गुड़ खाए, गुलगुले से परहेज। यह मुहावरा राजनीतिक दलों पर एक दम सटीक बैठता है। रामपुर जिले की स्वार टांडा सीट पर भाजपा ने इसी मुहावरे को चरितार्थ किया है। समाजवादी पार्टी के नेता मोहम्मद अब्दुल्ला आजम के मुकाबले भाजपा इस सीट पर किसी मुसलिम उम्मीदवार को ही मैदान में उतारना चाहती थी। पर एक तो उसे खुद मुसलमानों से परहेज है, दूसरे इलाके का कोई कद्दावर मुसलमान नेता भाजपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखाता। इसलिए पार्टी ने अपनी सहयोगी अनुप्रिया पटेल के अपना दल को यह सीट थमा दी। यह बात अलग है कि रामपुर जिले मेंं अपना दल का न कोई संगठन है और न जनाधार।
रामपुर क्षेत्र में दो दशक पहले तक पूर्व रामपुर रियासत के नवाब रहे मिक्की मियां का दबदबा था। लोकसभा चुनाव पहले मिक्की मियां जीतते थे। उनके बाद उनकी पत्नी बेगम नूर बानो संसद पहुंचती रहीं। लेकिन शहर की विधानसभा सीट पर जलवा मोहम्मद आजम खान का ही बना रहा। पिछले विधानसभा चुनाव में रामपुर शहर से आजम खान ही जीते थे। लेकिन पार्टी ने 2019 में उन्हें लोकसभा चुनाव भी लड़ा दिया। वे लोकसभा जीत गए और विधानसभा से इस्तीफा दे दिया।
आजम खान के इस्तीफे के बाद रामपुर शहर सीट के उपचुनाव में उनकी पत्नी जीत गईं। उधर स्वार टांडा सीट से चुने गए आजम खान के बेटे अब्दुल्ला की विधानसभा सदस्यता उनकी जन्मतिथि में हेराफेरी के आधार पर अदालत ने रद्द कर दी। हालांकि इस सीट पर अदालती रोक के कारण ही उपचुनाव नहीं हो पाया। अब आम चुनाव है तो फिर अब्दुल्ला आजम उम्मीदवार हैं। रामपुर में तो भाजपा ने आजम खान के मुकाबले आकाश सक्सेना को उतार दिया पर स्वार टांडा में अब भाजपा अपने सहयोगी अपना दल के कंधे पर बंदूक रख अब्दुल्ला से चुनावी जंग करेगी।
समाजवादी पार्टी ने भी गठबंधन करते हुए एक नया प्रयोग किया है। राष्ट्रीय लोकदल की ज्यादा सीटों की मांग तो अखिलेश यादव ने जरूर मान ली पर पश्चिम की छह सीटों पर उन्हें उम्मीदवार भी अपने थमा दिए। मतलब यह है कि सपा के उम्मीदवार इन सीटों पर साइकिल के बजाय रालोद के चुनाव चिन्ह हैंडपंप से लड़ेंगे। ऐसी ही एक सीट मेरठ जिले की सिवाल खास सीट है।
इस सीट पर रालोद की दावेदारी ज्यादा थी। हालांकि 2012 में यहां सपा के गुलाम मौहम्मद विजयी हुए थे और 2017 में भाजपा के जितेंद्र सतवाई। गुलाम मोहम्मद तब दूसरे नंबर पर रहे थे। यानी रालोद इस सीट पर जीतना तो दूर पिछले दो चुनावों में ंदूसरा स्थान भी हासिल नहीं कर पाया था। यहां सबसे ज्यादा मतदाता भी मुसलमान ही हैं। उसके बाद जाट और दलित मतदाता हैं। रालोद इस सीट से अपना जाट उम्मीदवार उतारने के मूड में था। पर आखिर में जयंत चैधरी को जमीनी हकीकत का अहसास करना पड़ा। अखिलेश ने भी दरियादिली दिखाते हुए सीट अपने उम्मीदवार सहित रालोद को सौंप दी ताकि जाट और मुसलमान गठबंधन कारगर साबित हो।
भाजपा के मनिंदर पाल सिंह इस असंतोष को हवा देकर जाट मतदाताओं का 2017 की तरह भाजपा के पक्ष में धु्रवीकरण करने की जुगत में थे। पर असंतोष दो दिन के भीतर ही थम गया। अब स्थिति ऐसी है कि भाजपा उम्मीदवार किसानों के विरोध के कारण गांवों में दाखिल होने से भी डर रहे हैं। सोमवार को इस विधानसभा क्षेत्र के छुर गांव में तो भाजपा उम्मीदवार के घुसने का ही किसानों ने विरोध किया। उम्मीदवार के वापस न जाने पर उनके काफिले पर हमला भी बोल दिया। कैराना में हिंदुओं के पलायन के मुद्दे को 2017 की तरह ही उभारने की मंशा से अमित शाह के चुनाव प्रचार की शुरुआत के चौबीस घंटे बाद ही कई सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों के विरोध से संकेत मिलता है कि भाजपा के प्रति किसानों खासकर जाट मतदाताओं की नाराजगी दूर नहीं हुई है।
भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत और प्रवक्ता उनके भाई राकेश टिकैत ने प्रत्यक्ष रूप से तो किसी पार्टी के पक्ष में फतवा जारी नहीं किया है। पर वे संकेतों में लगातार कह रहे हैं कि किसान उस पार्टी को सबक सिखाएंगे। जिसने उन्हें तेरह महीने तक दिल्ली में धरना देने के लिए मजबूर किया और जिसके राज में किसान की हालत पहले से बदतर हुई है।
