प्रचंड बहुमत से फरवरी 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव जीत कर दिल्ली की सत्ता में बैठी आम आदमी पार्टी (आप) का एक और विधायक आज भाजपा में शामिल हो गया। भाजपा सूत्रों के मुताबिक यह सिलसिला आगे भी जारी रहने वाला है। ‘आप’ के लिए सबसे बड़ा खतरा यह है कि अगर लोकसभा चुनाव में दिल्ली में उसके उम्मीदवार चुनाव नहीं जीते तो पार्टी में भारी भगदड़ मच जाएगी। पिछले हफ्ते पूर्वी दिल्ली के गांधी नगर के विधायक अनिल वाजपेयी के भाजपा में जाने के समय ही यह लगभग तय सा हो गया कि पार्टी से नाराज चल रहे विधायक भाजपा या कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। कभी पार्टी प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बेहद करीबी रहे करावल नगर के विधायक कपिल मिश्र काफी पहले से ही भाजपा के साथ मिलकर ‘आप’ के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। तिमारपुर के विधायक पंकज पुष्कर उस सीट के पूर्व विधायक सुरेंद्र पाल सिंह बिट्टू के ‘आप’ में शामिल होने से बागी हो गए थे। बिट्टू के वापस कांग्रेस में जाने के बाद पंकज पुष्कर फिर से ‘आप’ की राजनीति में सक्रिय हुए हैं। आज शामिल हुए विजवासन के विधायक और पिछले लोकसभा चुनाव में दक्षिणी दिल्ली सीट से ‘आप’ उम्मीदवार कर्नल (से) देवेंद्र सहरावत के अलावा करीब आधे दर्जन ‘आप’ के विधायक कभी भी किसी दूसरे दल में शामिल हो सकते हैं।
‘आप’ भावना के आधार पर भ्रष्टाचार के विरोध में और पारदर्शिता की आग्रही राजनीतिक दल है, जो समाजसेवी अण्णा हजारे के आंदोलन से निकली और पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल के लोगों से सीधा संवाद करने के बेहतरीन तरीके से आगे बढ़ी। उसमें एक तरीका बात-बात पर धरना-अनशन करना था। सस्ती बिजली और पानी के बूते ही वे 2013 के विधानसभा में 28 सीटें और 2015 के विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटें जीतीं। उनकी पहली सरकार 49 दिन चली। उसी सरकार के दौरान कुछ पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई के लिए उन्होंने जनवरी 2014 में रेल भवन पर धरना दिया। दोबारा सरकार आने पर भी उनका उपराज्यपाल और केंद्र सरकार से विवाद जारी ही रही और शहर में सीसीटीवी लगाने में उपराज्यपाल पर अवरोध डालने के नाम पर उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ 14 मई 2018 को उपराज्यपाल दफ्तर (राजनिवास) पर धरना दिया। 11 जून 2018 को उप राज्यपाल पर फाइलें रोकने का आरोप लगाकर केजरीवाल ने अपने सहयोगियों के साथ राजनिवास के वेंटिंग (प्रतीक्षा) हॉल में नौ दिन तक धरना दिया।
दोबारा सत्ता में आने पर उनके काम का तरीका बदल गया। इस बार वे लोगों से संवाद करने और उनके बीच जाने से बचने लगे और हर बात पर केंद्र सरकार, उपराज्यपाल से लड़ने लगे। इसी क्रम में स्थापना की मूल बातें बदल गई और अलग-अलग दलों से आए पार्टी विधायक और केजरीवाल के समेत उनके करीबी लोग दूसरे दलों के रंग में रंगने लगे। पंजाब विधानसभा और दिल्ली में राजौरी गार्डन विधानसभा चुनाव से उनका राजनीतिक ग्राफ गिरने लगा और 2017 के नगर निगमों के चुनाव में तो जिस कांग्रेस को ‘आप’ ने हाशिए पर ला दिया था, वह बराबरी पर आने लगी। एक मंत्री जाली प्रमाण पत्र के चक्कर में तो दूसरे रिश्वत लेने के आरोप में तो तीसरे सेक्स कांड में फंस चुके थे। इसके अलावा अनेक मामलों में उनके नेता फंसते ही जा रहे थे। अगर भाजपा के नेता धैय न खोते तो जो ‘आप’ में आज परिदृश्य दिख रहा है वह तभी दिख जाता। पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल के खिलाफ बोलने पर अनेक बड़े नेताओं को पार्टी से निकाल जाने के बाद तो पार्टी के छोटे नेताओं की कोई हैसियत ही नहीं रही। इसी से परेशान सुल्तानपुरी के विधायक और मंत्री रहे संदीप कुमार बसपा में शामिल हो गए। मटिया महल के विधायक और मंत्री रहे असीम अहमद खान और चांदनी चौक की विधायक अलका लांबा के किसी भी दिन कांग्रेस में जाने की खबर आ सकती है। इसके अलावा पार्टी में उपेक्षा से नाराज विधायकों की सूची काफी लंबी बताई जा रही है।
भाजपा के एक नेता का कहना था कि जो लोग अपने आप में आ रहे हैं, उसके अलावा ‘आप’ को तोड़ने या सरकार गिराने का कोई मतलब ही नहीं है। लोकसभा चुनाव में दिल्ली से बाहर ‘आप’ के लिए कहीं कोई उम्मीद दिख नहीं रही है और दिल्ली में भी ‘आप’ से बेहतर कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में सातों सीटें भाजपा ने भारी अंतर से जीती लेकिन सभी सीटों पर ‘आप’ के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे। इस बार वैसे हालात नहीं दिख रहे हैं। अगर ‘आप’ कुछ सीटों पर भी तीसरे नंबर पर चली जाती है तो चुनाव नतीजों के बाद भगदड़ मचना तय सा माना जा रहा है। ‘आप’ ने चुनाव प्रचार के बीच में दिल्ली को पूर्ण राज्य दिलाने का अपना मुख्य एजंडा बदल दिया। अब पूरी दिल्ली में रातों रात ‘आप’ अपना पुराना केंद्र काम न करने दे रही है फिर भी वे काम कर रहे हैं, को मुद्दा बनाने वाले होडिंग्स लगवाए हैं। यह संकेत ‘आप’ के समर्थकों को परेशान करने वाला दिख रहा है।

