Lok Sabha Election 2019: दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र का पहला ऐसा चुनाव है जिसमें यहां का सबसे बड़ा मुद्दा अलग राज्य ‘गोरखालैंड’ गायब है। यह मुद्दा पिछले तमाम चुनावों के उलट इस बार ठंडा पड़ गया है। समस्त राजनीतिक पार्टी दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र के मूल निवासी गोरखाओं के पहचान संकट की समस्या को स्वीकार कर रही है और उसे दूर करने का आश्वासन भी दे रही है। पहाड़ को अधिक से अधिक स्वायत्त शासन प्रदान किए जाने की भी वकालत कर रही है। परंतु अलग राज्य गोरखालैंड की सदी भर पुरानी मांग पर सबका रवैया गोल-मोल है।

वोट बैंक है वजहः पश्चिम बंगाल राज्य में कुल 42 लोकसभा सीट है। उसमें एकमात्र दार्जिलिंग लोकसभा सीट को छोड़ कर अन्य सारी 41 सीट वाली बंगाली बहुल आबादी बंगाल विभाजन के विरुद्ध है। उन्हें किसी भी कीमत पर अलग राज्य गोरखालैंड स्वीकार नहीं है। ऐसे में केवल एकमात्र दार्जिलिंग सीट के लिए कोई भी पार्टी गोरखालैंड का राग अलापे तो घाटे का सौदा होगा। अन्य 41 सीटों पर उसे मुखर विरोध का सामना करना पड़ेगा। वहीं, यदि गोरखालैंड का राग न अलापे तो दार्जीलिंग के लोगों विशेष कर बहुसंख्यक गोरखाओं का कोपभाजन बनना पड़ेगा। यही वजह है कि गोरखालैंड का मुद्दा बीच में लटका हुआ है।

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क्या है गोरखालैंड की मांगः उल्लेखनीय है कि दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र के गोरखाओं द्वारा अलग राज्य गोरखालैंड की मांग सदी भर से ज्यादा पुरानी है। वर्ष 1907 में हिल मेंस एसोसिएशन ऑफ दार्जिलिंग ने अलग राज्य गोरखालैंड की ब्रिटिश सरकार से मांग की थी। उसके बाद कालांतर में यह मांग ठंडी पड़ गई। वर्ष 1986 में सुभाष घीसिंग ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) गठित कर नए सिरे से गोरखालैंड की आवाज उठाई। बड़ा खूनी आंदोलन हुआ, लगभग 1200 लोगों की जान गई। तब, जा कर 1988 में केंद्र की कांग्रेस व राज्य की माकपा सरकार ने पहाड़ के लिए स्वायत्त शासन की व्यवस्था की। दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) गठित हुआ। सुभाष घीसिंग उसके प्रशासक बने। उन्होंने दो दशक तक पहाड़ पर एक छत्र राज किया।

घीसिंग से लेकर गुरुंग तकः गोरखालैंड की मांग जब ठंडी पड़ गई तब उनके दाहिना हाथ रहे विमल गुरुंग ने वर्ष 2007 में उनसे बगावत कर ली। अपना गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) गठित कर लिया। नए सिरे से फिर गोरखालैंड आंदोलन शुरू हुआ। कई जानें गईं। तब, जुलाई 2011 में राज्य की ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार व केंद्र की कांग्रेस सरकार ने पहाड़ को और अधिक स्वायत्ता की व्यवस्था दी। गोरखालैंड टेरिटोरिअल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) बना। विमल गुरुंग उसके प्रशासक हुए। मगर, राज्य सरकार से हमेशा उनकी अनबन रही। सो, उन्हें राज्य सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा। वर्ष 2017 में बात बहुत बिगड़ गई। जगह-जगह हिंसक प्रदर्शन हुए। उसके लिए विमल गुरुंग को जिम्मेदार करार देते हुए राज्य की ममता सरकार ने उन पर कानूनी शिंकजा कस दिया। विमल गुरुंग अपने दाहिना हाथ रौशन गिरि संग भूमिगत होने को बाध्य हुए। अक्टूबर 2017 से अब तक वह भूमिगत ही हैं।

इधर, विमल गुरुंग के बांया हाथ रहे विनय तामांग राज्य की ममता सरकार की ‘कृपा’ से जीटीए का शासन संभाल रहे हैं। अब फिर आम चुनाव का बिगुल बज गया है। हर दल फिर मैदान में है। मगर, इक्का-दुक्का स्थानीय दल व उसके उम्मीदवार के अलावा कोई भी गोरखालैंड पर खुल कर कुछ नहीं कह रहा है। इसे लेकर पहाड़ के लोग भी असमंजस में हैं।

गोरखालैंड की मांग पर क्या कह रहे हैं प्रत्याशीः दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र से तृणमूल कांग्रेस के अपने स्थानीय उम्मीदवार अमर सिंह राई को समर्थन दे रहे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के एक धड़े के नेता विनय तामांग कहते हैं कि ‘कुछ क्षेत्रीय दल अब भी गोरखालैंड का मुद्दा उठा रहे हैं। मगर, उन्हें व आम जनता को इसके तकनीकी अवरोध को भी समझना होगा। गोरखाओं के पहचान संकट को दूर करने को तृणमूल कांग्रेस व पश्चिम बंगाल राज्य की मुखिया ममता बनर्जी तत्पर हैं। दार्जीलिंग जिला तृणमूल कांग्रेस के अध्यक्ष गौतम देव कहते हैं कि दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र की जनता ने लगातार 10 साल तक भाजपा को मौका दिया। मगर, उन्हें कुछ नहीं मिला। हमारी नेत्री ममता बनर्जी ने पहाड़ पर शांति बहाली की है। विकास किया है। उस विकास को और बेहतर किया जाएगा। पहाड़ के लोगों की अत्यधिक स्वायत्ता की तृणमूल कांग्रेस सदा ही पक्षधर रही है।

कांग्रेस के दार्जिलिंग जिला अध्यक्ष व इसी सीट से उम्मीदवार शंकर मालाकार का कहना है कि कांग्रेस की पूर्व सरकारों ने ही गोरखाओं को स्वायत्त शासन हेतु पहले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल व बाद में गोरखलैंड टोरिटोरिअल एडमिनिस्ट्रेशन दिया। हम पहाड़ के लोगों को भावनात्मक रूप से गुमराह करते रहने के विश्वासी नहीं हैं। यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो दार्जिलिंग की समस्या के स्थायी समाधान का हरसंभ प्रयास करेगी। माकपा के दार्जिलिंग जिला सचिव जीवेश सरकार कहते हैं कि पहाड़ के गोरखाओं को उच्च स्वायत्ता दिए जाने की माकपा हमेशा से ही पक्षधर रही है। माकपा सरकार ने इस दिशा में दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल का गठन कर पहाड़ को स्वायत्ता दी भी। अब और अधिक स्वायत्ता दी जानी चाहिए। पहाड़ पर शांति, विकास एवं उच्च स्वायत्ता सर्वोपरि है।

भाजपा उम्मीदवार राजू सिंह बिष्ट कहते हैं कि गोरखालैंड की मांग बहुत पुरानी है। भाजपा विकास के दृष्टिकोण से कभी भी छोटे राज्यों की विरोधी नहीं रही है। वैसे, इस मुद्दे पर जवाब देने का अभी सही समय नहीं है। पहाड़ की समस्या के स्थायी समाधान के प्रति भाजपा पूरी सहानुभूति के साथ विचार करने को सदैव तत्पर है।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से अलग हो कर अपनी जन आंदोलन पार्टी गठित करने वाले डॉ. हर्क बहादुर छेत्री कहते हैं कि पहाड़ के वर्तमान हालात सही नहीं हैं। अलग राज्य गोरखालैंड का मुद्दा खोता जा रहा है। भाजपा को पहाड़ की जनता ने लगातार 10 साल दिया। जसवंत सिंह व एस.एस. अहलूवालिया जैसे कद्दावर नेताओं को अपना सांसद चुना। मगर, कुछ भी नहीं मिला। तृणमूल कांग्रेस को गोरखालैंड के मुद्दे से कुछ लेना-देना ही नहीं है। इसीलिए हमारी जन आंदोलन पार्टी (जाप) की ओर से हम गोरखालैंड मुद्दे की रक्षा के लिए ही चुनावी मैदान में कूदे हैं।

(दार्जिलिंग से अफरोजा खातून की रिपोर्ट)

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