आप जानते हैं कि किसी भी राजनीतिक दल को चुनाव लड़ने के लिए ‘चुनाव चिन्ह’ कैसे दिया जाता है। यानी कांग्रेस को पंजा और बीजेपी को कमल या बसपा को हाथी का सिंबल कैसे मिला?  ‘चुनाव चिन्ह’ किसी भी दल के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों होता है और क्यों इसके लिए लड़ाई तक लड़ी जाती है? हम इस आर्टिकल में जानेंगे कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टियों (कांग्रेस-बीजेपी) को चुनाव चिन्ह मिलने का इतिहास क्या है?

क्यों पड़ी चुनाव चिन्ह की जरूरत? 

राजनीतिक दलों को चुनाव चिन्ह दिए जाने की जरूरत शिक्षा की कमी से जुड़ी थी।  साल 1951-52 के पहले लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग ने महसूस किया कि ऐसे देश में चुनाव चिन्ह बहुत महत्वपूर्ण है जहां लोग कम-पढ़े लिखे हैं और साक्षरता दर 20% से कम है। ऐसे में लोगों को एक दो दलों के बीच फर्क कराने के लिए या ये कहें कि पहचान कराने के लिए चुनाव चिन्ह दिए गए। ऐसे चुनाव चिन्ह जिन्हें आसानी से पहचाना जा सके और जिनमें धार्मिक एंगल ना हो–जैसे गाय, मंदिर, राष्ट्रीय ध्वज आदि। 

जब पहली बार चुनाव चिन्ह बांटे गए तो  जिन पार्टियों को राष्ट्रीय और राज्य पार्टियों के रूप में मान्यता दी गई थी उन्हें चुनाव आयोग ने 26 चुनाव चिन्हों की एक लिस्ट सौंपी थी। 

कैसे बांटे गए चुनाव चिन्ह? 

चुनाव आयोग के Conduct of Elections Rules, 1961 के नियम नंबर 5 और 6 चुनाव चिन्ह अलोटमेंट से जुड़े हैं। अगर यहां बात करें कांग्रेस को मिले चुनाव चिन्ह की तो पहले चुनाव में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ‘दो बैलों की जोड़ी’ था। लेकिन जब पार्टी का दो गुटों में विभाजन हुआ तो चुनाव चिन्ह पर संकट आ गया। 

कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) में पार्टी दो ग्रुप्स में बंट गई। जहां एस निजलिंगप्पा की अध्यक्षता वाली कांग्रेस (ओ) और जगजीवन राम की अध्यक्षता वाला कांग्रेस (‘आर’) आमने सामने थीं। 11 जनवरी, 1971 को चुनाव आयोग ने फैसला किया कि जगजीवन राम की कांग्रेस, जिसे इंदिरा गांधी का समर्थन प्राप्त था, असली कांग्रेस मानी जाएगी। 

लेकिन लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के आदेश पर रोक लगा दी और फैसला सुनाया कि कोई भी समूह दो बैलों की जोड़ी के चुनाव चिन्ह का उपयोग करने का हकदार नहीं होगा। 25 जनवरी, 1971 को चुनाव आयोग ने कांग्रेस (ओ)  को ‘महिला द्वारा चलाया जाने वाला चरखा’ और कांग्रेस (आर) को  ‘बछड़ा और गाय’ चुनाव चिन्ह दे दिया। कई नेताओं ने यह कहते हुए आपत्ति जताई कि ‘बछड़ा और गाय’ या ‘गोमाता’ धार्मिक भावनाओं से संबंधित है, लेकिन चुनाव आयोग ने इन आपत्तियों को खारिज कर दिया।

सत्तर के दशक के आखिर में इंदिरा-जगजीवन राम यानी कांग्रेस (आर) फिर से विभाजित हो गई और इंदिरा विरोधी समूह का नेतृत्व देवराज उर्स और के ब्रह्मानंद रेड्डी ने किया। 

2 जनवरी 1978 को इंदिरा गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और उन्होंने ‘बछड़ा और गाय’ चुनाव चिन्ह रखना चाहा। मामला चुनाव आयोग के पास पहुंचा और चुनाव आयोग ने उनकी मांग को खारिज कर दिया। जिसके बाद इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का भी रुख किया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी उनकी अपील को खारिज कर दिया। 

2 फरवरी, 1978 को चुनाव आयोग ने इंदिरा समूह को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई) के तौर पर एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता दी और चुनाव चिन्ह ‘हाथ’ दिया गया। तबसे यही कांग्रेस का सिंबल है। 

बीजेपी को कैसे मिला ‘कमल’ चुनाव चिन्ह?

भारतीय जनसंघ (बीजेएस) को 7 सितंबर, 1951 को चुनाव चिन्ह के रूप में ‘दीपक’ (‘लैंप’) आवंटित किया गया था। बीजेएस ने ‘लैंप’ का उपयोग तब तक जारी रखा जब तक कि 1977 के चुनाव से पहले इसका अनौपचारिक रूप से जनता पार्टी में विलय नहीं हो गया। लेकिन जनता पार्टी को जल्द ही कई विभाजनों का सामना करना पड़ा। 6 अप्रैल, 1980 को कुछ नेताओं के एक ग्रुप ने (जो पहले बीजेएस के साथ थे) दिल्ली में मुलाकात की और अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता घोषित किया। दोनों ग्रुप असली जनता दल होने की बात कर रहे थे लेकिन चुनाव आयोग ने हस्तक्षेप करते हुए तब तक नाम को उपयोग नहीं करने पर रोक लगा दी जब की आखिरी फैसला ना हो जाए।

1980 में चुनाव आयोग ने अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी को मान्यता दी और ‘कमल के फूल’ को चुनाव चिन्ह के तौर पर दिया गया।