प्रधानमंत्री को पिछले सप्ताह लोकसभा में बोलते हुए सुन कर अच्छा लगा। इसलिए कि पिछले दिनों वे कुछ ज्यादा ही मौन रहे हैं और उनके मंत्री कुछ ज्यादा ही बोलने लग गए हैं और जब भी बोले हैं उनके मुंह से ऐसी बातें निकली हैं, जिनसे मोदी सरकार की छवि बिगड़ती गई है। प्रधानमंत्री ने अपनी चुप्पी तब भी नहीं तोड़ी, जब उनके किसी मंत्री ने मुसलमानों का वर्णन नफरत भरे शब्दों में किया है या उनको पाकिस्तान भगाने की धमकी दी है। इस नफरत क्लब के नए सदस्य बने हैं मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री राम शंकर कठेरिया। मंत्रीजी ने गए दिन आगरा में भाषण दिया जिसमें अखबारों के मुताबिक, उन्होंने मुसलमानों को ‘रावण की औलाद’ कहा और ‘अंतिम युद्ध’ शुरू होने की धमकी दी। प्रधानमंत्री मौन रहे, लेकिन गृह मंत्री ने अपने साथी को टोकने के बदले शाबाशी दी।

ऐसा अगर राजनाथ सिंह ने यह सोच कर किया कि उत्तर प्रदेश में आने वाले चुनावों से इसका लाभ मिलेगा भारतीय जनता पार्टी को, तो उनकी सोच बिल्कुल गलत साबित होगी। भारत बदल गया है, भारत के नौजवान बदल गए हैं और अब उनके लिए रोजगार की चिंता हिंदू-मुसलिम झगड़ों से कहीं ज्यादा अहमियत रखती है। रही बात अयोध्या में उस राम मंदिर की तो उसको भी तकरीबन भुला दिया गया है। क्या प्रधानमंत्री भूल गए हैं कि उनको जनादेश किसलिए मिला था? क्या भूल गए हैं कि परिवर्तन और विकास के नाम पर मिला था यह जनादेश? क्या ये भी भूल गए हैं कि वे तीस वर्ष बाद पहले प्रधानमंत्री बने, जिनको पूर्ण बहुमत हासिल हुआ, क्योंकि मतदाता एक तरह से संदेश ये भेज रहे थे कि उनका भरोसा पुरानी आर्थिक नीतियों में अब नहीं रहा है?

लोकसभा में मोदी ने अपने भाषण में कहा था कि गरीबी की जड़ें कांग्रेस ने इतनी मजबूत बना दीं अपने साठ वर्ष लंबे राज में कि मोदी को उखाड़ना आसान होगा और गरीबी की जड़ें उखाड़ना कठिन। इसी विचार को आगे बढ़ा कर यह भी बता सकते हैं जनता को कि जिस समाजवादी आर्थिक नीतियों पर आज भी सोनिया और राहुल गांधी गर्व करते हैं, उसकी मुख्य उपलब्धि यही रही है कि राजनेता और आला अधिकारी बिजनेस करने में व्यस्त रहे और बिजनेस करने वालों को देश के लुटेरे कह कर बदनाम किया गया है। असली लुटेरे कौन हैं, जनता अच्छी तरह जानती है। इसलिए राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल नाकाम रहे, जब उन्होंने अंबानी-अडानी के नाम मोदी के नाम से जोड़ने की कोशिश की लोकसभा चुनाव अभियान में। ऐसा लगने लगा है मगर कि मोदी इन सब बातों को भूल गए हैं।

देश की सबसे बड़ी राजनीतिक समस्या आज अर्थव्यवस्था बन गई है। प्रधानमंत्री गर्व से कहते फिरते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे आगे दौड़ रही है वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी छाए रहने के बावजूद। शायद यह बात सही भी है। लेकिन यह बात भी बिल्कुल सही है कि हम भारतवासियों को अर्थव्यवस्था में अभी भी हरारत नहीं दिख रही है। इसलिए कि न ही रोजगार के क्षेत्र में परिवर्तन दिख रहा है अभी तक और न भारत के उद्योग जगत में बहार लौटने के आसार दिख रहे हैं। भारत सरकार के आंकड़े चाहे कुछ भी कहते हों, यथार्थ यह है कि जो मायूसी सोनिया-मनमोहन के दौर के आखिरी सालों में फैली थी अर्थव्यवस्था में, वह अभी भी महसूस होती है। क्या यही वजह है कि एक बार फिर समाजवादी और वामपंथी आवाजें बुलंद होने लगी हैं?

कन्हैया कुमार जब तिहाड़ जेल से वापस जेएनयू लौटे तो उन्होंने अपने पहले भाषण में ऐसी बातें कहीं, जिनको सुन कर मुझे सत्तर का दशक याद आया। समाजवाद में विश्वास व्यक्त किया, स्टालिन और लेनिन को हीरो के रूप में पेश किया और लाल सलाम की बातें की। बिल्कुल ऐसी बातें हुआ करती थीं उस जमाने में भारत के विश्वविद्यालयों में जब छात्रों को मालूम नहीं था कि चीन में डेंग शियाओ पींग ने मार्क्सवादी आर्थिक नीतियों को कूड़ेदान में फेंक कर विदेशी निवेशकों को आमंत्रित किया था। उस सत्तर के दशक में हम क्या जानते थे कि सोवियत यूनियन का नामोनिशान मिटने वाला था और जर्मनी के दो हिस्सों के बीच दीवार गिरने वाली थी। यह भी नहीं जान सकते थे तब कि पूर्वी यूरोप के सारे मार्क्सवादी देश अपनी आर्थिक नीतियों को त्याग कर पश्चिमी यूरोप की नकल करने वाले हैं।

कन्हैया कुमार का भाषण था बहुत जोरदार, लेकिन इसको सुनते हुए ऐसा लगा मुझे कि जेएनयू में इन वैश्विक घटनाओं की चर्चा तक नहीं हुई होगी। कन्हैया की आर्थिक सोच पुरानी है। बल्कि हमारे तकरीबन सारे राजनीतिक दल उसी पुरानी आर्थिक सोच में अटक कर रह गए हैं जिसके कारण भारत की गिनती आज भी दुनिया के सबसे गरीब देशों में होती है। मोदी को पूरा बहुमत इस देश के मतदाताओं ने दी थी, क्योंकि चुनाव अभियान में उन्होंने बिल्कुल अलग किस्म की बातें की थीं। समृद्धि-संपन्नता की बातें, भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने की बातें, नई दिशाओं की बातें। तो अब क्यों कर रहे हैं वही घिसी-पिटी बातें जो हम बहुत बार सुन चुके हैं ऐसे राजनेताओं से जिनका असली मकसद रहा है अपने परिवार की सेवा!

सच तो यह है दोस्तों कि जितने धनी हमारे राजनेता हो गए हैं अपने इस भारत महान में, उतने धनी हमारे उद्योगपति भी शायद नहीं हैं और वह भी समाजवाद के कारण। अडानी-अंबानी को गालियां देने वाले राजनेताओं की संपत्ति की जांच करवाई जाए तो यकीन कीजिए कि जितना काला धन उनके पास है, उतना उन बदनाम उद्योगपिितयों के पास नहीं होगा। सो, प्रधानमंत्रीजी, मेहरबानी करके आप इन राजनेताओं के नक्शेकदम पर नहीं चलें। वरना परिवर्तन का वह सपना टूट कर चूर हो जाएगा।