सोचने, समझने, योजना बनाने आदि विशेषताओं के साथ-साथ अपनी भावनाओं और संवेदनाओं को एक दूसरे के साथ साझा करने की खूबियां उसे अन्य प्राणियों से अलग करती हैं। लेकिन गलाकाट प्रतिस्पर्धा और भागदौड़ वाली दुनिया में आज लोगों के पास सबकुछ है लेकिन यदि कुछ नहीं है तो वह है एक दूसरे के लिए ‘समय’।
लोगों के पास दूसरों के लिए तो छोड़िए अपने खुद के परिजनों और बच्चों तक के लिए भी वक्त नहीं है। इसका मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा दुष्परिणाम पड़ रहा है। बड़े और उम्रदराज लोगों के साथ-साथ अब छोटे-छोटे बच्चे तक मानसिक अवसाद का शिकार हो रहे हैं और आत्महत्या सहित अन्य आत्मघाती कदम उठाने लगे हैं।
‘स्कूल आफ पब्लिक हेल्थ’, चंडीगढ़ और स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (पीजीआइएमईआर) के शोधकर्ताओं ने अपने हालिया शोध में पाया है कि 13 से 18 साल की छोटी उम्र में ही अधिकांश स्कूली विद्यार्थी अवसाद का शिकार बन रहें हैं। अध्ययन बताता है कि लगभग 40 फीसद किशोर किसी न किसी रूप में तनाव से ग्रसित हैं।
इनमें से 7.6 फीसद किशोर जहां गहरे अवसाद से पीड़ित हैं तो वहीं लगभग 32.5 फईसद किशोर अवसाद के साथ-साथ अन्य विकारों से भी ग्रसित हैं। करीब 30 फीसद किशोर तनाव (स्ट्रेस) के न्यूनतम स्तर और 15.5 फीसद किशोर तनाव के मध्यम स्तर से प्रभावित हैं। 3.7 फीसद किशोरों में अवसाद का यह स्तर गंभीर स्थिति तक पहुंच चुका है, तो वहीं 1.1 फीसद किशोर ऐसे हैं जो कि अत्यधिक गंभीर अवसाद से ग्रस्त पाए गए हैं।
मानव-संसाधन मंत्रालय की ओर से पेश एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 11 से 17 वर्ष की उम्र के स्कूली बच्चे उच्च तनाव के शिकार देखे जाते हैं। इसके अलावा कुछ बच्चे मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रसित होते हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका तंत्र संस्थान (निम्हान्स) बंगलुरु की रिपोर्ट के अनुसार देश के 12 राज्यों में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वे में 34 हजार 802 वयस्क और एक हजार 191 किशोरों से बात की गई थी। 13 से 17 साल के लगभग आठ फीसद किशोरों में पढ़ाई के तनाव की वजह से मानसिक बीमारी पाई गई थी।
मानव-संसाधन मंत्रालय का कहना है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद 2018-19 से उपयुक्त एवं प्रभावी कदम उठाने की पहल की जा चुकी है और स्कूल में परामर्श की व्यवस्था के अलावा तनाव रहित माहौल बनाने की दिशा में कई कदम भी उठाए जा रहे हैं। स्कूलों में तनाव रहित शिक्षा देने के लिए पेशेवर और विशेषज्ञों से परामर्श दिलाने की व्यवस्था भी की जा रही है।
लेकिन ‘इंडियन जर्नल आफ साइकाइट्री’ का आंकड़ा है कि देश में औसतन चार लाख नागरिकों पर तीन ही मनोचिकित्सक हैं, जबकि हर चार लाख लोगों पर कम से कम 12 मनोचिकित्सक होने ही चाहिए, यानी उपलब्ध मनोचिकित्सकों से चार गुना ज्यादा की आवश्यकता है। मनोचिकित्सकों की कम उपलब्धता से खराब मानसिक सेहत से गुजर रहे लोगों के लिए हालात और विकट हो रहे हैं। साल 2012 से 2030 तक इसी वजह से भारत को 1.03 लाख करोड़ डालर के आर्थिक नुकसान की बात भी उसने कही है। यह आंकड़े देश के सालाना बजट 2022 के मुकाबले दोगुने से ज्यादा है।
ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में करिअर की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं। लोगों को मानसिक समस्याओं से निजात दिलाने वाले क्षेत्र को मनोविज्ञान या ‘साइकोलाजी’ का नाम दिया गया है। इसमें बिना दवाइयों का सेवन किए और सोच में परिवर्तन लाने के लिए एक व्यक्ति विशेष दूसरे से बात करता है। अगर आप इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखते हैं तो आपके लिए इसमें बेहतर रोजगार के साथ-साथ एक स्वस्थ समाज के निर्माण में योगदान देने के भरपूर अवसर मौजूद हैं।
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पाठ्यक्रम
मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में जाने के लिए विद्यार्थी 12वीं के बाद मनोविज्ञान में बीए आनर्स पाठ्यक्रम कर सकते हैं। 12वीं के बाद इस पाठ्यक्रम की अवधि तीन या चार साल की है, जिन्हें छह या आठ सेमेस्टर में बांटा जाता है। वहीं, स्नातक के बाद इस क्षेत्र में जाने के लिए मनोविज्ञान में एमए/एमएससी की डिग्री ले सकते हैं। इसकी अवधि दो साल होती है।
मानसिक स्वास्थ्य क्षेत्र में विकल्प
भारत में आत्महत्या, अवसाद और मानसिक बीमारियों के बढ़ते मरीजों के कारण इस क्षेत्र में रोजगार की कमी नहीं है। मनोविज्ञान का पाठ्यक्रम करने के बाद सरकारी और निजी अस्पताल में मनोविज्ञानी के तौर पर काम कर सकते हैं। इसके अलावा विश्वविद्यालयों, स्कूलों, सरकारी व गैर सरकारी एजंसियों, निजी उद्योग, अनुसंधान संस्थान आदि में भी रोजगार के अवसर तलाश सकते हैं।
यहां से करें पढ़ाई
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
- अविनाश चंद्रा (लोकनीति के जानकार)