कांग्रेस की विधानसभा चुनावों में करारी हार हुई है, तेलंगाना को छोड़ दिया जाए तो बाकी बचे चार राज्यों में उम्मीद से भी ज्याद लचर प्रदर्शन देश की सबसे पुरानी पार्टी ने किया है। कांग्रेस सपने देख रही थी कि चुनावी जीत के बाद इंडिया गठबंधन के सामने अपनी धमक दिखाएगी, सीट बंटवारे को लेकर चर्चा होगी और बारगेनिंग पावर सारी उसी के हाथ में रहेगी। लेकिन अब नतीजों के बाद वही हाथ कमजोर हो गया है, वो इस स्थिति में ही नहीं है कि ज्यादा डिमांड कर सके।

बीजेपी बोले झटका, इंडिया गठबंधन कहे मौका!

जिस तरह से इस समय इंडिया गठबंधन के तमाम नेताओं के बयान आ रहे हैं, साफ पता चलता कि कांग्रेस की असल चुनौती अब शुरू होती है। जो कांग्रेस सोचकर बैठी कि इंडिया गठबंधन की मीटिंग ज्यादा से ज्यादा सीटें लेने की कोशिश करेगी, उसे अब अपनी रणनीति पर फिर काम करना पड़ेगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या कांग्रेस की ये चुनावी हार इंडिया गठबंधन को झटका दे रही है या एक खुशी? बीजेपी की नजरिए से तो ये झटका ही है क्योंकि नेरेटिव सेट किया जा रहा है कि 2024 के सेमीफाइनल में इंडिया की हार हो गई है। लेकिन अगर इंडिया गठबंधन के नेताओं के नजरिए से समझा जाए, तो बात कुछ अलग भी दिखाई देती है।

इंडिया गठबंधन में इस समय राहुल गांधी की पीएम दावेदारी सिर्फ लालू प्रसाद यादव ने ही खुलकर की है। एक वो अकेले नेता रहे हैं जिन्होंने उन्हें कई महीने पहले ही दूल्हा बनाने का काम कर दिया था। लेकिन इस मामले में ना बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने पत्ते खोले, ना पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कुछ बोला और सपा प्रमुख अखिलेश यादव तो अपनी महत्वकांक्षओं के बीच घिरे रहे।

कांग्रेस नहीं रहेगी ‘बड़ा भाई’

ये बात किसी से नहीं छिपी है कि इंडिया गठबंधन में कांग्रेस खुद को एक ‘बड़े भाई’ की भूमिका में देखती है। वो चाहती है कि उसी के दिशा-निर्देश में ये गठबंधन आगे बढ़े और उसी के नेतृत्व में 2024 के रण में पीएम मोदी को चुनौती दी जाए। लेकिन कांग्रेस की इस चाहत को चुनावी जीत की दरकार थी क्योंकि तभी वो अपनी उस जिद को जस्टिफाई कर सकती थी। अब ऐसा नहीं हुआ है, ऐसे में विपक्ष के दूसरे नेता अब हावी हो सकते हैं।

यहां भी अखिलेश यादव और नीतीश कुमार का ज्यादा आक्रमक होना लाजिमी है। असल में ये दोनों वो नेता हैं जो अभी कांग्रेस से सबसे ज्यादा खफा चल रहे हैं। दोनों चाहते थे कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस कुछ सीटें उनकी पार्टी के लिए छोड़ दे, लेकिन क्योंकि ऐसा नहीं हुआ और अब कांग्रेस ही यहां पर हा चुकी है, ऐसे में हमला करने का बड़ा मौका मिल गया है। कांग्रेस को अब ये भी समझना पड़ेगा कि उसकी इस एक चुनावी हार ने उसे हिंदी पट्टी राज्यों में बैकफुट पर लाकर खड़ा कर दिया है।

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बढ़ेगी मुश्किल

आगामी लोकसभा चुनाव में उसे अब राजस्थान से लेकर एमपी-छत्तीसगढ़ तक में कुछ सीटें विपक्षी साथियों के लिए कुर्बान करनी पड़ सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि इंडिया गठबंधन में मैसेज ये गया है कि कांग्रेस अकेले अपने दम पर बीजेपी को नहीं हरा सकती है। इसके ऊपर बिहार और यूपी जहां पर सपा और जेडीयू ज्यादा ताकतवर हैं, वहां भी अब कांग्रेस के लिए ज्यादा सीटें निकलना मुश्किल हो जाएगा।

असल में बिहार और यूपी में कांग्रेस इस समय एक जूनियर पार्टी की भूमिका में चल रही है। एक बार के लिए गुजरात-एमपी जैसे राज्यों में खुद को बड़ा भाई बता भी ले, लेकिन बिहार में उसे नीतीश-लालू के सामने झुकना पड़ेगा तो वहीं यूपी में अखिलेश यादव के सामने नरम पड़ना पड़ेगा। वैसे भी इस समय ना यूपी में कांग्रेस जनाधार ज्यादा मजबूत चल रहा है और ना ही बिहार में उसने कोई बहुत बड़ा कमाल कर रखा है। ऐसे में चुनौती कांग्रेस की रहने वाली है और उसे ही कुर्बानी भी देनी पड़ सकती है।

इसके ऊपर ये भी नहीं भूलना चाहिए कि इंडिया गठबंधन में एक नहीं कई पीएम के दावेदार चल रहे हैं। जिस समय कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता चली गई थी, कई ऐसे नेता थे जो खुद को पीएम रेस में समझने लगे थे। उनकी तरफ से खुद कोई बयान नहीं दिया गया, लेकिन पार्टी कार्यकर्ता ही मैसेंजर बनकर माहौल तैयार करने का काम कर रहे थे। ये वो समय था जब कांग्रेस खुद भी बैकफुट पर थी क्योंकि तब तक राहुल के चुनाव लड़ने पर ही ब्रेक लगा हुआ था।

नीतीश की दावेदारी फिर होगी मजबूत?

अब उस बाधा को दूर कर कांग्रेस ने फिर इंडिया गठबंधन में आक्रमक बैटिंग तो की, लेकिन तीन राज्यों की चुनावी हार ने उसे फिर वहीं धकेल दिया, जहां वो पहले खड़ी थी। उसकी इस हार की वजह से एक बार फिर कई दूसरे पीएम उम्मीदवार खड़े हो जाएंगे। वैसे इसकी तैयारी शुरू भी कर दी गई है, जेडीयू के नेताओं ने तो कह दिया है कि नीतीश कुमार ही सबसे भरोसेमंद चेहरा हैं, उन्हें ही इंडिया गठबंधन की अगुवाई करनी चाहिए।

अब नीतीश कुमार का सियासी दर्द समझना मुश्किल नहीं है। उन्हीं की तरफ से सबसे पहले विपक्षी दलों को साथ लाने का काम किया गया था, उन्हीं की तरफ से दिल्ली के लगातार चक्कर लगाए गए थे। पूरा माहौल बन गया था कि नीतीश कुमार इस इंडिया गठबंधन को नेतृत्व दे रहे हैं। लेकिन पहले लालू प्रसाद यादव की लोकप्रियता ने उनकी मुहिम को हाईजैक किया है और उसके बाद कांग्रेस की सक्रियता ने उन्हें पीछे धकेल दिया।

टीएमसी देती बीजेपी को चुनौती, ममता करेंगी अगुवाई?

वैसे पीएम बनने की रेस में तो ममता बनर्जी भी लंबे समय से रही हैं। टीएमसी का शायद ही कोई कार्यकर्ता या बड़ा नेता होगा, जिसने इस बात पर जोर ना दिया हो कि बीजेपी को अगर कोई हरा सकता है तो वे सिर्फ ममता बनर्जी हैं। इस बात में तो कोई दोहराय नहीं कि बंगाल में अगर बीजेपी को किसी ने रोकने का काम किया है तो वे ममता ही हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्वीकार्यता को लेकर लगातार बहस रहती है। इसी तरह अखिलेश यादव को लेकर सपा भी काफी उत्साहित रहती है। अगर राहुल की दावेदारी कुछ कमजोर पड़ती है तो सप प्रमुख भी मौके पर छक्का लगाने में देरी नहीं करेंगे।

अखिलेश के पास भी निखरने का बड़ा मौका

बड़ी बात ये भी है कि अखिलेश हिंदी पट्टी राज्य के एक लोकप्रिय नेता हैं, उनका जनाधार भी उस राज्य के साथ जुड़ा है जहां से सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें निकलती हैं। ऐसे में कांग्रेस के लचर प्रदर्शन के बाद उन पर भी विपक्षी कुनबे की नजरें जा सकती हैं। वैसे अखिलेश यादव के लिए स्थिति इस वजह से भी आसान बन जाती है कि अब इन चुनावी हारों का हवाला देकर वे कांग्रेस को यूपी में काफी कम सीटों पर रोक सकते हैं। सीट शेयरिंग के वक्त कांग्रेस को उम्मीद के मुताबिक सीटें मिलना अब काफी मुश्किल हो जाएगा।

सपा नेता वैसे भी जिस तरह से कांग्रेस को अहंकारी बता रहे हैं, ये साफ है कि सीट शेयरिंग में इसका असर दिख सकता है। कांग्रेस की सबसे बड़ी दुविधा भी ये रहेगी कि वो उस असर को चाहकर भी कम नहीं कर पाएगी क्योंकि प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती। कांग्रेस हारी है, ऐसे में उसे ही कुर्बानी देनी पड़ेगी। यानी कि कांग्रेस को जो ये हार मिली है, इसे सिर्फ तीन राज्यों तक सीमित कर नहीं देखा जा सकता। बल्कि इस एक झटके ने राहुल गांधी की पीएम दावेदारी को कुछ कमजोर किया है, सीट शेयरिंग में कांग्रेस की परेशानियां बढ़ाई हैं और इंडिया गठबंधन के दूसरे नेताओं को आगे बढ़ने का रास्ता दिखा दिया है।