पंजाब कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस में जुलाई 2021 में जिस गति से सबसे चर्चित चेहरे के रूप में उभरते नजर आए, उससे कहीं तेज रफ्तार से उनकी राजनीतिक लोकप्रियता का ग्राफ लुढ़क भी गया। यदि यह बात उनकी ही क्रिकेट की शैली में कही जाए तो मात्र छह महीनों में ही वे राजनीति की पिच पर एक सलामी बल्लेबाज से निचले क्रम के बल्लेबाज बना दिए गए।

गत 23 जुलाई को सिद्धू ने कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी संभाली थी और उनका ‘ताली ठोंकने’ का अंदाज ऐसा था कि जो पार्टी विधायक तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ सिद्धू के बगावत करते समय उनके पीछे कतार बांधकर खड़े हो गए थे, वे सब अब उनसे किनारा कर चुके हैं। कांग्रेस में सिद्धू को तब पांच साल ही हुए थे लेकिन उनका प्रदेश प्रमुख के पद पर आसीन होना किसी चमत्कार से कम नहीं रहा क्योंकि जो प्रदेश प्रधान का ओहदा कांग्रेस में ही जीने-मरने की कसमें खाने वाले दिग्गज कांग्रेस नेताओं को पार्टी में सालों-साल खप जाने के बावजूद नसीब नहीं होता, उसे सिद्धू आसानी से पा गए।

पंजाब चुनाव 2017 के दौरान सिद्धू को कांग्रेस में प्रशांत किशोर लाए। वे तब कांग्रेस के प्रमुख रणनीतिकार थे, जिनके इशारे के बिना कांग्रेस में पत्ता तक नहीं हिलता था। एक आला कांग्रेस नेता का कहना है कि उनके पार्टी में आने के बाद ऐसी हवा बनाई गई थी कि लगा था कि कांग्रेस सरकार बन जाएगी।

क्रिकेटर से राजनेता बने सिद्धू अमरिंदर सरकार में दो साल मंत्री भी रहे लेकिन लोकसभा चुनाव 2019 में कैप्टन ने उनके खराब प्रदर्शन का हवाला देते हुए स्थानीय निकाय विभाग में उनका मंत्री पद छीन लिया था। फिर 2019 में सिद्धू की लोकप्रियता तब बुलंदियां छूने लगीं जब पाकिस्तान ने करतारपुर गलियारा खोल दिया और सोशल मीडिया पर उनके प्रशंसकों की मानो बाढ़ सी आ गई। उससे पहले सिद्धू कांग्रेस के सितारा प्रचारक होते थे और यही वजह है कि पार्टी ने उन्हें लोकसभा चुनाव के समय कई प्रांतों में प्रचार के लिए भेजा था।

कैप्टन के जाने के बाद उन्होंने पंजाब का मुख्यमंत्री बनने के लिए एड़ी चोटी एक कर दी, लेकिन पार्टी की योजना सुनील जाखड़ को मुख्यमंत्री बनाने की थी जिसमें सिद्धू को 2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए बचाकर रखा जाना था। उनकी एक समय लोकप्रियता का अंदाज ऐसा था कि जब भी वे किसी रैली में पहुंचते और जितनी भी देर बोलते, सुनने वाले तालियां बजाते रहते।

एक आला कांग्रेस नेता ने जनसत्ता को बताया कि सिद्धू का सुनील जाखड़ के साथ करार ऐसा होना था कि उन्हें 2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया जाना था लेकिन उससे पहले ही सुनील जाखड़ का रास्ता रोक दिया गया और कहा जाए तो पंजाब में मुख्यमंत्री की कुर्सी चरणजीत सिंह चन्नी के हाथ आ गई।

कांग्रेस के एक नेता का कहना है ‘कोई नहीं जानता था कि चन्नी 111 दिन मुख्यमंत्री रहने के बाद नहीं हटेंगे और न ही ऐसा होना था। ऊपर से चन्नी की किस्मत का सितारा बुलंद करने-कराने में रही सही कसर सिद्धू की आए दिन की कारगुजारियों ने पूरी कर दी और उसके बाद पार्टी में सिद्धू को ‘जिद्दी’ नेता के रूप में देखा जाने लगा। पंजाब में डीजीपी और महाधिवक्ता बदलवाने के लिए तो उन्होंने एक बार अपना प्रदेश प्रधान पद तक त्याग दिया। उससे पहले हालांकि अपने कार्यकर्ताओं से वादा तो उन्होंने कांग्रेस मुख्यालय में ही बिस्तर लगा लेने का किया था ताकि वे हर समय उपलब्ध रह सकें लेकिन वे पीपीसीसी कार्यालय में आते ही नहीं थे। भले ही तब उनकी पंजाब में डीजीपी और महाधिवक्ता बदले जाने की मांग जायज रही हो लेकिन उनका अचानक इस तरह घर बैठ जाना और कोप भवन में पड़े रहना पार्टी को रास नहीं आया।

दूसरी ओर मुख्यमंत्री चन्नी लगातार अपने कामकाज में मेहनत के साथ लगे रहे और एक भी दिन उन्होंने ओछी बातें करने या ओछी हरकतों में बर्बाद नहीं किया। चूंकि आला कांग्रेस नेतृत्व सिद्धू पर मेहरबान था, इसलिए चन्नी को भी गाहे-बगाहे सिद्धू की ज्यादतियां बर्दाश्त करनी पड़ीं लेकिन वे लगातार अपनी छवि बनाने में जुटे रहे। उसके बाद तो एक तरह से लोगों को चन्नी के रूप में एक नया नेता मिल गया और लोकप्रियता के मामले में सिद्धू लगातार उनके मुकाबले पिछड़ते गए। यानी सिद्धू के अर्श से फर्श पर आ जाने का सारा खेल दरअसल 28 सितंबर को उनके पीपीसीसी प्रधान पद से इस्तीफा दिए जाने के बाद तीन महीने चला, और इस अवधि में सिद्धू ने अपना काम बिगाड़ लिया। वहीं, चन्नी ने यह सारा समय खुद को पंजाब के अगले मुख्यमंत्री का चेहरा बनने लायक बनाने में झोंक दिया।

कांग्रेस के एक अन्य नेता ने बताया कि इस बीच चन्नी भी पार्टी को ऐसा करने के लिए उकसाने लगे थे। इसके बाद एक तरह से उनके लिए जाल बिछाया गया और उसमें सिद्धू फंस गए। सिद्धू के ही एक सहयोगी नेता ने कहा कि यहां यह भी याद रखना होगा कि जिस-जिस नेता को सिद्धू का साथ मिला, उन सबको कांग्रेस ने टिकट भी दिया। सिद्धू को थोड़ा सब्र रखना चाहिए था। कम से कम उन्हें अपने साथी विधायकों को साथ लेकर चलना चाहिए था। जब आलाकमान के प्रतिनिधियों ने मुख्यमंत्री का चेहरा तलाशने की मुहिम के तहत विधायकों से संपर्क साधा तो अधिकतर ने सिद्धू के हक में वोट ही नहीं दिया और चन्नी सबकी पहली पसंद बनकर उभरे।

भले ही कांग्रेस ने सिद्धू को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर नजरअंदाज किया हो लेकिन उनकी छवि बेदाग है। उन्हें अब भी एक ईमानदार नेता के रूप में जाना जाता है जो पंजाब के पुनर्निर्माण के इच्छुक हैं और कर्ज तले दबे प्रदेश को बाहर निकालने के लिए कैप्टन के ऊपर भी लगातार उनकी नीतियों में बदलाव करने का दबाव बनाते रहे हैं।