धर्मग्रंथों को आधार बनाकर मध्यकाल से ही स्त्रियों को हाशिए पर रखने की कोशिश की गई। औद्योगिक क्रांति के बाद बने आधुनिक समाज में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के नारे के साथ बाजार आधारित नया वर्ग और नई सोच पैदा हुई। बाजार की मांग थी आजादख्याली। इसी के तहत औरतों को भी बहुत तरह की आजादी के साथ अपनी सरकार चुनने तक का भी अधिकार मिला। लेकिन समाज में अब भी बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो मध्ययुगीन सोच के तहत पुरुषसत्ता बनाए रखना चाहता है। और इसीलिए वह स्त्रियों पर कई तरह के अंकुश लगाता है। इसी की एक कड़ी है शिंगणापुर या सबरीमला के गर्भगृह में औरतों के प्रवेश पर रोक। लेकिन आजादी और समानता का स्वाद चख चुकीं महिलाओं को अब यह मंजूर नहीं। धर्मग्रंथों के आधार पर जहां महिलाओं को बेदखल किया गया वहीं वे संविधान के आधार पर अब दखल दे रही हैं। धार्मिक आस्था और संवैधानिक अधिकार की इस लड़ाई पर पढ़ें इस बार का बेबाक बोल।

महाराष्ट्र के शिंगणापुर मंदिर में प्रवेश का सवाल महिला अधिकारों के साथ मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था बनाम आधुनिकता की लड़ाई बन गया है। यह भी सच है कि यह लड़ाई कोई नई नहीं है। समाज के निर्माण के साथ ही कुछ खास तरह की आस्थाओं का निर्माण किया गया और समाज के सत्ताधारी अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए इसी आस्था का इस्तेमाल करते आए हैं। और समय के अलग-अलग हिस्से में इसकी मुखालफत में उठीं आवाजें भी इतिहास में दर्ज हैं।

जहां आस्था शब्द मध्ययुगीन है वहीं अधिकार मध्य और आधुनिक काल दोनों में है। आस्था का उलटा विवेक है जिसके साथ समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात आती है। सामंतवाद के केंद्र में आस्था है और आधुनिकता के केंद्र में तर्क और अधिकार। वहीं जब आस्था बनाम अधिकार की बात आती है तो चेतना के स्तर पर भी सवाल उठते हैं कि उन मंदिरों में प्रवेश के लिए अधिकार की मारामारी क्यों जिन्होंने स्त्री के अस्तित्व को ही अछूत माना है। धर्म ने अपनी सत्ता की चारदीवारी से बाहर निकाल कर स्त्री और दलितों को हाशिये पर फेंके रखा। सच तो यह है कि धर्म का केंद्र ही आस्था है। आधुनिक शहर में भी बने मंदिर ‘प्राचीनकाल’ की स्वसत्यापित पट्टी इसलिए लगाते हैं कि लोगों की आस्था बनी रहे, नहीं तो पुराने मंदिरों का ही विस्तार होता है जैसे दिल्ली में गुजरात का ‘अक्षरधाम’।

धार्मिकस्थलों में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सिर्फ हिंदू धर्मस्थलों में ही नहीं बल्कि दूसरे धर्मों में भी विवाद उठता रहा है। अगस्त 2014 में मुसलिम महिलाओं के एक समूह ने बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि मुंबई की प्रख्यात हाजी अली शाह की दरगाह के अंदर महिलाओं के प्रवेश पर से पाबंदी हटाई जाए। इस पाबंदी को चुनौती भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन की ओर दी गई है और इस पर फैसला आने का सभी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।

शिंगणापुर देश का एकमात्र ऐसा मंदिर नहीं जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित हो। कई ऐसे हिंदू और मुसलिम धर्मस्थान हैं जहां अलग-अलग कारणों से महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। बहुत सी दरगाहों में महिलाओं का प्रवेश सीमित है और दक्षिण में कार्तिकेय के मंदिरों में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत नहीं है। कई हनुमान मंदिरों में महिलाओं को प्रवेश नहीं मिलता है और महाराष्ट्र के ही दूसरे हिस्से में कार्तिकेय के मंदिर के एक खास स्थान पर महिलाएं नहीं जा सकतीं। हिमाचल प्रदेश के शाह तलाई स्थित बाबा बालकनाथ के मंदिर में महिलाओं को दूर से ही पूजा करनी पड़ती है। चंडीगढ़ जैसे आधुनिक शहर में बने बाबा बालकनाथ के मंदिर में महिलाएं सीढ़ियां चढ़ कर मंदिर के सामने के भाग से ही भगवान को प्रणाम करती हैं। चाहे हनुमान हों, कार्तिकेय, अयप्पा या पद्मनाभ मंदिर, इन जगहों पर तर्क यह है कि ये भगवान ब्रह्मचारी हैं, इसलिए महिलाओं को इनसे दूर रहना चाहिए।

यह आस्था का ही असर है कि यहां जाने वाली महिलाओं को भी यह स्वीकार्य है। ऐसे में शिंगणापुर से उठा विवाद और भी अहम है। उन मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश पर सबके अपने-अपने तर्क हैं। धार्मिक मान्यताओं की वजह से महीने के कुछ खास दिनों में महिलाओं को अपवित्र माना जाता है और इस समय महिलाएं धर्मस्थलों पर नहीं जाती हैं। कुछ धर्मस्थलों पर इस खास उम्र में आने के बाद से ही स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। और इसके पीछे का आधार हमारे धर्मग्रंथ हैं।

हिंदू धर्म की मानें तो इंद्र के शाप के कारण स्त्री को रजोधर्म झेलना पड़ता है। तैत्तिरीय संहिता कहती है कि इंद्र ने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप का वध किया और उन पर ब्रह्महत्या का पाप लगा। इंद्र ने इस पाप से मुक्ति पाने की गुहार लगाई। और, इंद्र का पाप ग्रहण किया धरती की स्त्रियों ने। स्त्रियों का शरीर रजोधर्म के रूप में आज भी इंद्र के पाप को झेलता है। वहीं हिंदू धर्मग्रंथों की तरह ही यहूदी और ईसाई धर्मग्रंथ भी स्त्रियों की इस खास स्थिति को शाप ही बताते हैं। ‘पवित्र आदम’ को निषिद्ध फल खिलाने के ‘पाप’ में हव्वा और उसकी योनी की संततियों को यह शाप झेलना पड़ा। इस्लाम भी महिलाओं के मासिक धर्म को गंदगी ही बताता है।

इंद्र और हव्वा का शाप झेल रहीं महिलाओं ने इक्कीसवीं सदी तक आते-आते यह साबित किया कि सिर्फ एक खास शारीरिक क्रिया के कारण वे ‘अछूत’ नहीं हो सकतीं। और धर्म की सत्ता में बदलाव के पीछे तर्क और अर्थ की सत्ता थी। औद्योगिक क्रांति और दो विश्वयुद्धों के बाद दुनिया के हालात बदले। ज्यादा से ज्यादा कामगारों की बाजार की मांग के कारण महिलाएं घर से बाहर निकलीं और उसके बाद तो पीछे मुड़ने का सवाल ही नहीं था। अब तो तर्क यह भी है कि इन खास दिनों में महिलाएं जब रसोईघर में हैं, कारखाने और दफ्तर में हैं, मजदूरी कर रही हैं, स्कूल में हैं, खेल के मैदान पर हैं और राष्टीय अध्यक्ष के रूप में देश को नेतृत्व करने के फैसले ले रही हैं तो सिर्फ इसी एक वजह से उन्हें मंदिर से दूर क्यों रखा जाए। मंदिर भी इंसान ने बनाए हैं और उसके नियम-कायदे भी उसी ने थोपे हैं। और, इक्कीसवीं सदी तो महिलाओं की सदी है और उसने अपनी जरूरतों के हिसाब से कई जगहों पर महिलाओं को इस ‘शाप’ से मुक्त कर दिया है तो मंदिर और ईश्वर उन्हें ‘अपवित्र’ क्यों मानें?

पितृसत्तात्मक समाज अपनी इच्छा को आस्था के नाम पर महिलाओं पर थोपता रहा है। आप किसी भी धार्मिक ग्रंथ को पढ़ें तो अंदाजा लगा सकते हैं कि इसके श्लोक और आयतें महिलाओं को सत्ता से दूर रखने की साजिश सी रचते दिखते हैं। धर्म के ठेकेदारों को अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए यह जरूरी लगा कि महिलाओं को दोयम दर्जा ही दिया जाए। और, इस तरह की परंपराओं को चुनौती देने वाले उदाहरण इतिहास में भी दर्ज हैं। अब 26 साल की तृप्ति देसाई ने फिर से आवाज बुलंद की हैं कि शनिदेव को लिंगभेद का आधार नहीं बनने देंगे और महिलाओं को उनके दर्शन-पूजन का हक दिलाएंगी।

देसाई की चुनौती से समाज के ठेकेदारों का सिंहासन डोल उठा है। वे अब इस विरोध को टेढ़ी नजर से देख रहे हैं। इसे प्रायोजित करार दे रहे हैं। मध्य प्रदेश के बड़बोले गृह मंत्री बाबूलाल गौड़ कहते हैं, ‘महिलाएं घर के भीतर ही पूजा कर लें, वही बहुत है’। रूढ़िवादियों की नजर में महिलाओं का और कोई स्थान तो वैसे भी नहीं है। घर संभाल लें, चूल्हा-चौका कर लें और उत्सवों में इनके वामांग खड़ी होकर अपने महिला होने का कर्तव्य निभा लें। 21वीं सदी में राष्ट्राध्यक्ष के पदों तक पहुंचीं महिलाओं के बीच भी महिलाओं की इतनी ही जरूरत देखी जा रही है। तो फिर शिंगणापुर की यह लड़ाई कहां तक पहुंचेगी? जब बाबूलाल गौड़ महिलाओं को घर तक सिमटे रहने का फरमान सुना रहे हैं उस समय देश की संसद में मौजूद महिलाएं कहां हैं? क्या सुषमा स्वराज और उमा भारती इसलिए चुप हैं कि उनकी पार्टी के बड़े नेता मानते हैं कि महिलाओं का घर में ही पूजा करना ठीक है।

क्या सोनिया गांधी इसलिए चुप हैं कि धर्म की बहस में पड़ कर एक खास वर्ग के गुस्से की शिकार न हो जाएं? और केरल की सरकार सबरीमला में औरतों के प्रवेश पर चुप्पी साध कर किस वोट बैंक को साध रही है, यह सब समझ रहे हैं।
यह पितृसत्ता का खेल ही है कि वह महिलाओं के दिमाग का इस तरह निर्माण करता है कि वे अपने ही अधिकार के खिलाफ काम करती हैं। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जिस मंदिर ट्रस्ट की अध्यक्ष एक महिला है, और वे मानती हैं कि महिलाओं को शनि मंदिर से दूर रहना चाहिए। वे त्रयंबेक्शवर ट्रस्ट के ज्यादातर मंदिर में चली आ रही 400 साल पुरानी परंपरा को ही निभाने के पक्ष में हैं। मामला अब महाराष्ट्र के युवा मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस के पाले में है। अब उनके फैसले पर ही सबकी नजर है।

तकलीफ तो यह भी है कि बहुत से धर्म संप्रदायों से जुड़े संगठनों के मुखिया की महिलाएं भी इस पर मौन हैं। या फिर कम से कम इसका मुखर विरोध नहीं कर रही हैं। चार सौ साल पहले जागरूकता का वह स्तर नहीं था कि महिलाएं पूछें कि जो काम पुरुष कर सकते हैं वे महिलाएं क्यों नहीं? दमन के कारण जो आवाज बंद थी उसके मुखर होने पर सवाल बेमानी है। अब यह समय है अंधकार को दूर करने का।
पुरुषप्रधान समाज का इससे क्रूर पक्ष क्या होगा कि पुरुषों का प्रवेश कहीं भी बाधित नहीं और न ही उनके इस अधिकार को ही कोई चुनौती है। महिलाओं की आस्था और भक्ति का क्षेत्र भी पुरुष तय करें और अगर वे अपनी मर्जी से अपने आराध्य के प्रति भक्ति दिखाएं तो उन्हें ‘कुलबोरनी’ का दर्जा मिले। मध्यकाल में मीरा को अपनी मर्जी से अपनी आस्था भी चुनने का अधिकार नहीं था, और अपनी भक्ति के कारण ही उन्होंने समाज का दमन झेला। अब आधुनिक काल में भी सत्ता का पूरा तंत्र शुरुआती दौर में तो तृप्ति देसाई के खिलाफ ही रहा। लेकिन तृप्ति के पास आधुनिक कानूनों का हथियार भी है जिससे वह अपनी लड़ाई आगे बढ़ा रही हैं।

और, हम यह भी जानते हैं कि इस पुरुषप्रधान समाज ने महिलाओं को घर और धर्म की चारदीवारी में जकड़ा है ताकि वे पुरुषों के वर्चस्व पर सवाल न उठा पाएं। आम तौर पर यही देखा गया है कि शनि या किसी भी भगवान या धर्मस्थान के प्रति महिलाओं की आस्था पुरुषों से ज्यादा प्रबल है। बहुत से पति ‘मासूमियत’ से बोलते मिलेंगे कि पत्नी के दबाव में हर छुट्टियों में किसी न किसी धर्मस्थान पर जाना पड़ता है। मंदिरों में महिलाओं की भीड़ पुरुषों से कहीं ज्यादा दिखाई देती है।

गुजरात से लेकर बिहार तक लगने वाले बाबाओं के सत्संग को देख लीजिए, महिलाएं ही उनके बाजार का आधार हैं। टीवी चैनलों पर दोपहर में जिन बाबाओं के दर्शन शुरू हो जाते हैं उनका लक्ष्य भी महिला दर्शक ही हैं। आस्था के बाजार का बड़ा आधार महिलाएं ही हैं। तर्क देनेवाले तो यह भी कह रहे हैं कि शनि महाराज को महिलाओं से भेदभाव छोड़ अपने ‘बाजार’ को विस्तार दे देना चाहिए। वैसे भी धर्म का बाजार बहुत से समझौते करना सीख चुका है।

धर्म बनाम बाजार की बहस के इतर शिंगणापुर के बहाने पितृसत्ता का नया चेहरा सामने आया है। संविधान में लिखे निर्देशों को भूल पुलिस और प्रशासन धर्मग्रंथों में लिखे उपदेशों को मनवाने पर तुल जाता है। जिस पुलिस पर जिम्मेदारी है महिलाओं को अधिकार दिलाने की, वही पुलिस अधिकारों का लिंगनिर्धारण कर रही है। और हमारा विरोध यहीं है। शिंगणापुर में पुलिस ने धर्म और समाज के तथाकथित ठेकेदारों का साथ देकर संविधान का अपमान किया। सबरीमला में भी वही परंपरा की दुहाई। शिंगणापुर मामले में शरद पवार कहते हैं कि ग्रामीणों को विश्वास में लेना होगा। हाईवे और हवाई अड्डे के लिए जबरन किसानों की जमीन लेने वाला प्रशासन महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए उनका दिल जीतने की बात करता है। सबरीमला हो या शिंगणापुर संविधान से ज्यादा मान्यताओं का पलड़ा भारी हो रहा है।
शनि तो देवता हैं, और उनमें इतनी ताकत होगी कि वे अपने मान-अपमान का बदला खुद ले सकें। हमारा संविधान हमसे ही टिका है और संविधान की रक्षा की एक लड़ाई शिंगणापुर से भी शुरू होती है। उम्मीद है कि अदालत में गया यह मामला संविधान के हक में होगा और लोग वहां से निकले आदेश पर धर्मग्रंथों जैसी आस्था दिखाएं तो हमारे समाज को नया लोकतांत्रिक आयाम मिलेगा।