उत्तर प्रदेश में सपा, उत्तराखंड में कांग्रेस और पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन बेदखल। तीन जगह पूरी तरह तख्तापलट। तो, सबसे पहले और ऊपरी तौर पर दिख रहा नतीजा यह है कि जहां-जहां लोगों को जनता को अपने कामों का हिसाब देना था, जनता ने उन्हें बेदखल किया। तो, सामान्य लोकतांत्रिक समीकरण के साथ क्या इसे महज जनता के द्वारा जारी परीक्षा प्रमाणपत्र मान लें जिसने बस काम के आधार पर नेताओं को नंबर दिए हैं? क्या यह लोकतांत्रिक जनता का सामान्य रासायनिक विस्फोट है या मोदी का जादू! जनता की उत्तरपुस्तिका कहती है कि मोदी के जादू के साथ भाजपा अब भारतीय राजनीति की केंद्र बिंदु है। सबसे पहले बात करते हैं 2014 में भाजपा और संघ के लिए प्रयोगशाला बने उत्तर प्रदेश की। 2017 में 2014 के ही चुनावी नतीजों की निरंतरता भाजपा के पक्ष में ज्यादा मजबूत आंकड़ों के साथ है। अस्सी लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में 2014 वाली रणनीति ही भाजपा ने इस बार फिर ज्यादा पुख्ता तरीके से अपनाई। यादव के खिलाफ अन्य ओबीसी तबके की खेमेबंदी कर दी। दलित के अलावा जो अन्य थे उन्हें बसपा के खिलाफ खड़ा करने में कामयाब हुई। दूसरे अन्य राज्यों की तुलना में भाजपा ने अपनी पूरी शक्ति उत्तर प्रदेश में झोंक दी। प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों के बड़े अमले की तैनाती उत्तर प्रदेश के गली-चौराहों पर रही। राज्यसभा के लिए भाजपा को शक्ति का आंकड़ा यहीं से जुटाना था। लोकसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव मोदी-शाह जोड़ी का नया शाहकार है। केंद्र की सत्ता की इस जोड़ी का आभामंडल पूरे उत्तर प्रदेश के वातावरण पर छा रहा था। खुद को फलां-फलां चीजों के ब्रांड अंबेसडर बता चुके नरेंद्र मोदी ने साबित कर दिया है कि प्रशांत किशोर जैसे दुकानदारों की शाहकार जोड़ी के सामने कोई हैसियत नहीं।

लोकतंत्र में एक पारंपरिक अवधारणा रही है कि शक्ति और सुरक्षा हासिल करने के लिए कमजोर और हाशिए पर खड़े लोग एकजुट होते हैं। लेकिन नवउदारवादी व्यवस्था के बीस सालों में सशक्तीकरण का एक मध्यममार्गी मार्ग अपनाया जा रहा है। और, वह यह है कि अपने हिस्से का हक मांगने और सुरक्षा लेने के लिए ताकतवर समूहों की छतरी के अंदर आना। उत्तर प्रदेश की एक भी सीट पर मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट नहीं दिया गया लेकिन पिछले कुछ समय में मुसलमानों के खिलाफ बने वातावरण के बावजूद मुसलिमों ने भगवा ‘रेनकोट’ पहनना ही मंजूर क्यों किया? करारी हार के बाद मायावती देवबंद का उदाहरण दे रही हैं कि जहां 70 फीसद से ज्यादा मुसलमान हैं वहां भाजपा कैसे जीत रही है? उन्होंने इसके लिए ईवीएम की गड़बड़ी पर सवाल उठा दिए हैं। फिलहाल तो यह तुष्टीकरण की राजनीति की गड़बड़ी, मुसलमानों को महज एक वोट बैंक मान लेने वाली मानसिकता की गड़बड़ी दिख रही है। कौम के अंदर पूरी मुसलिम कौम के हक, जरूरत और उम्मीदों को महज धर्म के नाम पर सिकोड़ देने की गड़बड़ी है। इस सिकुड़ी हुई कौम की फिलवक्त जरूरत है सुरक्षा। और, शायद इसलिए उसने भाजपा को ही सबसे महफूज ठिकाना चुना। यही मध्यमवर्गीय विकल्प अन्य तबकों ने भी चुना है।

भाजपा की जीत के साथ दो जगहों पर कांंग्रेस की ‘घर-वापसी’ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा नहीं तो कांग्रेस और कांग्रेस नहीं तो भाजपा। यानी जनता बड़ी पार्टियों की शरण में जाना पसंद कर रही है। इस बार के नतीजे फिलहाल तो यही कहते हैं कि भाजपा का ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा इस बार थोड़ा कमजोर हुआ है। जनता की प्रवृत्ति क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए एक बड़ी चुनौती बनी है क्योंकि ‘अखिल भारतीय’ तमगा हासिल दल ही आ और जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी का हस्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। आम आदमी पार्टी के सिकुड़े जनाधार ने उस समीकरण को भी खारिज कर दिया कि कांग्रेस के कमजोर हाथ पर ही ‘आप’ की जमीन पुख्ता होती है। अब वह कांग्रेस का विकल्प नहीं है। जिसे कांग्रेस की जमीन साबित कर दिया गया था, वह विकल्प और उम्मीदों की जमीन थी। लेकिन अरविंद केजरीवाल की अगुआई वाली ‘आप’ ने विकल्प के सपने को ही नाउम्मीद किया, आम जन के हित की राह छोड़ बस जुमलों, बयानबाजी और विज्ञापन की राह पकड़ उम्मीद की बाकी जमीन जनता के पैरों तले से खींच ली और जनता ने भी सपनों और जुमलों के दलदल में धंसने से इनकार कर दिया। कांग्रेस की जमीन पर ‘आप’ का अगला लक्ष्य गुजरात था। लेकिन अब जनता ने ‘आप’ के विकल्प में कांग्रेस को चुन कर घुमावदार फेरा लिया है।
महज तीन साल के अंदर उत्तर प्रदेश ने भारतीय राजनीति की सूरत बदल दी है।

कभी उत्तर भारत की ही पार्टी कही जाने वाली भाजपा पूर्वोत्तर में भी पांव जमा रही है। अति पर पहुंच गई पहचान की राजनीति को भी जनता ने नकारा है। इरोम शर्मिला को कहा जा रहा था, अनशन से कुछ नहीं होता, उठो और चुनाव लड़ो। मणिपुर ने भी यही संदेश दिया कि रोजी-रोटी और सड़क के आगे अफस्पा की गूंज मद्धम पड़ गई। आंदोलन और सियासत के मुद्दे अलग होते हैं। पंच परमेश्वर ने बहुत से भ्रम तोड़ दिए हैं और राजनीति की पाठशाला का पाठ्यक्रम पूरी तरह बदल चुका है। सितंबर 2014 में शिक्षक दिवस पर हुए कार्यक्रम में एक बच्चे ने प्रधानमंत्री से सवाल पूछा था कि मैं भारत का प्रधानमंत्री कैसे बन सकता हूं। मोदी ने हंसते हुए जवाब दिया था, ‘2024 का चुनाव लड़ने की तैयारी करो और इसका मतलब यह हुआ कि तब तक मुझे कोई खतरा नहीं है’। बच्चे से कही मोदी की ‘मन की बात’ आज कानों में गूंज रही है। शायद प्रधानमंत्री को पता है कि चुनावी मैदान में हिसाब मांगना आसान है और देना मुश्किल। और आज अनायास ही नहीं 2024 की चर्चा शुरू हो चुकी है, क्योंकि तब हिसाब देने वालों में पहला नंबर उनका होगा।