नीला उसे छोड़कर दरवाजे के अंदर चली गई तो वह सड़क पर अकेला हो गया। हालांकि, लोग आ-जा रहे थे। उसने अपने सिर को हल्के से झटका दिया। एक-एक कदम उठाना उसे भारी लग रहा था। एक बार तो मन किया हुआ कि वह इसी सड़क पर बैठ जाए, खुद को तसल्ली देने के लिए। ताकि कुछ तो राहत मिले! इस विचार के आते ही वह इधर-उधर देखने लगा। उसके पास से साइकिल, आटो रिक्शा और लोगों की आवाजाही वैसे ही जारी थी। सामने ही गुवाड़ी का दरवाजा दिख रहा था जिसमें नीला रहती है। उस दरवाजे को देख कर वह फिर ठिठक गया। उसने अपने विचार को वहीं मुल्तवी कर दिया।
वह वैसे ही सोचने लगा, ‘मुझे इस तरह यों ही किसी ने नीला के घर के सामने बैठा हुआ देख लिया तो फिर बेबात ही बंतगड़ हो जाएगा।’ जैसे भी हो तुरंत ही चले जाना उचित समझा उसने। लेकिन, उसके पैर तो मानो मन भर के हो गए थे। आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उसे खुद पर ही आश्चर्य होने लगा, ‘अचानक ही यह सब कैसे हो गया? अभी थोड़ी देर पहले जब नीला साथ में चल रही थी, तब तो उसके अंदर न जाने कितने घोड़ों की ताकत कुलांचें मार रही थीं। और उसके अंदर के घोड़े हिनहिनाकर भाग जाना चाहते थे। जिन्हें वह बमुश्किल रोके हुए था। इस डर से कि कहीं नीला को इन घोड़ों के बारे में पता न चल जाए, नहीं तो वह मेरे बारे में न जाने क्या-क्या सोचने लगेगी। पर अब जब वह गुवाड़ी के दरवाजे के अंदर चली गई है तो फिर उसके अंदर के हिनहिनाते हुए घोड़े रस्सी छुड़ाकर न जाने कहां चले गए। और जैसे गुब्बारे की हवा ही निकल गई हो। ठीक इसी तरह से उसके अंदर का उत्साह हवा हो गया। वह हकबकाई आंखों से कभी खुद को तो कभी गुवाड़ी के उस दरवाजे को देखने लगा। जिसके अंदर जाते ही नीला गायब हो गई थी। वह विस्फारित आंखों से कुछ देर तक उस दरवाजे को देखता रहा, मानो अभी ही वह जलकर राख हो जाएगा और फिर सब कुछ आर-पार दिखने लगेगा।
पर फिर थोड़ी देर में वह आगे बढ़ गया। अपने अंदर की हताशा को परे धकेलता हुआ । उसने अपनी थकान को किसी उतरन की तरह बाहर फेंका और गहरी सांस ली। इस गहरी सांस के साथ ही उसने हिम्मत को भी अपने अंदर गटका और तभी अपनी उंगलियों को बालों में फिराते हुए वह खुद से बोला, ‘यार! इस तरह तो तू खुद से ही हार जाएगा, पर तुझे तो सबसे लड़ना ही नहीं है, बल्कि जीतना भी है।’ वह अपने आस-पास देखने लगा, तो उसकी आंखों में उम्मीद की चमक उतरने लगी, ‘यह सही है कि दुनिया बहुत ही खराब है, यहां किसी के भी साथ कुछ भी हो सकता है।’ इस विचार के आते ही उसके चहरे पर हंसी आ गई। और आंखों में चमक। हालांकि, अभी तक रात घिर आई थी। दुकानों से आती हुई रोशनी से सड़क पर उजाला पसरा हुआ था।
अब वह अपनी सामान्य गति से चलते हुए घर की तरफ बढ़ गया। तभी किसी ने पीछे से आवाज लगाई, ‘अरे यार सुमीत! इतनी जल्दी में तू कहां जा रहा है?’
उसने पीछे मुड़कर देखा, रूपेश हंसते हुए उसे ही बुला रहा था। वह मुड़कर रूपेश के पास चला आया। रूपेश नीला का छोटा भाई है और उसका दोस्त। जब उसके पास पहुंचा तो वह चहकते हुए बोला, ‘अरे! तू क्या कर रहा है यहां रूपेश?’
‘अरे यार! यहीं पर तो मेरा घर है न…क्या तुझे नहीं पता?’
वह कुछ भी नहीं बोला, बस रूपेश को देखता रहा। थोड़ी देर के बाद अपनी उंगली के इशारे से उस दरवाजे को दिखाते हुए रुपेश बोला, ‘वह दरवाजा दिख रहा है न…वहीं हमारा घर है। इसी दरवाजे के पीछे हमारा संसार बसा है। आओ न घर चले।’
‘नहीं यार, अभी नहीं।’ बोलते हुए उसने रुपेश को गौर से देखा। इस बात की तस्दीक करने के लिए कि ‘कहीं इसने मुझे अभी नीला के साथ आते हुए तो नहीं देख लिया। क्योंकि दरगाह वाले जिस मैदान में वह अभी अपने दोस्तों के साथ खड़ा है यहां से वह सड़क साफ दिखती है जिससे अभी हम आए थे।’ इस विचार के मन में आते ही उसके मन में धुकधुकी होने लगी। और वह इधर-उधर देखने लगा। तभी उसने पूछा, ‘इस समय तुम यहां क्या कर रहे हो?’
‘बस ऐसे ही दोस्तों से बातें कर रहा था, तभी तुम दिख गए।’ रुपेश के चेहरे पर अपनेपन की चमक पसरी थी, जबकि उसके चेहरे पर असमंजसता के बादल मंडरा रहे थे। लेकिन जब पक्का यकीन हो गया तो उसे भी तसल्ली हुई। और उसके चेहरे पर हंसी के बादल पसर गए। उसने मुस्कुराते हुए ही कहा, ‘यार रुपेश! और क्या चल रहा है? तुम क्या कर रहे हो इन दिनों?’
‘कुछ भी नहीं…! बस ऐसे ही दिन पर दिन बीतते जाते हैं, गर्मी है कि एक मिनट भी चैन नहीं लेने देती, मन ही नहीं करता कुछ भी करने को बस पूरे समय ही पंखा करते रहो या पंखे के नीचे बैठे रहो।’
‘हां यार, इन दिनों गर्मी भी कुछ ज्यादा ही हो रही है। पर क्या करें इस पर तो अपना कोई जोर नहीं है न…नहीं तो…।’ वह कुछ बोलते बोलते अचानक ही रुक गया जैसे कुछ याद आ गया हो।
रूपेश उसके चेहरे की तरफ देखते हुए बोला, ‘तो तुम इतनी गर्मी में कहां से आ रहे हो?’
उसे लगा जैसे रुपेश धीरे-धीरे उस बिंदु पर आ रहा है जिसे वह किसी को भी नहीं बताना चाहता है। कुछ देर तक वह कुछ भी नहीं बोला, रुपेश का चेहरा देखता रहा और यह अनुमान लगाने की कोशिश करता रहा कि उसने यह सवाल यों ही पूछ लिया है या कि इसके कोई गहरे अर्थ हैं। वह काफी देर तक इसी को जांचता रहा, इसी बीच रुपेश ने फिर पूछा, ‘यार सुमीत तुमने बताया नहीं, इस समय कहां से चले आ रहे हो?’
‘कुछ नहीं यार, ऐसे ही एक दोस्त के साथ हवाबाजी कर रहा था…।’ बोलते हुए वह मुस्कुरा दिया।
रुपेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर बारी-बारी से अपने दोस्तों को देखने लगा। और फिर सब एक साथ ठहाका लगाकर हंस पड़े, वह भी उनके साथ हंस दिया।
अब तक रात पूरी तरह से घिर आई थी। वह चारों अंधेरे में ही खड़े हुए थे। बस उनकी आंखें चमक रही थीं। और अंधेरे में हर एक के होने की हल्की सी आकृति नजर आ रही थी। अंधेरे ने सबके ऊपर गहरे रंग का परदा डाल दिया था। बस केवल स्पष्ट रूप से उनकी आवाज ही सुनाई दे रही थी। वह इस अंधेरे को चीरकर कानों तक पहुंच रही थी।
अब उसे वहां खड़े हुए बोरियत महसूस होने लगी तो वहां से खिसकने की जुगत लगाते हुए बोला, ‘अच्छा रुपेश अब चलता हूं।’ दरअसल वह इस समय भी नीला के साथ बगीचे और फिर वहां से यहां तक आते हुए रास्ते के सारे के सारे दृश्यों को रिवाइव करके फिर जीना चाहता था। वह इन चार घंटों के एक-एक पल को फिर से जीना चाहता था।
‘ठीक है सुमीत! तो फिर मिलते हैं यार।’ बोलते हुए उसने रुपेश की कमर पर हल्के से धौल लगाई। इसके साथ ही बोला, ‘अब मैं भी घर जाता हूं काफी देर हो गई है। घर पर मां इंतजार कर रही होगी।’
इसके साथ ही वे अंधेरे मैदान से सड़क पर चले आए। सड़क पर अभी भी दुकानों की रोशनी पसरी हुई थी। लैंपपोस्ट तो अपनी जगह टिमटिमा ही रहे थे।
बस तभी उसने अपना हाथ हिलाते हुए कहा, ‘अच्छा दोस्तों! फिर मिलते हैं।’ चेहरे पर मुस्कान की परत चढ़ी हुई थी। वह घर की तरफ चल दिया, रुपेश भी गुवाड़ी के दरवाजे के अन्दर प्रविष्ट हो गया और उसके दोनों साथी भी अपनी अपनी राह चले गए।
घर पहुंचते ही उसका सामना मां से हो गया। दरवाजे के अंदर घुसते ही उन्होंने पूछा, ‘अरे बेटा! इतनी देर हो गई, …कहां चला गया था?’ बोलते हुए मां स्नेह से उसे ही देख रही थी।
तब उसने अपनी नजर इधर-उधर घुमाते हुए कहा, ‘कहीं भी नहीं गया था मां…यहीं पर ही तो था।’ कहते हुए उसके मन में फिर से संदेह की नदी बहने लगी, ‘कहीं मां को भी वह सब तो पता नहीं चल गया।’ इस विचार के मन में आने के बाद वह मां को उस नजर से देखने लगा।
बस तभी मां बोली, ‘मैं काफी देर से तेरी ही राह देख रही थी बेटा, मेरा तो मन बैठा जा रहा था, तुमने आने में कितनी देर कर दी?’
‘बस मां एक दोस्त के पास चला गया गया था…कुछ ऐसे ही…।’ बोलते हुए वह बीच में ही चुप लगा गया और मां का चेहरा देखने लगा। लेकिन वे तो लगातार उसे ही देख रही थी। तभी उसे लगा कि वह किसी एक्सरे मशीन से गुजर रहा है। मां इस समय जिस तरह से उसे देख रही थी उससे उसे असुविधा होने लगी। उसने कहा, ‘मां! इतनी सी देर में ऐसा भी क्या हो गया, जो आज तुम इतनी उतावली हो रही हो?’
‘कुछ नहीं रे बेटा! तुझे घर से गए चार पांच घंटे हो गए थे तो तेरी खूब याद आ रही थी रे…।’ बोलते हुए मां की आंखें भर आर्इं।
तभी वह उनके पास आते हुए बोला, ‘मां तुम भी न…क्यों इतनी चिंता करती हो? अब मैं कोई छोटा बच्चा तो रहा नहीं हूं। बड़ा हो गया हूं! तुम खुद ही देख लो न कितना तो बड़ा हो गया हूं।’ बोलते हुए वह मां के सामने ही चकरी-सा घूम गया।
‘हां…हां…पता है…अरे तभी तो चिंता हो गई है। कहीं तू रास्ते से भटक न जाए। जब
तू छोटा सा था तब तो तू पूरी तरह हम पर ही निर्भर था…पर अब तो…?’ बोलते हुए वह फिर चुप लगा गई और उसे ही देखने लगी।
‘छोेड़ो न मां…तुम भी क्या बात ले कर बैठ गई हो…अब जब मैं बड़ा हो गया हूं तो तुम चिंता कर रही हो। जब मैं छोटा था तब भी तो तुम चिंता करती रहती थी। तुम तो बस ऐसे ही…।’
‘बेटा, तू क्या जाने मां का दर्द…जब तेरे बच्चा होगा और वह बड़ा होकर इस तरह घर से गायब हो जाया करेगा चार पांच घंटे के लिए, तब तुझे इस तकलीफ का पता चलेगा । अभी इस समय तो तू मेरा मजाक बना रहा है।’ बोलते हुए उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े, जो गालों पर से लुढ़कते हुए होठों तक आने लगे।
‘तुम भी न…मां…?’ वह मां से लिपटते हुए बोला, ‘मैं यहीं पर ही तो था। ऐसे कहां चला गया था जो तुम इतनी परेशान हो रही हो? अगर सच में ही कहीं चला जाऊंगा तो फिर तुम क्या करोगी मां?’
‘नहीं बेटा, ऐसे मत बोल…मैंने कभी भी इस तरह से तो सोचा ही नहीं।’ बोलते हुए जैसे वह अपने आपको संभालने लगी। और जैसे फिर से याद करते हुए बोली, ‘अब तो तुम बड़े हो गए हो…जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो फिर…!’ बोलते बोलते अचानक रुक गई मानो खुदको समझाने लगी हो। वह मां के पास ही खड़ा था कि तभी पिताजी आ गए। अभी तक वह घर में नहीं थे, शायद किसी काम से गए थे। पिताजी को इस तरह सामने देखकर वह अचानक सकपका गया। आते ही उन्होंने पूछा, ‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?’
एक बार तो मन में आया कि ‘कोई भी जवाब न दूं।’ लेकिन तभी नीला की बात ध्यान में आ गई, ‘वे भी तो हमारी भलाई के लिए ही चिंतित रहते हैं न!’ तो वह धीरे से बोल दिया, ‘ठीक ही चल रही है।’ उसने अपनी नजरें झुका लीं, और थोड़ा सा सहम गया मानो अपने ही अंदर सिमट रहा हो किसी कछुए की तरह।
‘देखो बेटा! इस बार तुुम अपनी पढ़ाई का विशेष ध्यान रखना, तुम तो जानते ही हो यह तुम्हारे बोर्ड के इम्तहान का साल है। बारहवीं का नतीजा ही पूरी जिंदगी देखा जाता है, और इसी से तुम्हारा भविष्य निर्धारित होगा। तो इस बार जरा संभलकर पढ़ाई पर ध्यान देना…।’
वह कुछ भी नहीं बोला, बस उनको देखता रहा। तो वे फिर बोलने लगे, ‘इस बार तुम्हें हर विषय का पूरा पूरा ध्यान रखना होगा, पूरी तरह से सतर्क रहकर पूरे कोर्स को कवर करना है, जिसे भी तुम छोड़़ोगे, वही धोखा दे देगा। तुम सुन रहे हो न…।’
‘ जी…।’
‘और हां..! वह तुम्हारा ट्यूशन कैसा चल रहा है ? ठीक से पढ़ाई हो रही है न?’ कहते हुए वह उसे ही देख रहे थे। तभी फिर से बोले, ‘किसी और चीज की जरूरत तो नहीं है, हो तो बताना…।’
वह फिर से पिताजी को देखने लगा, उस समय वे भी उसे ही देख रहे थे।
तभी फिर से बोलने लगे, ‘इस साल तुम अपने आपको भूल जाओ और पढ़ाई में ही झोंक दो खुद को। सारी मटरगश्ती अगले साल कर लेना। सब कुछ भूल कर लग जाओ पढ़ाई में…तभी अच्छा नतीजा मिल पाएगा। तुम अच्छी तरह से कान खोल कर सुन लो इस बार तुम्हारा अच्छा नतीजा आना चाहिए। मैं इसके अलावा कुछ भी नहीं सुनना चाहता, तुम्हारा अच्छा नतीजा चाहिए मुझे समझे ।’ इस बीच उनकी तीखी नजरें उसका एक्सरे करती रहीं।
वह कुछ भी नहीं बोल पाया, कभी मां को तो कभी जमीन को देखता रहा। उसे लगने लगा मानो पिताजी ने उसे वहीं पर सबके सामने निर्वस्त्र कर दिया हो। ठगा सा यों ही खड़ा रहा देर तक।
‘अब यहां खड़े हुए क्या कर रहे हो, जाओ और अपनी पढ़ाई करो।’ पिताजी ने लगभग डपटते हुए कहा।
वह अचानक सकपका गया। मानो किसी ने उसे बीच बाजार में ही उसका पानी उतार दिया हो। कुछ समय तक तो वह वहीं खड़ा रहा सकपकाया हुआ। फिर मां को देखने लगा। वह भी उस समय उसे देख रही थी। और फिर वहां से कमरे में चला आया। कमरे में आने के काफी देर बाद तक पिताजी के एक-एक शब्द उसके कानों में देर तक गुंजते रहे। उसका मन उद्वेलन से भर गया। वह एक पल के लिए किताबों को देखने लगा। और दूसरे ही पल उसकी आंखों के सामने नीला का चेहरा झिलमिलाने लगा। नीला का खयाल आते ही उसके मन में कोमल विचारों का दरिया छलछलाकर बहने लगा। और इसके साथ ही कल्पना की मधुर छुअन उसके अंतस को सहलाने लगी। उसके युवा मन की धड़कनों में अब नीला धड़क रही थी।
और इसके साथ ही उसके साथ बीता हुआ समय भी साकार होने लगा। उसके कोमल हाथों के छुअन की खुशबू को वह अभी भी महसूस करने लगा। उसी छुअन का हाथ पकड़े हुए वह आगे बढ़ना चाहता था कि तभी उसे नीला की कही हुई बातें याद आ गर्इं, ‘वे भी तो आखिर हमारे भविष्य के लिए ही चिंतित हैं न….!’ वह इसके साथ ही वहीं का वहीं रुक गया। उसकी कल्पनाओं के घोड़े जैसे अचानक ही ठिठककर रुक गए हों। फिर उसने अपने अंदर के सभी विरोधी विचारों को वहीं का वहीं विराम दे दिया। और बरबस ही उसके मुंह से निकल पड़ा, ‘नीला, तुमने मुझे भटकन के अंधे कुए से निकाल लिया…कोई और शायद इस तरह से नहीं कह पाता और मैं तो सोच भी नहीं पाता इस तरह से…तुम्हारा बहुत- बहुत धन्यवाद नीला..।’़ इस विचार के आते ही उसके चेहरे पर हंसी पसर गई। और उसके सामने नीला का चेहरा झिलमिलाने लगा। दो चमकती आंखें उसकी आंखों में झांक रही थीं। मानो कोई फूल धीरे-धीरे घुल रहा हो अपनी खुशबू को बिखेरता हुआ। इसके साथ ही उसके मन में बसी पिता के प्रति कड़वाहट धीरे धीरे घुलने लगी। बस तभी वह मुस्कुरा दिया। अब उसके आसपास अपनेपन की खुशबू फैली हुई थी, जिसमें वह पूरी तरह से सराबोर हो गया। ०