प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जर्मनी, डेनमार्क और फ्रांस जैसे यूरोपीय देशों का दौरा तेजी से बदल रही वैश्विक राजनीति में भारत की बढ़ती अहमियत को रेखांकित करता है। यह यात्रा महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है कि रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से दुनिया में खेमेबाजी बढ़ी है और भारत किसी भी गुट में शामिल नहीं है। भारत शुरू से ही तटस्थ रुख अपनाता आया है और आज भी इस पर कायम है।
जर्मनी के चांसलर ओलाफ शाल्ज के साथ भी प्रधानमंत्री मोदी ने यही कहा कि किसी भी सूरत में युद्ध रुकना चाहिए और भारत पहले ही दिन से ही इसकी वकालत और प्रयास करता रहा है। डेनमार्क में भी प्रधानमंत्री ने रूस-यूक्रेन युद्ध को तत्काल रोकने पर जोर दिया। इससे भारत ने दुनिया को एक बार फिर दो-टूक संदेश दिया है कि वह किसी गुट का सदस्य बनने के बजाय युद्ध रोकने और शांतिके प्रयासों में ही भरोसा रखता है। गौरतलब है कि फ्रांस, जर्मनी और डेनमार्क सहित यूरोपीय संघ के सदस्य देश यूक्रेन के साथ और रूस के खिलाफ खड़े हैं। यूरोपीय संघ भारत से भी यह अपेक्षा कर रहा है कि इस मुद्दे पर वह रूस के खिलाफ खड़ा हो और यूक्रेन पर हमले का विरोध करे।
देखा जाए तो मामला रूस-यूक्रेन युद्ध तक ही सीमित नहीं है। यूरोपीय देश भारत को एक बड़े भागीदार के रूप में भी देखते रहे हैं। चाहे जलवायु संकट से निपटने का मुद्दा हो या हरित ऊर्जा, अंतरिक्ष सहयोग जैसे दूसरे क्षेत्र हों, सभी में भारत की गिनती अहम और निर्णायक भूमिका अदा करने वाले देश के रूप में हो रही है। विकसित देश भी इस हकीकत को स्वीकार कर रहे हैं कि भारत को नजरअंदाज करके वैश्विक संकटों से निपटना संभव नहीं है।
वरना जर्मनी के चांसलर शाल्ज भारत को समूह सात (जी-7) शिखर सम्मेलन के लिए न्योता क्यों देते? यह बात इसलिए भी अहमियत रखती है कि यूक्रेन के मुद्दे पर तटस्थ रुख रखने के बाद भी बड़े देश भारत को अलग-थलग करने की नहीं सोच सकते। हालांकि भारत पर इसके लिए दबाव कम नहीं पड़े हैं। यह बात तो फ्रांस, जर्मनी जैसे देश समझते ही हैं कि युद्ध एक न एक दिन खत्म होगा ही, लेकिन भारत के साथ भागीदारी और कारोबारी संबंध हमेशा चलने वाले हैं।
इसमें तो कोई संशय नहीं कि युद्ध ने यूरोपीय देशों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। ऐसे में उनके लिए भारत जैसा देश एक बड़े मददगार के रूप में साथ खड़ा है। गौरतलब है कि हाल में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जानसन और यूरोपीय संघ की प्रमुख उर्सूला लेयन ने भी भारत का दौरा इसी उद्देश्य से किया था कि भारत के साथ रिश्तों को और मजबूती दी जा सके।
इस यात्रा का एक और बड़ा हासिल यह भी है कि जर्मनी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत का सहयोगी बनने को राजी हो गया है। इससे पहले ब्रिटेन भी इसकी रजामंदी दे चुका है। यूरोपीय संघ की प्रमुख उर्सूला लेयन ने भी इस मुद्दे पर भारत के साथ सहमति जता दी है। यानी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक दबदबा बनाने की दिशा में यूरोप के मुल्क भी भारत के साथ आ रहे हैं। अमेरिका के नेतृत्व में बना क्वाड समूह, जिसका भारत भी सदस्य है, पहले से इस क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर सतर्क है। सबकी चिंता हिंद-प्रशांत क्षेत्र के जलमार्ग को चीन के दबदबे से बचाने की है। प्रधानमंत्री के यूरोप दौरे से यह और साफ हो गया है कि भारत भले किसी गुट में न हो, लेकिन उसकी कूटनीति की धमक जरूर बनने लगी है।