भाजपा आलाकमान आजकल दीया कुमारी को खूब भाव दे रहा है। जयपुर राज घराने की राजकुमारी दीया कुमारी इस समय राजसमंद से लोकसभा की सदस्य हैं। इसके बावजूद भाजपा ने उन्हें जयपुर की विद्याधर नगर सीट से विधानसभा का उम्मीदवार बनाया है। यह सीट नरपत सिंह राजवी की थी। भैरो सिंह शेखावत के दामाद हैं राजवी। दीया कुमारी के लिए पार्टी ने राजवी की सीट बदली है। दीया कुमारी को राजनीति में वसुंधरा राजे लाई थीं और विधानसभा चुनाव लड़ाया था। अब दोनों के रिश्तों में खटास है।
आलाकमान ने इस बार राजस्थान में वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया है। मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव बाद करने की बात कही है। भले वसुंधरा ही सूबे में भाजपा की सबसे कद्दावर नेता मानी जाती हैं, पर उनके और आलाकमान के रिश्तों की तल्खी जगजाहिर है। इसलिए दीया कुमारी को विधानसभा चुनाव लड़ाने के फैसले को सियासी हलकों में वसुंधरा का विकल्प खोज लेने के रूप में देखा जा रहा है। महिला भी हैं और राजपूत भी। वसुंधरा की तरह राजघराने से भी नाता है। उन्हें दिए जा रहे महत्त्व से आलाकमान की मंशा का संकेत मिलता है।
खामखा
मंत्रियों के साथ उनके छुटभैये नेता जिन्हें कभी ‘सेक्रेटरी’ तो कभी ‘ओएसडी’, कभी ‘स्पेशल आफिसर’ का जामा पहना दिया जाता है, अक्सर अपनी हद में ही रहते हैं। वे गाहेबगाहे मंत्री जी के उवाच पर ताली ठोक देते हैं, हामी भर देते हैं, मुस्करा देते हैं, कभी-कभार मंत्री की बातों को दुहरा भी देते हैं। लेकिन, कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपनी हद लांघते हुए ‘राजा से भी ज्यादा वफादार’ होने का दावा कर बैठते हैं और जवाब में अपनी बेइज्जती करवा ही लेते हैं।
केंद्र में सब मंत्रियों की अपनी पहचान है। कुछ की अपने महकमे के काम के लिए, कुछ की अपनी राजनीतिक टिप्पणियों के लिए और कुछ की अपनी सांप्रदायिक या कट्टर सोच के लिए। बहरहाल, एक मंत्री जी साक्षात्कार दे रहे थे। सभी सवाल-जवाब हो रहे थे। अचानक एक सवाल मंत्री जी को तो नहीं पर ‘सेक्रेटरी’ के वेश में बैठे उनके एक गुर्गे को चुभ गया। बीच में टपक पड़े।
‘अरे आपने विकास पर तो कोई सवाल पूछा नहीं, आप तो हिंदू-मुसलमान के सवाल पूछ रहे हैं।’ समस्या यह कि वफादार के कान ने सिर्फ एक ही सवाल सुना, बाकी के समय शायद कान में रुई डाल के बैठे थे। उनसे पूछा गया, ‘भई आप कौन हैं? आपसे कौन पूछ रहा है?’ बोले, ‘मैं सेक्रेटरी हूं।’ मंत्री जी बोले, ‘मेरे मित्र हैं’। क्या थे, यह तो वही जानें पर ऐसों के लिए ही पंजाब की खालिस कहावत है, ‘तू कौन मैं खामखा’।
तीसरी शक्ति?
बहुजन समाज पार्टी की तैयारी राजस्थान में सभी 200 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने की है। पार्टी के राजस्थान के अध्यक्ष भगवान सिंह बाबा का दावा है कि इनमें से पार्टी का ज्यादा ध्यान अपने प्रभाव वाली 60 सीटों पर रहेगा। सूबे में पार्टी की सुप्रीमो मायावती की छह रैलियां प्रस्तावित हैं। बसपा की राजस्थान में जड़ें 1998 में कांशीराम की कोशिश से जमी। नतीजतन 2008 में पार्टी को 7.6 फीसद वोट और छह सीटें मिल गईं।
पांच साल बाद वोट घटकर 3.4 फीसद और सीटें तीन रह गईं। पिछले चुनाव में वोट तो चार फीसद मिले थे पर सीटें छह झोली में आई थी। हालांकि, ये सभी विधायक बाद में कांगे्रस में शामिल हो गए थे। राजस्थान के उत्तर प्रदेश से सटे इलाकों में बसपा के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन, सूबे में पार्टी की हैसियत सत्ता में आने या सरकार के गठन में सौदेबाजी कर पाने लायक कभी नहीं हो पाई थी।
उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का जनाधार लगातार घट रहा है। मायावती ने उत्तर प्रदेश में तो भाजपा की सत्ता आने के बाद उपचुनाव से किनारा कर लिया हैै पर राजस्थान में विधायकों के हर बार बेवफा हो जाने पर भी उनकी दिलचस्पी जरूरत से ज्यादा है। भगवान सिंह बाबा का तर्क है कि विधायक भले पार्टी छोड़ जाते हैं पर मतदाताओं ने साथ नहीं छोड़ा।
भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर आजाद मायावती पर भाजपा से साठ-गांठ रखने का आरोप लगा रहे हैं। उनका तो यह भी आरोप है कि बसपा राजस्थान और मध्यप्रदेश में चुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि भाजपा की राह आसान बनाने के लिए उम्मीदवार लड़ा रही है। सही मायनोें में तो उनकी भूमिका तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
पटनायक संग पांडियन
वीके पांडियन ने सरकारी सेवा से आखिर इस्तीफा दे दिया। तमिल मूल के ओड़ीशा कैडर के आइएएस पांडियन की मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से निकटता पर विपक्ष कब से नुक्ताचीनी कर रहा था। पटनायक ने सबकी बोलती बंद कर दी। आइएएस से इस्तीफे के 24 घंटे के भीतर ही पांडियन को एक सरकारी विभाग का मुखिया बना दिया। हैसियत कैबिनेट मंत्री वाली।
अभी तो 11 साल बचे थे नौकरी के। पांडियन तो ठहरे मुख्यमंत्री के चहेते अफसर। पार्टी के नेताओं तक को उनसे ईर्ष्या होती होगी। गंजम जिले के कलक्टर थे पांडियन 2007 में तभी नवीन पटनायक के प्रिय बने। पटनायक ने 2011 में उन्हें अपना निजी सचिव नियुक्त किया। नौकरी से इस्तीफा देने तक लगातार 12 वर्ष पांडियन मुख्यमंत्री के सचिव ही बने रहे। निजी सचिव तो वे महज औपचारिक तौर पर थे।
विपक्ष तो उन्हें ही मुख्यमंत्री बताता था। लगातार सरकारी हेलिकाप्टर से सूबे का दौरा कर रहे थे। जगह-जगह जनता की समस्याओं और शिकायतों की सुनवाई के लिए दरबार भी लगाते थे। तभी तो विपक्ष मांग कर रहा था कि नौकरी छोड़कर सक्रिय राजनीति में क्यों नहीं आ जाते। पांडियन ने यह सलाह भी मान ली।
संकलन : मृणाल वल्लरी