लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले ही मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविंद केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य बनवाने के मुद्दे को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाना चाहते थे, वह सफल होता दिख नहीं रहा है। चुनाव स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित होता जा रहा है। ‘आप’ का पूरा चुनाव प्रचार ही कांग्रेस से गठबंधन न होने के कारण बिखरा हुआ दिख रहा है। दिल्ली की लगातार 15 साल मुख्यमंत्री रहीं और इस चुनाव में दिल्ली उत्तर पूर्व से चुनाव लड़ रहीं शीला दीक्षित भले ही ज्यादा उम्र के कारण ज्यादा कामयाब न हों, लेकिन ‘आप’ को एजंडा बदलने पर मजबूर कर दिया है। तभी तो ‘आप’ नेता सीधे प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष पर हमला बोल रहे हैं और भाजपा उम्मीदवारों की उम्मीदवारी खारिज करवाने पर चुनाव प्रचार से ज्यादा जोर लगा रहे हैं। ‘आप’ के साथ इस चुनाव में दोहरा खतरा है कि अगर पार्टी चुनाव न जीत पाई और कांग्रेस से पिछड़ गई तो अगले कुछ महीनों बाद उसे अपना वजूद बचाना भारी पड़ेगा।

‘आप’ के राजनीतिक दल बनाने के समय केजरीवाल ने जुलाई 2012 में जंतर-मंतर पर 12 दिन का धरना दिया था। पहला बेमियादी अनशन बिजली के मुद्दे पर मार्च 2013 में सुंदर नगरी में 15 दिनों तक किया और वही अनशन उनकी राजनीतिक सफलता का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। सस्ती बिजली और पानी के बूते ही वे 2013 के विधानसभा में 28 सीटें और 2015 के विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटें जीतीं। उनकी पहली सरकार 49 दिन चली। उसी सरकार के दौरान कुछ पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई के लिए उन्होंने जनवरी 2014 में रेल भवन पर धरना दिया। दोबारा सरकार आने पर भी उनका उपराज्यपाल और केंद्र सरकार से विवाद जारी ही रहा और शहर में सीसीटीवी लगाने में उपराज्यपाल पर अवरोध डालने के नाम पर उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ 14 मई 2018 को उपराज्यपाल दफ्तर (राजनिवास) पर धरना दिया।

11 जून 2018 को उपराज्यपाल पर फाइलें रोकने का आरोप लगाकर केजरीवाल ने अपने सहयोगियों के साथ राजनिवास के प्रतीक्षा कक्ष में नौ दिन तक धरना दिया। बीच के चार साल जब केजरीवाल लोगों से दूर होते गए तो पार्टी बेअसर होने लगी। पंजाब विधानसभा, दिल्ली के उपचुनाव और नगर निगमों के उपचुनावों ने यह संकेत साफ दे दिए थे। दिल्ली को मिली विधानसभा के लिए बनी सरकारिया आयोग और बालाकृष्ण कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में संविधान सभा की दिल्ली को विधानसभा देने पर हुई बहस का जिक्र किया जिसमें बताया गया था कि संविधान बनाने वाली समिति के अध्यक्ष डॉक्टर आंबेडकर तक ने दिल्ली को राज्य बनाने का विरोध किया था। देश की राजधानी को राज्य बनाने का ज्यादातर नेताओं ने विरोध किया। इसीलिए दिल्ली को सीमितअधिकारों वाली विधानसभा दी गई थी।

संभव नहीं पूर्ण राज्य बनाना
दिल्ली की असली सत्ता किसके हाथ में है? इस मुद्दे को सरकार हाई कोर्ट ले गई। हाई कोर्ट ने 16 अगस्त 2016 को अपने फैसले में उपराज्यपाल को दिल्ली का बॉस बता दिया। इसे दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ में चार जुलाई 2018 को गैर आरक्षित मामलों में दिल्ली सरकार के फैसले को अंतिम बता दिया लेकिन अधिकारियों के तबादले आदि पर सुनवाई के लिए दो जजों की पीठ बना दी। अभी 14 फरवरी को इस पीठ ने केजरीवाल के दावे को कम कर दिया। दो जजों की राय में होने के चलते केजरीवाल सरकार के अनुरोध पर उसकी सुनवाई बड़ी पीठ में करने की अर्जी सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर ली, लेकिन केजरीवाल ने इस फैसले का विरोध किया। वे यह स्वीकारने को तैयार नहीं हैं कि दिल्ली सामान्य राज्य नहीं है। वे बार-बार आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा और कांग्रेस भी पूर्ण राज्य की मांग करती रही है लेकिन वे अब उनका साथ देने को तैयार नहीं हैं। दिल्ली की राजनीति में सक्रिय दोनों ही दल भाजपा और कांग्रेस को पता है कि यह संभव ही नहीं है। संविधान की धारा 239 एए में जिसके तहत 1993 में दिल्ली को विधानसभा मिली। इसमें कोई संशोधन संसद में दो तिहाई बहुमत से ही हो सकता है।