा की चार दशक तक सक्रिय सियासत करने के बावजूद संघप्रिय गौतम को लगता है कि भाजपा दलितों की स्वाभाविक पार्टी नहीं है। वाजपेयी के दौर तक फिर भी कुछ संजीदगी थी। लेकिन भाजपा के राज्यसभा सदस्य बृजलाल गौतम से सहमत नहीं हैं। उनका दावा है कि मायावती ने दलितों का अहित ज्यादा किया है। उनका भला तो सबसे ज्यादा नरेंद्र मोदी के राज में हुआ है। यह बात अलग है कि भाजपा ने उन उपलब्धियों का ठीक से प्रचार नहीं किया। बृजलाल दलितों की कोरी जाति के हैं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविद भी कोरी हैं। बृजलाल सूबे के पुलिस महानिदेशक रह चुके हैं और उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष भी। उनके पास मोदी सरकार के द्वारा किए गए कामकाज की पूरी फेहरिस्त है। उनका दावा है कि मोदी ने दलितों को न केवल आर्थिक सुरक्षा और सहायता दी है बल्कि कानूनी संरक्षण भी पहले से बेहतर किया है। बृजलाल को यकीन है कि मायावती से निराश दलित मतदाता इस बार बड़ी तादाद में भाजपा का साथ देंगे।

राष्ट्रीय स्तर पर दलितों के लिए दो ही विकल्प’

मायावती को 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट पर सफलता नहीं मिल पाई थी। लेकिन वोट उनका तब भी 22 फीसद था। यानी मोदी का जादू और भाजपा का हिंदू कार्ड उनके दलित वोट बैंक में सेंध नहीं लगा पाया था। मायावती के टिकट पर 2007 में हस्तिनापुर सीट से विधायक बने योगेश वर्मा इस समय समाजवादी पार्टी में हैं। वे भी जाटव हैं। इसी तरह भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद भी जाटव ही हैं। जाटवों के युवा वर्ग में भी अब मायावती की सियासी शैली को लेकर सवाल उठने लगे हैं। कोरोना संक्रमण का सबसे ज्यादा कष्ट दलितों को ही भोगना पड़ा। लेकिन महामारी और बेरोजगारी के संकट के इस दौर में मायावती उनकी मदद में तो दूर सहानुभूति तक में सामने नहीं आई। प्रियंका गांधी की सियासी सक्रियता भी दलितों को सोचने समझने के लिए मजबूर कर रही है। राष्ट्रीय स्तर पर दलितों के पास दो ही विकल्प हैं। भाजपा और कांगे्रस। ऐसे में इस बार दलित मतदाताओं के सामने बसपा के अलावा दूसरे दलों का विकल्प भी खुला है।