आज के बच्चे सामाजिक परिवेश से दूर हो रहे हैं। परिवार और परिजनों से मेलजोल में भी रुचि नहीं रखते। स्कूली सत्र की व्यस्तता के दौरान सगे-संबंधियों से मिलने-जुलने का भी वक्त नहीं निकाल पाते। ऐसे में नई पीढ़ी को सामाजिकता का पाठ पढ़ाने के लिए फुर्सत के इन पलों को अपनों के साथ बिताना आवश्यक है। मेलजोल का यह समय बच्चों को मानसिक मोर्चे पर सहजता और सुकून की सौगात देता है।
हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत स्कूलों को चौदह साल से ज्यादा उम्र के बच्चों के लिए गर्मी की छुट्टियों में कक्षाएं लगाने की अनुमति देने वाले अंतरिम आदेश को बढ़ाने से इनकार कर दिया। न्यायालय का मानना है कि अवकाश के दौरान विद्यार्थियों को अपने परिवार और मित्रों के साथ खाली समय बिताना चाहिए।
व्यस्त शैक्षणिक वर्ष के बाद विद्यार्थियों को अवकाश की आवश्यकता होती है, इसीलिए विद्यार्थियों को गर्मी की छुट्टी दी जाती है। न्यायालय ने कहा है कि विद्यार्थियों को इन छुट्टियों का आनंद लेना चाहिए। साथ ही, स्वयं को अगले शैक्षणिक वर्ष के लिए भी तैयार करना चाहिए। छुट्टियां विद्यार्थियों को अपना ध्यान पारंपरिक अध्ययन से पाठ्येतर गतिविधियों पर केंद्रित करने और अपने परिजनों के साथ समय बिताने का मौका देती हैं। इन्हीं सब बातों को जरूरी मानते हुए केरल उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के उस आदेश को ‘समय की आवश्यकता’ बताया, जिसमें स्कूलों की छुट्टियों के दौरान कक्षाएं संचालित करने से रोक दिया गया था।
दरअसल, साल भर व्यस्त रहने वाले बच्चे अब ग्रीष्म अवकाश में भी व्यस्त ही रहते हैं। ऐसी अकादमिक कक्षाओं की रूपरेखा स्कूल का सत्र समाप्त होने से पहले ही बना ली जाती है। बच्चों की भागमभाग वाली दिनचर्या ज्यों की त्यों बनी रहती है, जिसके चलते अवकाश के दिनों में भी पढ़ाई का दबाव बच्चों को घेरे रहता है। मनोवैज्ञानिक रूप से भी बच्चे एक नियमित दिनचर्या के अभ्यस्त हो जाते हैं।
स्कूलों की ओर से अवकाश के दिनों में करने के लिए गृहकार्य दिया जाता है। ऐसे में गृहकार्य पूरा करने के दबाव के साथ कक्षाएं संचालित करना बच्चों के लिए मानसिक तनाव बढ़ाने वाला ही होता है। कुछ समय पहले राजस्थान के झुंझुनू से एक ऐसा मामला भी सामने आया था, जिसमें चौदह साल के एक लड़के ने गृहकार्य के खिलाफ जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठकर विरोध जताया। कक्षा नौ के इस विद्यार्थी का कहना था कि छुट्टियां खेलने-कूदने के लिए होती हैं। पढ़ाई से जुड़े काम से कोई छुट्टी नहीं दी जाती है, बच्चों को छुट्टी के दौरान भी गृहकार्य मिलता है। यह स्थिति सिर्फ एक छात्र की पीड़ा नहीं, बल्कि हमारे शैक्षणिक परिवेश का कटु सच है।
विचारणीय यह भी है कि आज के बच्चे सामाजिक परिवेश से दूर हो रहे हैं। परिवार और परिजनों से मेलजोल में भी रुचि नहीं रखते। स्कूली सत्र की व्यस्तता के दौरान सगे-संबंधियों से मिलने-जुलने का भी वक्त नहीं निकाल पाते। ऐसे में नई पीढ़ी को सामाजिकता का पाठ पढ़ाने के लिए फुर्सत के इन पलों को अपनों के साथ बिताना आवश्यक है। मेलजोल का यह समय बच्चों को मानसिक मोर्चे पर सहजता और सुकून की सौगात देता है।
किशोरवय बच्चे को समाज और परिवार को समझने की उम्र के पड़ाव में भी अपने परिवेश से वे पूरी तरह दूर हैं। जबकि यह आयुवर्ग उनकी शिक्षा ही नहीं, सामाजिक जुड़ाव, पारिवारिक सरोकार और सामुदायिक सामंजस्य की समझ की नींव डालने का भी होता है। इसके लिए अपनों या सगे-संबंधियों के साथ समय बिताना सबसे पहला कदम है। अपने परिवेश से जुड़ना आवश्यक है।
ज्ञात हो कि अपने आदेश में न्यायालय ने भी विशेष रूप से दसवीं और बारहवीं में प्रवेश करने वाले विद्यार्थियों के लिए अवकाश को जरूरी बताया है। न्यायालय ने कहा है कि केवल स्कूली किताबों पर ध्यान देना बच्चों के लिए पर्याप्त नहीं है। बच्चों को नाचने-गाने, खेलने, पसंदीदा टीवी कार्यक्रम देखने और अपनी पसंद का खाना खाने का भी अवसर दें और नई पीढ़ी को अपने रिश्तेदारों के साथ यात्राओं का आनंद लेने दें। ऐसी गतिविधियां विद्यार्थियों को बेहतर ढंग से पढ़ाई करने में मददगार बनती हैं।
अपने परिवार और दोस्तों के साथ खाली समय का आनंद तब और जरूरी हो जाता है जब एक व्यस्त शैक्षणिक वर्ष उनका इंतजार कर रहा हो। बच्चे तनाव से दूर रखने वाली ऐसी सहज गतिविधियों को स्कूल के दौरान पूरा करने में सक्षम नहीं होते हैं। विचारणीय है कि आज दुनिया भर में बीस फीसद से ज्यादा किशोर मानसिक समस्याओं से पीड़ित हैं।
वैश्विक स्तर पर पंद्रह से उन्नीस वर्ष आयुवर्ग के किशोरवय बच्चों में तनाव सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। समझना मुश्किल नहीं कि अकादमिक मोर्चे पर आगे रहने के लिए वर्ष भर एक तयशुदा दिनचर्या में बंधे रहना भी किशोरों की मन:स्थिति को प्रभावित करता है। कुछ समय पहले छत्तीस राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 3.79 लाख से अधिक विद्यार्थियों के अध्ययन में चिंतनीय स्थितियां सामने आर्इं थीं। अधिकतर विद्यार्थियों ने पढ़ाई, परीक्षा और परीक्षा परिणाम को चिंता का प्रमुख कारण बताया था।
मौजूदा दौर में किशोरों की बड़ी आबादी आक्रोश और अकेलेपन के घेरे में हैं। आपराधिक घटनाओं तक में उनकी भागीदारी देखने को मिल रही है। नई पीढ़ी के इन बच्चों में पारिवारिक और सामाजिक अलगाव दिखता है। इन हालात के पीछे कहीं न कहीं अकादमिक मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन का दबाव और समाज से बढ़ती दूरी ही है।
पाठ्यपुस्तकों और अंकों की दौड़ तक सिमटी जिंदगी में किशोर कई तरह की बुरी आदतों का भी शिकार बन रहे हैं। इसीलिए ग्रीष्म अवकाश के समय को पढ़ाई से दबाव से परे रचनात्मक सोच, सामुदायिक समझ और रिश्तों से जुड़ाव को पोषित करने में लगाना जरूरी है। जर्नल आफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के ताजा अध्ययन में सामने आया है कि सामुदायिक केंद्रों से जुड़े और सेवा देने वाले बच्चों का स्वास्थ्य बेहतर होता है।
ऐसे बच्चे न केवल समाज से जुड़ते हैं, बल्कि खुश भी रहते हैं। अध्ययन के अनुसार सामाजिक परिवेश से जुड़ कर काम करने वाले बारह साल से ज्यादा उम्र के पच्चीस प्रतिशत बच्चों में चिंता और बेचैनी का स्तर बहुत कम रहा। जिन बच्चों ने सामुदायिक सेवा में हिस्सा नहीं लिया उनकी अपेक्षा सामुदायिक गतिविधियों से जुड़े चौंतीस फीसद बच्चों की सेहत शानदार और छियासठ प्रतिशत बच्चों का स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहा। यह जुड़ाव बच्चों की मानसिक और शारीरिक सेहत संवारने के साथ ही मानवीय प्रवृत्तियों को भी सार्थक दिशा देता है।
छुट्टियों का समय रिश्तों-नातों को जानने और जीने का भी मौका होता है। पहले संयुक्त परिवार में बच्चे दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, बुआ के साथ रह कर बड़े होते थे। रिश्तेदारों का आना-जाना भी खूब होता था। मगर अब ऐसी व्यस्त जिंदगी है कि बच्चे सिर्फ अपने माता-पिता को ही जानते हैं। छुट्टियों का यह समय ऐसे संबंधों को जीने और जानने में लगाया जाए, यह खुद बच्चों के लिए ही नहीं, हमारे पारिवारिक और सामाजिक तानेबाने को सहेजने के लिए भी जरूरी है।
कुछ साल पहले आनलाइन पर्यटन कंपनी ‘एक्सपीडिया’ द्वारा किए गए परिवार सर्वेक्षण के अनुसार सत्तानबे प्रतिशत भारतीय किशोरों ने महसूस किया कि परिवार की छुट्टियां उन्हें अपने भाई-बहनों के करीब लाती हैं। उनहत्तर प्रतिशत ने माना कि उनकी पसंदीदा यादें परिवार के साथ बिताई छुट्टियों से जुड़ी हैं। बहुत से सामाजिक मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी बताते हैं कि अवकाश का समय बच्चों को नई ऊर्जा और उत्साह से भर देता है।
छुट्टियां बच्चों को खुश और होशियार बनाती हैं। सामाजिक कौशल सिखाती हैं। यह अभिभावकों के साथ अनौपचारिक रूप से संवाद करने का समय होता है। भटकाव के मौजूदा परिवेश में ऐसा खुला संवाद किशोरों की मानसिकता समझने में सहायक होता है। नई पीढ़ी को दिशाहीन होने से बचा सकता है। समय रहते अभिभावकों को सचेत कर सकता है।