देश में जब भी बड़े और ताकतवर नेताओं का जिक्र किया जाता है, उसमें दिग्विजय सिंह का नाम होना लाजिमी है। कोई उन्हें बतौर एमपी का ताकतवर सीएम याद रखता है, कोई उन्हें दिग्गी राजा कहकर संबोधित करता है तो कोई आज भी उन्हें राहुल गांधी का राजनीतिक गुरू तक मानता है। दिग्विजय सिंह एक बार फिर चुनावी मैदान में उतरने को पूरी तरह तैयार दिख रहे हैं। कांग्रेस ने उन्हें राजगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़वाने का फैसला किया है।
अब 77 साल की उम्र में एक बार फिर दिग्विजय सिंह अपनी सियासी किस्मत आजमाने जा रहे हैं। उनकी तरफ से एमपी की ही राजगढ़ से चुनाव लड़ा जा रहा है। उनका सियासी सफर कई दशक पुराना हो चुका है, कांग्रेस पार्टी के अंदर ही हर बड़े पद का सुख भी उन्होंने भोग रखा है। सीएम पद पर भी 10 साल तक विराजमान रहे हैं और अब वर्तमान में खुद के लिए एक जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
दिग्विजय सिंह का जन्म एक बड़े राजघराने में हुआ था। 28 फरवरी 1947 को राघौगढ़ में राजा बलभद्र सिंह के घर पर दिग्विजय सिंह का जन्म हुआ था। उनके पिता हिंदू महासभा के काफी करीब थे, एक निर्दलीय के रूप में विधायक भी बने। उसी वजह से माना जाता था कि दिग्विजय सिंह भी जनसंघ से ही अपने सियासी सफर की शुरुआत करेंगे। लेकिन दिग्विजय सिंह को अपने लिए कुछ और मंजूर था, वे एक पहचान बनाने की होड़ में थे।
उसी होड़ में मात्र 22 साल की उम्र में दिग्विजय सिंह का सियासी सफर शुरू हो गया जब वे पहली बार राघौगढ़ नगर परिषद के अध्यक्ष बनाए गए। उस समय कांग्रेस की तरफ दिग्विजय सिंह का रुझान नहीं हुआ था, लेकिन सभी मानकर चल रहे थे कि ये लड़का कुछ बड़ा जरूर करेगा। इसी वजह से एक बार नहीं कई बार दिग्विजय सिंह को जनसंघ में जाने का ऑफर मिला, लेकिन वे हर बार उसे ठुकरा देते।
समझने वाली बात ये है कि दिग्विजय सिंह के पिता की अच्छी दोस्ती कांग्रेस के एक बड़े नेता गोविंद नारायण से थी, उस वजह से कांग्रेस की विचारधारा की तरफ उनका झुकाव होना शुरू हो चुका था। इसके ऊपर उन्हें जनसंघ में जाने का ऑफर क्योंकि राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने दिया, वे किसी भी कीमत पर उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। असल में इतिहास के पन्नों पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि राघौगढ़ रियासत ग्वालियर के अधीन थी। दूसरे शब्दों में बोलें तो एक जमाना ऐसा भी था जब राघौगढ़, ग्वालियर के लिए टैक्स इकट्ठा करने का काम करता था। अब उसी सत्य से खुद को दूर करने के लिए दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस में जाने का फैसला किया और एक नई विचारधारा के साथ वे आगे बढ़ गए।
1977 में सबसे पहले राघौगढ़ से दिग्विजय सिंह विधायक बने थे। वे चार बार यहां से जीतते रहे, उनके भाई लक्ष्मण सिंह और चचरे भाई मूल सिंह ने भी यहां से चुनाव जीता है। 2013 में तो दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह ने इस सीट से पिता की सियासत को आगे बढ़ाया और वे अभी भी सक्रिय हैं।
दिग्विजय सिंह की बात करें तो वे 1993 सो 2003 तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे। उनका मुख्यमंत्री बनना भी एक्सिडेंटल साबित हुआ। असल में 1993 की एमपी कांग्रेस दिग्गज और बड़े कद्दावर नेताओं की धनी थी। माधवराव सिंधिया से लेकर सुभाष यादव तक सीएम रेस में आगे चल रहे थे। माधवराव ने तो दिल्ली से एक विमान भी बुक कर लिया था। वे मानकर चल रहे थे कि सीएम बनने जा रहे हैं। लेकिन माधवराव सिंधिया का खेल अर्जुन सिंह ने बिगाड़ा और ‘अपने आदमी’ दिग्विजय सिंह को सीएम कुर्सी तक पहुंचा दिया।
अब कहने को दिग्विजय सिंह 10 साल तक सीएम बने रहे, लेकिन उनके एक सियासी करियर पर लगे एक कलंक ने कांग्रेस को भी मध्य प्रदेश की सत्ता से बाहर रखने का काम किया। असल में 2 जनवरी 1998 को मुलताई में एक तहसील कार्यालय के बाहर कई किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। उस भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस ने गोली चला दी और 20 लोगों की मौत हुई। उस घटना का जिक्र जब भी होता है, निशाना दिग्विजय सिंह और उनके फैसलों को बनाया जाता है।
अब दिग्विजय सिंह की जुबान भी ऐसी रही है कि उसने कांग्रेस को काफी चोट पहुंचाई। कई साल पहले अपनी ही पार्टी की एक बड़ी महिला नेता को उन्होंने 100% टंच माल कहकर संबोधित कर दिया था। इसी तरह उन्होंने भगवा आतंकवाद जैसे शब्द का प्रयोग भी किया था। इन बयानों की वजह से एक तरफ कांग्रेस को सियासी नुकसान हुआ तो बीजेपी को उससे काफी फायदा भी पहुंचा।