Lok Sabha Election 2019: कभी दुनियाभर में ‘सिल्क सिटी’ के रूप में मशहूर भागलपुर लोकसभा सीट इस बार जदयू के खाते में चली गई है। भागलपुर लोकसभा सीट पर पिछले तीन चुनावों में (वर्ष 2014 का आम चुनाव छोड़ कर) भाजपा ने जीत दर्ज की थी। इस लिहाज से देखा जाए, तो भाजपा को नुकसान हुआ है क्योंकि उसे वो सीट भी कुर्बान करनी पड़ी, जिसे आसानी से जीती जा सकती थी। लेकिन जदयू के लिए इस सीट पर जीत दर्ज करना आसान नहीं होगा क्योंकि यहां कई फैक्टर काम करते हैं।

भागलपुर सीट का चुनावी इतिहास: भागलपुर लोकसभा सीट के अस्तित्व में आने के बाद 1952 से लेकर 1971 तक लगातार कांग्रेस ने इस पर जीत दर्ज की थी। 1977 में व्यतिक्रम हुआ और जनता पार्टी के उम्मीदवार रामजी सिंह ने इस सीट पर कब्जा जमाया लेकिन अगले चुनाव में दोबारा यह सीट कांग्रेस की झोली में चली गई और 1984 के आम चुनाव तक कांग्रेस का इस सीट पर राज रहा। इसके बाद हुए तीन चुनावों में जनता दल ने इस सीट पर कब्जा जमाया। चुनाव का ये दौर भागलपुर दंगे के बाद चला था, जिसके बाद कांग्रेस का जनाधार पूरी तरह बिखर गया था। लालू प्रसाद यादव ने इस जनाधार को बटोर कर अपने पक्ष में किया था। इसके बाद यह सीट भाजपा, माकपा और राष्ट्रीय जनता दल के पाले आती-जाती रही।

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जदयू के लिए जीत कितनी मुश्किल: भागलपुर में भाजपा का जनाधार जदयू से ज्यादा है। वर्ष 2004, 2006 और 2009 के आम चुनाव में भाजपा का अपना वोट तो मिला ही था, जदयू साथ था, तो उसका वोट भी भाजपा की झोली में गया, जिससे भाजपा ने जीत दर्ज कर ली। वर्ष 2014 के आम चुनाव में मोदी लहर के बावजूद भाजपा उम्मीदवार और वरिष्ठ नेता सैयद शाहनवाज हुसैन अपनी सीट नहीं बचा पाए थे, क्योंकि तब जदयू भाजपा से अलग हो गया था। वर्ष 2014 में भागलपुर में त्रिकोणीय मुकाबला हुआ था। चूंकि मुकाबला त्रिकोणीय था, इसलिए वोट बंट गया और भाजपा को इसका नुकसान उठाना पड़ा था।

मछुआरा समुदाय किसे वोट देगा: भागलपुर लोकसभा क्षेत्र में मछुआरों की ठीकठाक आबादी है और किसी उम्मीदवार की जीत या हार में इस समुदाय के वोट की भूमिका को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। लेकिन, यहां रहनेवाला मछुआरा समुदाय भी कई समस्याओं से घिरा हुआ है। गंगा में प्रदूषण के कारण वैसे ही मछलियां कम हो गई हैं, जिससे मछुआरों की रोजी-रोटी पर संकट है। उस पर गंगा में माफियाओं का दबदबा बढ़ गया है। ये माफिया बड़े जाल का इस्तेमाल करते हैं। मछुआरा समुदायों को गंगा में उतरने पर इन माफियाओं का कोपभाजन भी बनना पड़ता है। इसके अलावा गंगा के कटाव से सैकड़ों मछुआरों को विस्थापित भी होना पड़ा है। उनकी इन समस्याओं का अब तक कोई समाधान नहीं निकल सका है।

 

सियासी तौर पर देखें तो मछुआरा बिरादरी अलग-अलग समय में अलग- अलग पार्टियों को वोट देती रही है। मछुआरों के एक स्थानीय नेता ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर कहा कि मछुआरा समुदाय ने पिछले चुनावों में भाजपा को वोट दिया था। लेकिन इस बार दावे के साथ कहना मुश्किल है कि वे भाजपा के साथ जाएंगे। इसकी वजह ये है कि इस बार ‘सन ऑफ मल्लाह’ के नाम से मशहूर नेता मुकेश साहनी महागठबंधन के साथ हैं। मुकेश साहनी पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ थे और कई चुनावी सभाओं में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ गए थे। इस चुनाव में मछुआरों का वोट भाजपा को मिला था। सीटों पर समझौता नहीं होने के कारण उन्होंने एनडीए को अलविदा कह दिया और विकासशील इंसान पार्टी के नाम से अपना दल बना लिया।

मछुआरा समुदाय में मुकेश साहनी को लेकर क्रेज है। राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘पहली बार मछुआरा समुदाय को अपनी बिरादरी का नेता और पार्टी मिला है।  मुकेश साहनी जिस पार्टी में होंगे, उस पार्टी को फायदा मिलेगा।’

दोतरफा मुकाबला: इस बार भागलपुर में मुकाबला दोतरफा होने जा रहा है क्योंकि जदयू अब एनडीए के साथ हैं। जदयू ने भागलपुर लोकसभा सीट के अंतर्गत आनेवाले नाथनगर विधानसभा सीट पर दो बार विधायक रहे अजय मंडल को टिकट दिया है। नाथनगर व आसपास के क्षेत्रों में अजय मंडल की अपनी लोकप्रियता भी इलाके में खूब है। वह गंगोत समुदाय से आते हैं, जो मल्लाह ही माने जाते हैं। स्थानीय पत्रकार प्रदीप विद्रोही बताते हैं कि अजय मंडल मल्लाहों में लोकप्रिय हैं क्योंकि वह उनके छोटे से छोटे आयोजनों में भी एक पुकार पर आ जाते हैं। वह व्यक्तिगत तौर पर भी लोगों की मदद कर दिया करते हैं। वहीं, राजद की तरफ से मौजूदा सांसद शैलेश कुमार उर्फ बुलो मंडल को दोबारा टिकट दिया गया है। बुलो मंडल भी मल्लाह बिरादरी से ही आते हैं, इसलिए मल्लाहों के वोट के बंटने के भी आसार हैं।

करघा उद्योग की समस्या: भागलपुर दुनियाभर में सिल्क सिटी के रूप में मशहूर रहा है क्योंकि यह हथकरघा उद्योग एक जमाने में खूब फूला-फला था। हथकरघा में रेशम की साड़ियां व अन्य कपड़े तैयार होते थे, जिसकी मांग दुनियाभर में थी। 1989 के दंगे ने यहां न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई बना दी, बल्कि हथकरघा उद्योग को भी चौपट कर दिया। स्थानीय लोग बताते हैं कि दंगे में हजारों घरों को जला दिया गया जिस कारण हथकरघा का काम कई सालों तक बंद रहा और जब हथकरघा का काम शुरू हुआ, तब तक रेशम का बाजार खत्म होने लगा था। साथ ही करघा चलाने के लिए कारीगरों की भी किल्लत होने लगी, नतीजतन रेशम उद्योग ने दम तोड़ दिया। हैंडलूम व पावरलूम तो भागलपुर में अब भी चल रहे हैं, मगर रेशम का काम करीब-करीब खत्म हो चुका है।

लूम चलानेवालों का कहना है कि रेशम का काम अब 10 फीसदी से भी कम होता है। हां, कॉटन व अन्य कपड़े अब भी तैयार हो रहे हैं। करघा मालिकों ने बताया कि रेशम के कपड़ों और करघा उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाने की अपील केंद्र और राज्य सरकार से कई बार की गई लेकिन अब तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। इससे लोगों में एनडीए सरकार के खिलाफ नाराजगी है। अगर नाराजगी वोट पर असर डाल दे, तो फिर खेल बदल सकता है। अब देखना ये है कि चुनावी समर में उतरनेवाले नेता इन समस्याओं को कितना उठाते हैं और इसका क्या फायदा मिलता है। (भागलपुर से उमेश राय की रिपोर्ट)