लोकसभा चुनाव 2019 (Lok Sabha Election 2019) के लिए सभी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। स्टार-प्रचारकों की ताबड़तोड़ रैलियां और उनके वार-पलटवार मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं। मगर, इस बीच पूरे देश की नज़रें गुजरात की 26 लोकसभा सीटों पर टिकी हुई हैं। दरअसल, बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व (नरेंद्र मोदी और अमित शाह) का आधार ही गुजरात है। ऐसे में बीजेपी की गुजरात में स्थिति कैसी बन रही है, इसको लेकर राजनेता से लेकर जनता की दिलचस्पी खास तौर पर बनी हुई है। फिलहाल, गुजरात के मौजूदा हालात के विश्लषण से पता चलता है कि वहां स्थिति 2014 वाली तो कम से कम नहीं है। 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी लहर पर सवार बीजेपी ने यहां की सभी 26 सीटों पर अपना झंडा गाड़ दिया था। लेकिन, 2017 विधानसभा चुनाव के नतीजों ने वर्तमान लोकसभा चुनाव की स्थिति काफी हद तक स्पष्ट कर दी है।

तमाम मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस बार गुजरात में बीजेपी के लिए 2014 का इतिहास दोहराना बेहद ही मुश्किल है। पार्टी को अपनी हैसियत कायम रखने के लिए बाकी राज्यों के मुकाबले यहां पर ज्यादा होमवर्क करना होगा और जनता के बीच ज्यादा पसीना बहाना होगा। 2019 के चुनावी समर में बीजेपी के सामने पांच ऐसी चुनौतियां हैं, जिनसे निपटना बीजेपी के लिए आसान नहीं रहने वाला—

सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात में सत्ता-विरोधी लहर: 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पिछले 3 दशकों में बेहतर प्रर्शन करते हुए प्रदेश की 182 सीटों में से 77 पर कब्जा जमा लिया। खास बात कि इस दौरान कांग्रेस ने 8 लोकसभा क्षेत्रों विधानसभा सीटों पर बीजेपी के मुकाबले काफी ज्यादा बढ़त के साथ वोट हासिल कर लिए। इनमें बनासकांठा, पाटन, मेहसाणा, साबरकांठा, सुरेंद्रनगर, जूनागढ़, अमरेली और आणंद लोकसभा क्षेत्र शामिल हैं। इस कड़ी में पोरबंदर की सीट को भी शामिल किया जा सकता है। 2017 विधानसभा चुनाव में एनसीपी के नेता कंधल जडेजा ने यहां की कुटियाना सीट पर बाजी मारी थी। लेकिन, उनके खिलाफ मैदान मे उतरे कांग्रेस उम्मीदवार ने भी 11,000 वोट हासिल किए थे। इस हिसाब से अगर कांग्रेस और एनसीपी के गठजोड़ को शामिल कर लिया जाए तो यह समीकरण पोरबंदर पर काफी भारी पड़ जाएगा।

कुल मिलाकर बीजेपी को सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात में सबसे ज्यादा चुनौती मिलने वाली है। इन क्षेत्रों की 7 लोकसभा सीटों पर उसे तगड़ी फाइट मिलने जा रही है। इन इलाकों की 8 लोकसभा सीटों पर बीजेपी ने सिर्फ अमरेली और साबरकांठा से ही सीटिंग सांसदों को टिकट दिया है। जबकि, 5 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम का ऐलान नहीं हो पाया है।

गुजरात से मोदी-शाह की जोड़ी का बाहर रहना: गुजरात को बीजेपी की सबसे बड़ी प्रयोगशाला कहा जाता है। पिछले 15 सालों में बीजेपी की ताकत में यहां काफी इजाफा देखने को मिला। इसकी बड़ी वजह प्रदेश में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मौजूदगी मानती जाती है। दिल्ली आने के बाद इस जोड़ा का गुजरात की सियासत दूसरे हाथों में हैंडओवर करनी पड़ी। गुजराती अस्मिता की बात करने वाले मोदी का अंदाज अब यहां नहीं है। वहीं, नेता और कैडर को सही रणनीति के साथ साधने वाले शाह भी ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं।

दलितों के खिलाफ हिंसक घटनाएं: गुजरात में दलितों के साथ हुईं हिंसक घटनाओं ने भी प्रदेश में इस समुदाय के भीतर सरकार से मोह-भंग किया है। दलित समुदाय के गुस्से का चुनावी लाभ ज्यादातर कांग्रेस को ही मिला है। गाय को लेकर ऊना में दलितों के साथ मारपीट का मसला विधानसभा चुनाव में भी खूब हावी रहा। वहीं, हाल ही में एक छात्र को परीक्षा देने से इस लिए दबंगों ने रोक लिया, क्योंकि वह दलित समुदाय से था। ऐसी घटनाओं ने बीजेपी को बैकफुट पर खड़ा किया है।

क्षेत्रीय संगठन और क्षेत्रीय मुद्दों से दूरी: बीते कुछ सालों में कांग्रेस ने इन्हीं बिंदुओं पर काफी काम किया है। वैसे तो गुजरात में क्षेत्रीय दलों का आधार नहीं है, लेकिन क्षेत्रीय मुद्दों पर लड़ने वाले राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठनों से कांग्रेस ने हाथ मिलाया है। क्षेत्रीय मुद्दों पर कांग्रेस ने लगातार बहस जारी रखी है। वहीं, बीजेपी इस पिच पर हमेशा बैटिंग करने से परहेज करती रही है। स्थानीय मुद्दों के आधार पर जो छोटे-छोटे कुनबे कांग्रेस ने तैयार किए हैं वो भी बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती बन चुके हैं।

बेरोजगारों की बढ़ती तादाद: गुजरात में करीब दो दशकों बीजेपी की सरकार है। साथ ही पिछले पांच सालों से मोदी के नेतृत्व में एनडीए सत्ता पर काबिज है। बावजूद इसके गुजरात में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है। प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में खेती से लेकर रोजगार सृजन में चुनौतियां काफी बढ़ी हैं। प्रदेश में एक तरफ वाइब्रेंट गुजरात ग्लोबल समिट की चकाचौंध रहती है, तो दूसरी तरफ प्रदेश के कुल 6,17,461 बेरोजगार नौकरियों पाने के लिए भटक रहे हैं। बेरोजागरों की संख्या रोजगार कार्यालय में पंजीकृत आंकड़ों के हैं। बेरोजगारी का ही आलम है कि पटेल आंदोलन की आंधी देखने को मिली। हालांकि, सामान्य श्रेणी के लोगों को 10 फीसदी आरक्षण देकर केंद्र सरकार ने इस आंधी की प्रचंडता को कम जरूर किया है।

चुनौतियों से निपटने की बीजेपी की तात्कालिक रणनीति

कांग्रेस की ताकत को कमजोर करने के लिए बीजेपी ने उनकी ही पार्टी के नेताओं को अपने पाले में लाने की कवायद शुरू की है। इसी रणनीति के तहत हाल ही में कांग्रेस के तीन विधायकों ने बीजेपी का दामन थाम लिया और बताया जा रहा है कि कांग्रेस के करीब आधा दर्जन नेता ऐन मौके पर पाला बदलने के लिए तैयार हैं। ऐसे में कांग्रेस के पास इस सेंधमारी को रोकने की सबसे बड़ी चुनौती है। मीडिया रिपोट्स के मुताबिक बीजेपी की रणनीति स्पष्ट है, जिन क्षेत्रों में बीजेपी के नेताओं की स्थिति मजबूत नहीं है, वहां कांग्रेस के नेता को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया जाए। मार्च के शुरुआत में ही कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक और प्रभावी अहीर नेता जवाहर चंद विधानसभा से इस्तीफा देकर बीजेपी में शामिल हो गए। गौरतलब है कि सौराष्ट्र की चार लोकसभा सीटों पर ‘अहीर’ समाज की अच्छी-खासी संख्या है।

इसी कड़ी में बीजेपी कांग्रेस से नाराज बताए जा रहे ओबीसी युवा नेता अल्पेश ठाकोर पर भी डोरे डाल रही है। माना जा रहा है कि अल्पेश का ठाकोर समाज पर कापी अच्छा प्रभाव जम चुका है और उनके समाज की संख्या उत्तरी गुजरात की 4 लोकसभा सीटों को प्रभावित करने का माद्दा रखती है। दूसरी तरफ गुजरात में पाटिदार समुदाय को भी पार्टी ने मनाने की भरसक पूरी कोशिश की है और इसमें काफी हद तक कामयाब भी रही है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4 और 5 मार्च को पाटिदार समुदाय के साथ संपर्क स्थापित किया। माना जा रहा है कि केंद्र सरकार द्वारा सामान्य श्रेणी के गरीब लोगों को 10 फीसदी का आरक्षण भी पाटिदार आंदोलन की धार को कमजोर कर दिया है।