बसपा के लिए 1993 के बाद सबसे कटु अनुभव 2017 के विधानसभा चुनाव का रहा। जब पार्टी की सीटें घटकर महज 19 रह गई। लेकिन इस चुनाव में भी उसके वोट समाजवादी पार्टी से ज्यादा थे। सपा ने सीटें बेशक 47 पाई थीं पर वोट उसके बसपा के 22.23 फीसद से कम यानी 21.82 फीसद ही थे। मायावती ने इस बार भी सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का ही नारा लगाया है। वे दलितों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और अगड़ों सभी को उनकी जीत की संभावना के अनुपात में टिकट देने का फैसला कर चुकी हैं। यानी अगर बसपा के उम्मीदवार जीत भी न पाएं तो कहीं वे सपा का खेल बिगाड़ेंगे तो कहीं भाजपा का।
कांगे्रस का जनाधार सूबे में लगातार घट रहा है। चुनावी नतीजे इसका प्रमाण हैं। फिलहाल कांगे्रस ऐसी खुशफहमी में भी नहीं है कि वह सत्ता में आ सकती है। लेकिन यह भी हकीकत है कि उसका जनाधार सूबे में हर सीट पर आज भी मौजूद है-कम या ज्यादा बेशक हो। राहुल गांधी को पीछे कर सूबे में चुनाव की कमान इस बार खुद प्रियंका गांधी ने संभाली है। वे केवल चुनाव के मौके पर सक्रिय हुई हों, ऐसा नहीं है। वे हाथरस हो या उन्नाव, लखीमपुर खीरी हो या लखनऊ, प्रदेश सरकार के खिलाफ हर आंदोलन में शरीक हुई हैं।
कांगे्रस ने पिछला विधानसभा चुनाव समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था। तो भी उसे कोई लाभ नहीं हुआ था। गठबंधन से घाटा होने का दुखड़ा रोते अखिलेश यादव भी नजर आए थे। उन्होेंने इसी कटु अनुभव के कारण 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा और रालोद से तो तालमेल किया पर कांगे्रस से दूरी बनाए रखी। प्रियंका गांधी समझ रही हैं कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अब क्षेत्रीय दलों की बैसाखी के सहारे अधिक दिन नहीं चल सकती। उसे अपने बूते ही चलना पड़ेगा। इसीलिए इस बार विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने महिला सशक्तिकरण का एजंडा आगे बढ़ाया है।
आधी आबादी तो महिलाओें की ही है। जैसे-जैसे उनमें चेतना जागृत हुई है, वे अपने मताधिकार का प्रयोग भी अपनी समझ से करने की परिपक्वता हासिल कर रही हैं। चुनाव में 40 फीसद टिकट महिलाओं को देने के प्रियंका गांधी के फैसले का आज जो दल मजाक बना रहे हैं, आने वाले दौर में वे खुद महिलाओं को ज्यादा हिस्सेदारी देने को मजबूर होंगे। कांगे्रस की रणनीति इस चुनाव में दूरगामी लगती है। प्रियंका मानकर चल रही हैं कि आज नहीं तो बेशक कल सही पर भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती केवल कांग्रेस ही देगी। क्षेत्रीय दलों का प्रभाव देर सवेर घटेगा। यही सोचकर वे अपने दांवपेच आजमा रही हैं। सवा सौ उम्मीदवारों की कांग्रेस की पहली सूची से एक बात और उभरी है। उसने महिलाओं के साथ युवा वर्ग पर भरोसा किया है।
कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में 2007 में 22 सीटें मिली थीं। तब उसके वोट थे 8.61 फीसद। अगले यानी 2012 के चुनाव में उसका वोट आधार भी बढ़कर 11.36 फीसद हो गया था और सीटें भी 22 से बढ़कर 28 हो गई थीं। 2017 कांगे्रस के लिए भी खराब रहा। वह महज सात सीटों पर सिमट गई थी। इनमें से भी पांच विधायक उसका साथ छोड़कर गए। वोट भी उसका केवल 6.25 फीसद रह गया था। इस बार प्रियंका गांधी ने अभिनव प्रयोग किया है। लड़की हूं, लड़ सकती हूं नारे के साथ पीड़ित, शोषित और निर्धन परिवारों की नामचीन महिलाओं को उम्मीदवार बनाया है।
मसलन मेरठ की हस्तिनापुर सीट पर एक दलित अभिनेत्री अर्चना गौतम को तो किठौर में 1857 की क्रांति के नायक धनसिंह कोतवाल की वशंज बबीता गुर्जर को टिकट दिया है। बबीता खुद जीत पाएंगी या नहीं, कोई नहीं जानता पर इतना साफ है कि वे भाजपा के सत्यवीर त्यागी के लिए मुश्किल जरूर खड़ी करेंगी। नोएडा से पंखुड़ी पाठक और उन्नाव से भाजपा विधायक के बलात्कार का शिकार युवती की मां आशा देवी की उम्मीदवारी के भी चर्चें हैं। सीएए के खिलाफ आंदोलन करने पर योगी सरकार ने जिस समाजसेवी सदफ जाफर को जेल भेजा था, प्रियंका ने उन्हें भी टिकट दिया है। इसी तरह शाहजंहापुर में एक आशा कार्यकर्ता पूनम पांडे कांगे्रस के टिकट पर मैदान में हैं।
रही बसपा की बात तो उसका अपना ठोस वोट बैंक तो दलित ही हैं। बसपा का जनाधार 2012 के चुनाव में 25.91 और 2007 में 30.43 फीसद था। अपने बूते पहली बार बसपा ने 2007 में ही सरकार बनाई थी। आज भी यह धारणा है कि मायावती का 15 फीसद दलित वोट बैंक उनके साथ चट्टान की तरह खड़ा है। उन्होंने 53 उम्मीदवारों की पहली सूची में 14 मुसलमान और नौ ब्राह्मण उतार कर एक तरफ तो मुकाबलों को बहुकोणीय बनाया है दूसरी तरफ सांप्रदायिक आधार पर धु्रवीकरण की कोशिशों की राह में कांटे बोए हैं। पर 14 मुसलमान उतारने के बाद भी मुसलमानों में उनकी साख सपा के मुकाबले कमजोर हो जाने से उन्हें लाभ मिल पाएगा या नहीं, कहना मुश्किल है।
दरअसल एक तो 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सपा से गठबंधन तोड़ते वक्त उन्होंने यह बयान देकर चूक की थी कि सपा उनकी दुश्मन नम्बर एक है। उसे रोकने के लिए वे भाजपा से हाथ मिलाने में भी गुरेज नहीं करेंगी। आम मुसलमान को यह आशंका भी है कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में मायावती अखिलेश का साथ देने के बजाय भाजपा से मिल जाएंगी। लेकिन अपने जातीय समीकरणों के बूते मायावती ने इस चुनाव को उलझा जरूर दिया है।