सफलता के शीर्ष पर रहने के दौरान लता मंगेशकर के मोहम्मद रफी, राज कपूर, संगीतकार एस डी बर्मन आदि के साथ मतभेद हुए। लता ने खुद को इनसे दूर कर लिया। नुकसान फिल्मजगत और संगीतप्रेमियों का हुआ। लता-रफी थे, मगर दोनों साथ नहीं गा रहे थे। लता अपने सम्मान और उसूलों पर अड़ी रहीं और हर बार फिल्मजगत में से कोई न कोई उन्हें मनाने के लिए आगे आया।

खेमचंद प्रकाश के 1949 में ‘महल’ के लिए बनाए गाने ‘आएगा आने वाला…’ की अपार लोकप्रियता ने संघर्षरत लता मंगेशकर के संघर्ष को झटके में खत्म कर दिया था और 1950 तक पहुंचते-पहुंचते वे इतनी मजबूती हासिल कर चुकी थीं कि अपने पितृविहीन परिवार की आर्थिक जरूरतें पूरी कर सकें। मगर लोकप्रिय होने के बावजूद लता को अपने उसूलों और सम्मान के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ा। बकौल लता, ‘दुनिया कैसी है, लोग कैसे हैं उनका स्वभाव कैसा है। यह सब संघर्ष करने के बाद ही पता चलता है।’

लता मंगेशकर ने अपनी आवाज के दम पर पार्श्वगायन की दुनिया में एवरेस्ट सी ऊंचाई हासिल की। आवाज की ताकत ही नहीं, जरूरत और उसकी कीमत को पहचाना। अपने सम्मान और उसूलों के साथ कभी समझौता नहीं किया। किसी ने उनकी आवाज को कमतर आंकने की या उनका हक मारने की कोशिश की, तो लता अपने तरीके से उससे भिड़ गर्इं। उसके लिए गाना ही बंद कर दिया। एक बार संगीतकार एसडी बर्मन ने एक बयान दे दिया था कि लता मंगेशकर अगर मशहूर हैं तो उसमें उनके बनाए गानों का योगदान है। आखिर गायक तो वही गाता है, जो संगीतकार बनाता है। दादा के बयान से आहत लता ने उनके साथ गाना बंद कर दिया। आखिर दादा को ही झुकना पड़ा, तब लता उनके साथ गाने के लिए तैयार हुर्इं।

लता चाहती थी कि गायकों को रायल्टी मिले जबकि मोहम्मद रफी का कहना था कि हमने गा दिया। पैसे ले लिए। बात खत्म। लता का कहना था कि किसी गायक के गानों से सालों साल कोई कमाए, तो उसमें गायक का भी हिस्सा हो ताकि आखिरी दिनों में उस गायक को आर्थिक संकटों का सामना न करना पड़े। दोनों में मतभेद बढ़े तो लता ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि वे आज के बाद रफी के साथ नहीं गाएंगी। यह 1961 की बात है। चार सालों तक लता ने रफी ने साथ नहीं गाया। फिल्म वालों ने दूसरी लता, दूसरे रफी ढूंढ़ने की कोशिशें की। रफी की तलाश में मिले महेंद्र कपूर और लता मंगेशकर के विकल्प के रूप में सामने आई सुमन कल्याणपुर। मगर वे लता रफी का तोड़ नहीं बन सके। हार कर चार साल के बाद संगीतकार शंकर-जयकिशन की पहल पर लता-रफी साथ गाने के लिए तैयार हुए।

1949 में जिस फिल्म ने भारतीय सिनेमा संगीत को एक नया मोड़, नया तेवर दिया था वह थी शंकर-जयकिशन की राज कपूर द्वारा बनाई गई ‘बरसात’। ‘जिया बेकरार है…’, ‘हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का…’, ‘छोड़ गए बालम…’, ‘बरसात में हम से मिले तुम…’ जैसे गानों ने अपार लोकप्रियता हासिल की और लता मंगेशकर राज कपूर की फिल्मों का अहम हिस्सा हो गई। ‘आवारा’, ‘आह’, ‘श्री 420’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’ जैसी फिल्म तक राज कपूर ने लता मंगेशकर से गवाया।

राज कपूर से पारिश्रमिक को लेकर मतभेद हुए तो लता ने उनके लिए गाना बंद कर दिया। ‘मेरा नाम जोकर’ राज कपूर ने बिना लता के बनाई, जो इतनी बड़ी असफल थी कि शोमैन राज कपूर को बंगला, जेवर तक गिरवी रखने पड़ गए थे। आखिर राज कपूर को लता के आगे झुकना पड़ा। तब 1973 में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल लता को ‘बाबी’ में लेकर आरके में आए। ‘झूठ बोले कौवा काटे’, ‘हम तुम एक कमरे में बंद…’ गानों की लोकप्रियता से बाबी हिट हुई और शोमैन की प्रतिष्ठा वापस लौटी थी। यह था फिल्म निर्माताओं के लिए लता का महत्व। यश चोपड़ा जैसे फिल्मकार तो बिना लता के फिल्म बनाने की कल्पना तक नहीं कर पाते थे। सिनेमा संगीत की दुनिया में तो ऐसी कोई चोटी की हीरोइन और संगीतकार नहीं था (ओपी नैयर को छोड़कर) जिसने लता की आवाज का इस्तेमाल नहीं किया।

किशोर उम्र से संघर्ष करने वाली लता ने अपनी आवाज के तेवर, ताकत और तिलिस्म को अच्छी तरह से जान लिया था, इसलिए उन्होंने आखिरी दम पर अपनी शर्तों पर गाने गाए। लता में कोयल सी मिठास भर नहीं थी, इस्पात सी सख्ती भी थी।गणेश नंदन तिवारी फलता के शीर्ष पर रहने के दौरान लता मंगेशकर के मोहम्मद रफी, राज कपूर, संगीतकार एस डी बर्मन आदि के साथ मतभेद हुए। लता ने खुद को इनसे दूर कर लिया। नुकसान फिल्मजगत और संगीतप्रेमियों का हुआ। लता-रफी थे, मगर दोनों साथ नहीं गा रहे थे। लता अपने सम्मान और उसूलों पर अड़ी रहीं और हर बार फिल्मजगत में से कोई न कोई उन्हें मनाने के लिए आगे आया।

खेमचंद प्रकाश के 1949 में ‘महल’ के लिए बनाए गाने ‘आएगा आने वाला…’ की अपार लोकप्रियता ने संघर्षरत लता मंगेशकर के संघर्ष को झटके में खत्म कर दिया था और 1950 तक पहुंचते-पहुंचते वे इतनी मजबूती हासिल कर चुकी थीं कि अपने पितृविहीन परिवार की आर्थिक जरूरतें पूरी कर सकें। मगर लोकप्रिय होने के बावजूद लता को अपने उसूलों और सम्मान के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ा। बकौल लता, ‘दुनिया कैसी है, लोग कैसे हैं उनका स्वभाव कैसा है। यह सब संघर्ष करने के बाद ही पता चलता है।’

लता मंगेशकर ने अपनी आवाज के दम पर पार्श्वगायन की दुनिया में एवरेस्ट सी ऊंचाई हासिल की। आवाज की ताकत ही नहीं, जरूरत और उसकी कीमत को पहचाना। अपने सम्मान और उसूलों के साथ कभी समझौता नहीं किया। किसी ने उनकी आवाज को कमतर आंकने की या उनका हक मारने की कोशिश की, तो लता अपने तरीके से उससे भिड़ गर्इं। उसके लिए गाना ही बंद कर दिया। एक बार संगीतकार एसडी बर्मन ने एक बयान दे दिया था कि लता मंगेशकर अगर मशहूर हैं तो उसमें उनके बनाए गानों का योगदान है। आखिर गायक तो वही गाता है, जो संगीतकार बनाता है। दादा के बयान से आहत लता ने उनके साथ गाना बंद कर दिया। आखिर दादा को ही झुकना पड़ा, तब लता उनके साथ गाने के लिए तैयार हुर्इं।

लता चाहती थी कि गायकों को रायल्टी मिले जबकि मोहम्मद रफी का कहना था कि हमने गा दिया। पैसे ले लिए। बात खत्म। लता का कहना था कि किसी गायक के गानों से सालों साल कोई कमाए, तो उसमें गायक का भी हिस्सा हो ताकि आखिरी दिनों में उस गायक को आर्थिक संकटों का सामना न करना पड़े। दोनों में मतभेद बढ़े तो लता ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि वे आज के बाद रफी के साथ नहीं गाएंगी। यह 1961 की बात है। चार सालों तक लता ने रफी ने साथ नहीं गाया। फिल्म वालों ने दूसरी लता, दूसरे रफी ढूंढ़ने की कोशिशें की। रफी की तलाश में मिले महेंद्र कपूर और लता मंगेशकर के विकल्प के रूप में सामने आई सुमन कल्याणपुर। मगर वे लता रफी का तोड़ नहीं बन सके। हार कर चार साल के बाद संगीतकार शंकर-जयकिशन की पहल पर लता-रफी साथ गाने के लिए तैयार हुए।

1949 में जिस फिल्म ने भारतीय सिनेमा संगीत को एक नया मोड़, नया तेवर दिया था वह थी शंकर-जयकिशन की राज कपूर द्वारा बनाई गई ‘बरसात’। ‘जिया बेकरार है…’, ‘हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का…’, ‘छोड़ गए बालम…’, ‘बरसात में हम से मिले तुम…’ जैसे गानों ने अपार लोकप्रियता हासिल की और लता मंगेशकर राज कपूर की फिल्मों का अहम हिस्सा हो गई। ‘आवारा’, ‘आह’, ‘श्री 420’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’ जैसी फिल्म तक राज कपूर ने लता मंगेशकर से गवाया।

राज कपूर से पारिश्रमिक को लेकर मतभेद हुए तो लता ने उनके लिए गाना बंद कर दिया। ‘मेरा नाम जोकर’ राज कपूर ने बिना लता के बनाई, जो इतनी बड़ी असफल थी कि शोमैन राज कपूर को बंगला, जेवर तक गिरवी रखने पड़ गए थे। आखिर राज कपूर को लता के आगे झुकना पड़ा। तब 1973 में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल लता को ‘बाबी’ में लेकर आरके में आए। ‘झूठ बोले कौवा काटे’, ‘हम तुम एक कमरे में बंद…’ गानों की लोकप्रियता से बाबी हिट हुई और शोमैन की प्रतिष्ठा वापस लौटी थी। यह था फिल्म निर्माताओं के लिए लता का महत्व।

यश चोपड़ा जैसे फिल्मकार तो बिना लता के फिल्म बनाने की कल्पना तक नहीं कर पाते थे। सिनेमा संगीत की दुनिया में तो ऐसी कोई चोटी की हीरोइन और संगीतकार नहीं था (ओपी नैयर को छोड़कर) जिसने लता की आवाज का इस्तेमाल नहीं किया। किशोर उम्र से संघर्ष करने वाली लता ने अपनी आवाज के तेवर, ताकत और तिलिस्म को अच्छी तरह से जान लिया था, इसलिए उन्होंने आखिरी दम पर अपनी शर्तों पर गाने गाए। लता में कोयल सी मिठास भर नहीं थी, इस्पात सी सख्ती भी थी।