राधिका नागरथ

भारत की संस्कृति इसलिए भी अद्भुत है कि वह हमें भोग सिखाती है। जीते हुए किस तरह पदार्थों का उपभोग करना है, यह केवल भारतीय संस्कृति में ही प्रतिपादित किया गया है। ईशावास्योपनिषद में आया है- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा। अगर त्यागपूर्वक भोग करना आ गया तो जीवन में कभी भी दुख का अनुभव नहीं होगा। त्याग रूपी भाव से जब हम किसी वस्तु को ग्रहण करते हैं तो उसके प्रति लालच का मतलब ही नहीं होता और वह ठीक उतनी ही मात्रा में खाया जाता है, जितना पेट की जरूरत हो,ना कि जितना जीभ चाहे।

विचारपूर्वक उपभोग करना, प्रेमपूर्वक उपभोग करना जीवन जीने का असली ढंग है। आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि कहते हैं कि जो त्याग करते हैं, असल में वही भोग पाते हैं। देखने में यह विरोधाभास सा लगता है, किंतु वास्तविकता यही है। त्यागपूर्वक उपभोग करने से किसी भी पदार्थ का प्रभाव हम पर हावी नहीं होता। विषयों के प्रति जो लगाव है, यही मनुष्य जीवन का बार-बार और मृत्यु का कारण बनता है।

इसलिए इन विषयों का त्याग करना ही होगा। यहां बहुत से लोग इसका तात्पर्य यह मान लेते हैं कि संसार छोड़कर जंगल में जाकर बैठ जाना ही विषयों का त्याग करना है। परंतु बहुत बार यह देखा गया है कि कोई ना कोई इच्छा, किसी ना किसी चीज के प्रति आसक्ति, व्यक्ति की जंगल में भी रह जाती है। इसलिए शास्त्र बतलाता है कि विषय का त्याग उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना विषय के प्रति आसक्ति का त्याग।

सब कुछ होते हुए भी अपनी इंद्रियों से, रूप, रस, गंध, स्पर्श का अनुभव करते हुए भी व्यक्ति चाहे तो अनासक्त रह सकता है। अगर वह अपने आत्मभाव में स्थित है, यही गीता का मर्म है। फिर उसे बार-बार उस विषय की सोच सताती नहीं है। यह विचारपूर्वक, ध्यानपूर्वक उपभोग करना केवल मनुष्य के ही वश में है।

अष्टावक्र गीता में आया है ब्रह्मा से लेकर चींटी तक जो चार प्रकार के प्राणी हैं, इन सभी में से केवल आत्मज्ञानी में ही शक्ति है कि इच्छा और अनिच्छा दोनों का परित्याग कर सके। फिर भी यदि ज्ञानपूर्वक पदार्थों के रस के प्रति आसक्ति दूर ना हो सके, तो भगवान कृष्ण गीता में सरल सा मंत्र बताते हैं कि तू उसे प्रसाद रूप में ग्रहण कर, सब मुझे अर्पण कर दे, सब कुछ त्याग कर बस मेरी शरण में आजा। मैं तुझे मुक्त कर दूंगा, पूर्ण समर्पण से।

बुद्धि लगाने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि आसक्ति बढ़ी या घटी। मैंने विषयों का भोग त्यागपूर्वक किया या लालसा से इंद्रियों की पुष्टि के लिए किया। फिर इस सोच विचार से व्यक्ति मुक्त हो परम विश्राम पा जाता है। अनन्य भक्ति का वह सहज में ही फल प्राप्त कर लेता है। विषयों के प्रति स्वत: ही उसका त्याग हो जाता है क्योंकि वह अपने मन को छोड़कर प्रभु के मन वाला बन जाता है। वह संकल्प और विकल्प से रहित हो, विषयों के प्रति दौड़ से मुक्त हो, परम विश्रांति पा जाता है। प्रेमपूर्वक उपभोग करना भी त्यागपूर्वक उपभोग करने के सम हो जाता है जिसमें आसक्ति का भाव लेश मात्र भी रह नहीं जाता।