डॉ रघुराम राजन 4 सितंबर 2016 को रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद छोड़ देंगे। यह अफसोसनाक है कि सरकार तीन साल ही उनकी सेवा ले सकी, जबकि वह राजी-खुशी से सितंबर 2018 तक काम कर सकते थे, और अगर अनुरोध किया जाता, तो मई 2019 में सरकार का कार्यकाल पूरा होने तक।
खैर, उन बातों को जानें दें। हो सकता है सरकार अपनी सोची-समझी पसंद के शख्स को इस पद पर बिठा कर सबको हैरानी में डाल दे। निश्चय ही मैं आरबीआइ के गवर्नर पद पर नई नियुक्ति की घोषणा की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहा हूं, जिसमें पहले ही विलंब हो चुका है। क्या चीज नए गवर्नर का इंतजार कर रही है? अपने उत्तराधिकारी, और प्रधानमंत्री तथा सरकार के लिए डॉ राजन ने मूल्यवान संदेश छोड़ा है।
बेलाग भाषा
केंद्रीय बैंक के गवर्नर बेलाग अंग्रेजी (या फ्रेंच या जर्मन या चीनी भाषा) नहीं बोलते! वे गोलमोल भाषा में बोलते हैं और सुनने वाले अपने हिसाब से उसका मतलब निकालते हैं। यूएस फेड (अमेरिका का केंद्रीय बैंक) के पूर्व प्रमुख एलन ग्रीनस्पैन ने एक बार अमेरिकी कांग्रेस को बताया था (और उनका यह कथन प्रसिद्ध है) कि ‘‘सज्जनो, चूंकि मैं एक केंद्रीय बैंक का प्रमुख हूं, मैंने काफी असंगति वाली बातें बुदबुदाना सीख लिया है। अगर चलन के विपरीत, मेरी बातों में स्पष्टता दिखे, तो मेरे कथन को आपने जरूर गलत समझा होगा।’’
डॉ राजन का पिछला नीतिगत वक्तव्य, जो कि 9 अगस्त 2016 को आया, सीधी-सादी अंग्रेजी में था और इसने किसी के लिए संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ी। रिजर्व बैंक अभी नीतिगत दरें घटाने के लिए तैयार नहीं है। वक्तव्य के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश देखें:
* जून 2016 के नीतिगत वक्तव्य से लेकर अब तक वैश्विक आर्थिक परिदृश्य को कई घटनाओं ने आक्रांत किया है। सभी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में, दूसरी तिमाही में, वृद्धि दर अनुमान से कम रही है, और इसकी संभावनाओं को लेकर सामान्य धारणा मिली-जुली है।
* उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में, गतिविधि भिन्न-भिन्न रही है।
* वर्ष 2016 की पहली छमाही में विश्व-व्यापार सुस्त रहा। अधिकतर वित्तीय बाजारों को ‘ब्रेक्जिट’ के नतीजे का कोई पूर्वानुमान नहीं था और दुनिया भर में शेयर सूचकांक बुरी तरह लुढ़क गए। मुद्रा विनिमय की दरों में काफी उतार-चढ़ाव आया और निवेशक अपने सुरक्षित कोनों में दुबके रहे।
जोखिमों पर नजर
* (भारत में) पूंजीगत सामान के सेक्टर में लंबी सुस्ती का मतलब है कि निवेश की मांग कमजोर है…कारोबारी आत्मविश्वास हाल के महीनों में बढ़ा है, हालांकि रिजर्व बैंक का मार्च 2016 का सर्वे इस ओर संकेत करता है कि क्षमता उपयोग- मौसमी घट-बढ़ को शामिल करके- जितना होना चाहिए अभी उससे कम है।
* खुदरा महंगाई जो कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) से आंकी जाती है, जून में बाईस महीनों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। इसमें गजब की तेजी दिखी, जिसने अनुकूल आधार प्रभाव (बेस इफेक्ट्स) को धो डाला।
* बाहरी क्षेत्र में, वस्तुओं के निर्यात की दर अठारह महीनों बाद जून में सकारात्मक नजर आई… दूसरी ओर, आयात में गिरावट जारी रही, हालांकि हाल के महीनों की बनिस्बत धीमी गति से।
* जून में आए द्विमासिक वक्तव्य में महंगाई की बाबत दिए गए अनुमान बताते हैं कि मार्च 2017 तक इसको पांच फीसद की सीमा में लाने के लक्ष्य के विपरीत इसके उलटी दिशा में जाने यानी और बढ़ने के खतरे कायम हैं। (चार्ट में 4.8 से 6.4 के बीच दिखाया गया है)
* इन जोखिमों के मद््देनजर, रिजर्व बैंक के लिए यही उचित है कि वह इस वक्त रेपो दरों को यथावत रखे, और नीतिगत कदम उठाने के लिए उपयुक्त अवसर का इंतजार करे।
बेशक दूसरे वक्तव्य भी हैं जो सुनहरी तस्वीर पेश करते हैं, मसलन कृषि उत्पादों के विभिन्न प्रसंस्करण में बेहतर संभावनाएं, औद्योगिक मांग का फिर से गति पकड़ना, सेवा क्षेत्र में विस्तार, ग्रामीण मजदूरी में थोड़ी बढ़ोतरी, खाद्य महंगाई में नरमी की संभावना, शुद्ध पोर्टफोलियो निवेश की सकारात्मक स्थिति और पर्याप्त पूंजी प्रवाह। इसके बावजूद सरकार को उसका स्पष्ट संदेश है: आरबीआइ सरकार की ओर से ऐसे कदम उठाए जाने का इंतजार कर रहा है, जो आरबीआइ के लिए नीतिगत निर्णय की गुंजाइश पैदा करें।
हम बार-बार इस सवाल पर लौट आते हैं कि वह पहलकदमी कहां है जो अर्थव्यवस्था की रफ्तार तेज कर सके। पहलकदमी के अभाव में, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से ऋण की मांग नहीं हो रही है (जैसा कि सार्वजनिक क्षेत्र के कई बैंक प्रमुखों ने स्वीकार किया); ग्रीनफील्ड निवेश बहुत कम हो रहा है; रोजगार सृजन के लक्षण नहीं दिख रहे; और लोगों में इस बात का कोई अहसास नहीं है कि अर्थव्यवस्था 7.6 फीसद की दर से बढ़ रही है।
समस्या कहां है? उदाहरण के लिए, कोयलामंत्री ने कहा था कि कोयले की पर्याप्त उपलब्धता है। सही है, पर क्यों कोयले के भंडार जमा होते जा रहे हैं, ताकि कोयले का उत्पादन कम किया जा सके? ऊर्जामंत्री ने कहा कि बिजली उत्पादन की कोई कमी नहीं है। सही है, पर बिजली किस कीमत पर उपलब्ध है, क्यों वितरक कंपनियां कटौती करती हैं, क्यों बिजली संयंत्र अपने दावों से पीछे हट रहे हैं; और जबकि प्रतिव्यक्ति खपत कम है, बिजली की मांग क्यों नहीं है?
तीन मानकों पर सरकार को हर महीने प्रगति का जायजा लेना चाहिए। पहला, कितनी ठप परियोजनाएं ‘सीओडी’ की तरफ यानी कारोबारी परिचालन की तारीख की तरफ बढ़ी हैं। दूसरा, क्षमता उपयोग की दृष्टि से हरेक उद्योग का इस वक्त क्या हाल है। और तीसरा, कितनी नई फैक्टरियों ने उत्पादन शुरू किया और कितने नए रोजगार पैदा हुए?
सरकार अपनी जगह सही थी, जब उसने कहा कि वह नीतिगत कार्रवाई का मौका तलाश रही है। जो उसने नहीं कहा वह भी किसी हद तक जाहिर था: सरकार तभी कोई कदम उठाएगी जब रिजर्व बैंक नीतिगत दरों में कटौती के लिए राजी हो जाएगा। ऐसी स्थिति में, मेरा खयाल है, देश को यह बताना सरकार का फर्ज है कि वह मांग में सुस्ती, ठप परियोजनाओं, कमजोर ऋण वृद्धि, खाद्य महंगाई की ऊंची दर, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की खस्ताहाली और रोजगार सृजन की धीमी गति आदि की बाबत क्या कर रही है ताकि नए गवर्नर और नई ‘मौद्रिक नीति समिति’ के तहत आरबीआइ को नीतिगत दरें घटाने के लिए राजी किया जा सके। वरना, बिना किसी परिणाम के, दोषारोपण का खेल चलता रहेगा।
संदेश देने वाले ने साफ संदेश दिया है और अपना बोरिया-बिस्तर बांध लिया है। शुक्र है कि गवर्नर को अंधाधुंध निशाना बनाने का सिलसिला काफी हद तक थम गया है। आज से बीस दिनों में, संदेश देने वाला विदा ले चुका होगा, और सिर्फ संदेश मौजूद होगा।