लोकसभा चुनाव को लेकर इस बार कांग्रेस को जरूरत से ज्यादा ही उम्मीदे हैं, उसका मानना है कि क्योंकि विपक्ष एकजुट हो चुका है, ऐसे में जीतने की संभावना भी ज्यादा है। तमाम ओपिनियन पोल जरूर अलग कहानी बयां कर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस को एक उम्मीद है, उम्मीद 2004 वाले लोकसभा चुनाव नतीजों जैसी। वो भी एक वक्त था जब शाइनिंग इंडिया का नारा बीजेपी ने दिया था, अटल बिहारी वाजपेयी जैसा चेहरा था और दिखाने के लिए कई सारीं विकास परियोजनाएं।
लेकिन उस सब के बीच कांग्रेस की तरफ से एक नारा निकला- कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ। गरीबी पर फोकस रहा, महंगाई को मुद्दा बनाया गया और आजाद भारत का एक बड़ा उलटफेर वाला चुनावी नतीजा सामने आया। उस चुनाव में एनडीए का सीटों का आंकड़ा सिर्फ 181 पर सिमट गया, वहीं यूपीए ने बाजी मारते हुए 218 सीटें जीत लीं। अब उन नतीजों को ही देखने के बाद राहुल गांधी को लगता है कि 2024 में भी इतिहास खुद को दोहरा सकता है। अब सोचने में कुछ गलत नहीं, उम्मीद रखना भी गुनाह नहीं, लेकिन जमीनी हकीकत का पता होना भी जरूरी है।
कांग्रेस को सबसे पहले समझने की जरूरत है कि 2004 में सोनिया गांधी जैसा एक बड़ा और विश्वसनीय चेहरा उसके साथ था। उस समय जमीन पर ये नॉरेटिव सेट हुआ था कि अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ एक सशक्त महिला खड़ी हुई है। उस चुनाव में सभी को हैरान करते हुए यूपीए ने सरकार बनाई थी। बात अगर 2004 के नतीजे की ही हो, उस चुनाव में सोनिया गांधी का एक और फार्मूला काफी कारगर साबित हुआ था। उस फार्मूले के तहत राज्य दर राज्य कांग्रेस ने कई क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन बनाया था। वो गठबंधन रणनीति के लिहाज से काफी सटीक साबित हुए।
उदाहरण के लिए तब महाराष्ट्र में एनसीपी, आंध्र प्रदेश में टीआरएस, तमिलनाडु में डीएमके, झारखंड में जेएमएस और बिहार में राजद, लोजपा के साथ अलायंस किया गया था। उस चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि यूपीए को और खास तौर पर कांग्रेस को उन गठबंधन का काफी फायदा हुआ। उन पांच राज्यों की 188 लोकसभा सीटों में से यूपीए 114 सीटें जीतने में कामयाब रहा। अब ये फार्मूला 2004 में जरूर काम किया, लेकिन 20 साल बाद जमीन पर स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। ये बदली हुई स्थिति बता रही है कांग्रेस के लिए आगामी लोकसभा चुनाव में राह इतनी आसान नहीं रहने वाली।
इन 20 सालों में सबसे बड़ा परिवर्तन तो ये आ गया है कांग्रेस अब उतनी मजबूत नहीं जितनी पहले हुआ करती थी। जिन राज्यों में पहले उसकी सरकार थी, अब वहां पर वो विपक्ष की भूमिका में भी मुश्किल से खड़ी हुई दिखाई देती है। उत्तर भारत के कई राज्यों में तो उसका पूरी तरह सूपड़ा साफ हो चुका है।
इसके ऊपर अगर ध्यान से देखा जाए तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी की विचारधारा में भी समय के साथ काफी बदलाव आ गया है। जो राहुल गांधी आज जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं, आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं, जब उन्होंने राजनीति में शुरुआत की थी वे सभी के लिए समान अवसर की बात करते थे। उस समय राहुल गांधी को एक मॉडर्न नेता के रूप में देखा जाने लगा था, लेकिन अब जब 20 साल गुजर चुके हैं, राहुल गांधी भी पुरानी किस्म की राजनीति पर चलते हुए दिखाई दे रहे हैं।
कांग्रेस ऐसी उम्मीद जरूर कर रही है कि जातिगत जनगणना के जरिए ओबीसी-दलित और गरीबों का एक बड़ा वोट उसे फिर हासिल हो सकता है लेकिन दूसरी सच्चाई ये भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने इसी वोट बैंक में पिछले 10 सालों में बड़े स्तर पर सेंधमारी की है। कई सारी लाभकारी योजनाएं और दूसरे फैसलों की वजह से दलित और ओबीसी पीएम मोदी के साथ मजबूती से खड़े हुए हैं और इस समय उनकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह भी हैं।
इसके ऊपर इस बार अगर प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से एनडीए के लिए 400 प्लस का लक्ष्य निर्धारित किया गया है, तो उसे पूरा करने के लिए जमीन पर खुद पीएम मोदी और अमित शाह लगे पड़े हैं। उस रणनीति के तहत कार्यकर्ताओं से लगातार संवाद स्थापित किया जा रहा है, बूथ लेवल के नेताओं तक को मुख्य धारा में लाने का काम हो रहा है। दूसरी तरफ अगर कांग्रेस की बात की जाए तो कई बड़े चेहरे उसे लगातार छोड़ कर जा रहे हैं, हाल के दिनों की बात करें तो गौरव वल्लभ और संजय निरुपम ने देश की सबसे पुरानी पार्टी से हाथ छिटक लिया है। इसके ऊपर इंडिया गठबंधन में जिस तरह से अंदरूनी कलेश देखने को मिल रहा है, जिस तरह से कई सीटों पर अभी भी आम सहमति नहीं बन पाई है, जिस तरह से पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने एकला चलो नीति पर आगे बढ़ने का फैसला किया है, यह तमाम वो फैक्टर हैं जो बीजेपी को एक बार फिर कांग्रेस की तुलना में अपर हैंड देने का काम कर रहे हैं।