सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही, लोकपाल की नियुक्ति न होने पर, निराशा जाहिर की है। लोकपाल कानून को बने तीन साल होने को आ रहे हैं। मगर अब तक केंद्र सरकार इस तर्क पर लोकपाल की नियुक्ति को टालती आ रही है कि कानून के मुताबिक चयन समिति में दोनों सदनों के विपक्ष के नेताओं का होना अनिवार्य है, जबकि वर्तमान लोकसभा में कोई नेता-विपक्ष नहीं है। कांग्रेस लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, पर वह नेता-विपक्ष के लिए आवश्यक न्यूनतम सदस्य संख्या की शर्त पूरी नहीं करती। इसलिए सरकार ने लोकपाल की नियुक्ति के लिए समिति गठित करने में आने वाली समस्या के निराकरण के लिए कानून में संशोधन का विधेयक तैयार किया है, जो संसद में लंबित है। सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा है कि अगर लोकसभा में कोई नेता-विपक्ष नहीं है, तो सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को चयन समिति में शामिल कर प्रक्रिया को क्यों नहीं आगे बढ़ाया जाता। इसका कोई संतोषजनक जवाब सरकार के पास नहीं है।

दरअसल, लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति सरकारों को रास नहीं आती, इसीलिए वे इससे बचने का कोई न कोई रास्ता निकालती रही हैं। कई राज्यों ने तो लोकायुक्त संस्था का गठन ही नहीं किया है। गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, तो करीब सात साल तक उन्होंने लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं होने दी थी। और भी कई राज्यों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जो यही बताएंगे कि लोकायुक्त का पद खाली होने पर समय से भरा नहीं जाता। सूचना आयोगों का भी यही हाल है, नतीजतन वहां लंबित आवेदनों और अपीलों का अंबार लगता जा रहा है। इससे सूचनाधिकार कानून के ही बेमतलब होने का खतरा पैदा हो गया है। लोकपाल कानून में लोकपाल और लोकायुक्तों को कुछ ऐसे अधिकार दिए गए हैं, जिनसे सत्तापक्ष के नेताओं और नौकरशाहों को भी मुश्किलें पेश आ सकती हैं। हैरानी की बात है कि मोदी सरकार एक तरफ तो भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त रुख अपनाने का दावा कर रही है, मगर दूसरी ओर लोकपाल की नियुक्ति को लेकर उसका रवैया सवालों के घेरे में है। मजे की बात है कि अण्णा आंदोलन के दौरान भाजपा जोर-शोर से यह जताती रही कि वह सख्त लोकपाल कानून के पक्ष में है। पर अब जब लोकपाल की नियुक्ति का जिम्मा भाजपा के जिम्मे है, लगता है वह इस मसले को ठंडे बस्ते में रखना चाहती है।

विपक्ष में रहते हुए भाजपा सीबीआई की स्वायत्तता की भी दुहाई देती रही, मगर अब सीबीआई को स्वायत्त बनाने के अपने वादे को उसने बड़े सुविधाजनक ढंग से भुला दिया है। लोकपाल कानून के मुताबिक लोकपाल को अधिकार है कि वह सीबीआई को निर्देश दे सके। अगर सचमुच मोदी सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने को लेकर गंभीर है, जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों के आचरण को साफ-सुथरा बनाना चाहती है तो उसे लोकपाल की नियुक्ति से क्यों गुरेज होना चाहिए! इस सरकार का आधा कार्यकाल समाप्त हो चुका है। सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव के मुताबिक अगर अब भी उसने सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को चयन समिति में शामिल कर लोकपाल की नियुक्ति की पहल नहीं की, तो भ्रष्टाचार से लड़ने के उसके दावे पर ही सवाल उठेगा।