बिहार की बारहवीं की टॉपर राजनीति विज्ञान को ‘प्रोडिगल साइंस’ कह कर बताती हैं कि इस विषय में खाना बनाना सिखाया जाता है। वहीं गुजरात के सरकारी स्कूल में गणित में 90 से 95 फीसद लाने वाले दसवीं के बच्चे जांच समिति के सामने मामूली दो अंकों का जोड़-घटाव नहीं कर पाए। इनमें से बहुत से बच्चों को यह नहीं पता था कि त्रिकोण में कितने कोण होते हैं या इसकी आकृति कैसी होती है। कुछ बच्चों ने तो बहुत ईमानदारी से उत्तर पुस्तिका पर लिखा, ‘नहीं पता’। ‘वाइब्रेंट गुजरात’ में महज ऐसे 500 बच्चों पर जांच समिति की नजर पड़ी है। मध्य प्रदेश में तो व्यापमं घोटाले में व्यापा मौन रहा ही है। बिहार से लेकर गुजरात तक प्राथमिक, माध्यमिक और हाई स्कूल शिक्षा खस्ताहाल है। सरकारों के एजंडे में स्कूली शिक्षा अंतिम पायदान पर भी क्यों नहीं है इसी सवाल से जूझता इस बार का बेबाक बोल।
कार्ल मार्क्स कहते हैं कि हम अपना इतिहास अपनी मर्जी और अपने चुने हुए हालात में नहीं बनाते। हम अपना इतिहास पहले से अस्तित्वमान अतीत द्वारा दी हुई और हस्तांतरित स्थितियों में बनाते हैं। बिहार में ‘सुशासन बाबू’ के राज में गिरफ्तारी होती है एक किशोरी की। वह डरी-सहमी किशोरी कहती है, ‘हमने तो पापा को कहा था कि सेकेंड डिवीजन से पास करवा दीजिए, उन्होंने तो टॉप ही करवा दिया’। क्या रूबी का ‘टॉपर’ होना सिर्फ उसी की मर्जी थी। गुजरात में नब्बे फीसद तक अंक लाने वाले दसवीं के जो बच्चे मामूली जोड़-घटाव तक नहीं कर पाते हैं उनके लिए कौन जिम्मेदार है?
बिहार में बारहवीं के नतीजों की घोषणा के दिन जो रूबी कुमारी इसलिए सुर्खियों में थी कि उसने सबसे ज्यादा नंबर के साथ टॉपर होने का तमगा हासिल किया था, वह अब देश और दुनिया की नजरों में खलनायिका है। एक ऐसी पात्र, जिस पर गुस्सा किया जा सकता है, जिससे नफरत की जा सकती है, जिस पर हंसा जा सकता है, जिस पर चुटकुले बनाए जा सकते हैं। एक नाबालिग किशोरी, जिसका अपने जीवन पर तो दूर, अपने हंसने-रोने तक पर अख्तियार नहीं होगा, उसकी दिनचर्या और सोचने-समझने तक का सलीका और तरीका परिवार, समाज और व्यवस्था के तौर पर दूसरे तय करते होंगे, वह अब सब ‘प्रबुद्ध’ और ‘संवेदनशील’ लोगों के निशाने पर है, मीडिया की नजर में वह इस दुनिया को भ्रष्ट करने का तत्त्व है और प्रशासन की निगाह में जेल में बंद कर देने के लायक। यह सब इसलिए कि उस दुनिया का चेहरा छुपा रहे, जो ‘रूबियां’ तैयार करता है।
इस रास्ते टॉपर होने की स्थितियों को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन रूबी कुमारी से सहानुभूति रखना न केवल एक संवेदनशीलता की मांग है, बल्कि जो भी व्यक्ति इस समाज, तंत्र, सरकारी व्यवस्था और अब मीडिया के चरित्र को समझता है, वह रूबी कुमारी पर उंगली उठाने से पहले इन सबको कठघरे में खड़ा करेगा। जिस लड़की की पढ़ाई-लिखाई इसी स्तर तक पहुंच सकी कि वह बारहवीं की परीक्षा में बैठ कर भी अपने विषय का सही उच्चारण नहीं कर पाती, क्या उसके लिए सिर्फ वह जिम्मेदार है? वे कौन-सी वजहें हैं कि पिछले कई सालों से लगातार ‘प्रथम’ जैसे दूसरे संगठनों और खुद सरकारी अध्ययनों में भी एक तरह के नतीजे सामने आ रहे हैं कि पांचवीं-छठी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे पहली या दूसरी कक्षा की किताब भी ठीक से नहीं पढ़ पाते? स्कूलों की हालत, बुनियादी सुविधाओं की दशा, शिक्षकों की तादाद, उनके पढ़ाने के स्तर, शिक्षकों की नौकरी के हालात, शिक्षा और शिक्षण की गुणवत्ता की दयनीय हालत, शिक्षण में प्रयोग के स्तर पर भयानक गरीबी और शिक्षकों के प्रशिक्षण के मामले में एक जड़ व्यवस्था की आबोहवा में अगर परीक्षा के नतीजे के नंबर ही एक बच्चे के होने या नहीं होने के पैमाने के तौर पर देखा जाने लगे तो किसी अभिवावक या रूबी कुमारी का इस रूप में सामने आने पर हैरानी जताना क्या हमारी सोच की सीमा को नहीं दर्शाता है?
इसके बरक्स एक दूसरी स्थिति है। पैसे से नंबर या डिग्री हासिल करने का यह खेल एक दूसरे पर खेला जा रहा है, लेकिन हमारे इस कथित सभ्य और जागरूक समाज और मीडिया के लिए एक ‘स्वीकार्य’ व्यवस्था है। मेडिकल या इंजीनियरिंग के कोर्सेज में निजी कॉलेजों का एक समूचा समांतर तंत्र खड़ा हो गया है, जिसमें अगर किसी के पास दस-बीस या चालीस-पचास लाख रुपए हैं तो वह जानकारी के स्तर पर भले ही रूबी कुमारी के ‘प्रोडिगल साइंस’ के बराबर हो, लेकिन मेडिकल या इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के बाद उससे कोई नहीं पूछता कि अपनी परीक्षा में पूछे गए सवालों का जवाब ‘जनता’ को बताओ!
सवाल यह नहीं कि रूबी नकल कर टॉपर बनी या पैरवी के जरिए उसने यह मुकाम हासिल किया। सवाल यह होना चाहिए कि आखिर वह व्यवस्था कहां से आई जहां नकल करने की इजाजत मिल जाती है या पैरवी करने की गुंजाइश बन जाती है। इस सवाल का विस्तार मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाले की समूची प्रक्रिया और ब्योरे में दिखता है। हमें फैसले का इंतजार करना चाहिए, फिर देखा जाना चाहिए कि रूबी कुमारी का ‘टॉपर घोटाला’ इन सबके सामने कहां ठहरता है!
यह समूचा मामला इस बात का ‘टेस्ट केस’ है कि हमारा समाज, मीडिया और सरकार अपने पाखंड को छिपाने के लिए, अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने के लिए कैसे एक निशाना खोज कर उसके खिलाफ बर्बरता की हद तक जा सकते हंै। एक लड़की, जिसकी परीक्षा के नतीजे के लिए अकेले वह नहीं, उसका परिवार, यह समाज, सरकार और उसकी व्यवस्था जिम्मेदार है, उसके खिलाफ अधिकतम स्तर तक बेरहम होकर उसकी खिल्ली उड़ाए जाने से लेकर तमाम नैतिकताओं और कानूनी तकाजों को ताक पर रख कर उसे जेल तक में बंद कर देने की तस्वीर एक ताली पीटने नहीं, एक अधकचरी सोच, देश के बाकी हिस्सों की ऐसी हरकतों और अपनी नाकामी पर परदा डाल कर संतोष करने का मामला है।
इस बात पर भी हैरत नहीं की जानी चाहिए कि नीतीश कुमार ऐसे जाहिर कर रहे हैं जैसे उन्हें पहली बार पता चला हो कि उनके ‘सुशासन’ में नकल हो रही है। उनके साथी मंत्री का कहना है कि अपराध क्या सिर्फ बिहार में ही होते हैं। बिहार के हालात को तो बस बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है। संदर्भ चाहे अलग हो, अपराध का हो, उसका मतलब यही है कि जो गलत काम बिहार में हो रहे हैं, वे बाकी राज्यों में भी हो रहे हैं तो बिहार पर ही चीख-पुकार क्यों?
किसी भी प्रदेश का निजाम यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता कि दूसरे भी तो गलती कर रहे हैं। लेकिन नीतीश कुमार के मंत्रियों, वरिष्ठ साथियों को यही सबसे आसान रास्ता दिखा। साफ बचके निकल जाने का। बिहार के टॉपर देश भर में शिक्षा की बिगड़ती स्थिति का प्रतीक बन गए और उसके साथ केंद्र में आ गई सरकार। टॉपरों ने जो किया वह बिहार में ज्यादातर परीक्षा केंद्रों पर हो रहा था। और देश के सभी चैनलों पर इसकी मुंह बोलती तस्वीर पेश की जा रही थी। हां, ‘सुशासन’ के लंबे हल्ले के बाद हम तो यह पूछ ही सकते हैं कि क्या सुशासन के एजंडे में शिक्षा अंतिम पायदान पर भी नहीं है।
जिन तीन टॉपरों को लेकर विवाद था उनकी फिर से परीक्षा ली गई। फेल हो गए तो उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज कर दिए। अब सवाल है कि क्या बिहार में उन तीन छात्रों ने ही नकल की? यदि नहीं तो फिर सजा इन तीन को ही क्यों? क्या नकल के लिए यही तीनों जिम्मेदार थे? यदि नहीं तो फिर ये तीन ही क्यों? क्या इनके मददगार दोषी नहीं? क्या शिक्षा की समूची व्यवस्था चलाने वाला महकमा दोषी नहीं? बच्चों को ‘योग्य’ बनाना ‘सुशासन’ के एजंडे में क्यों नहीं है? हम सभी जानते हैं कि देश के कई राज्यों में माध्यमिक शिक्षा भ्रष्टाचार का बड़ा अड्डा बन गई है।
नीतीश सरकार अगर चाहती तो इस सारे मामले में इससे बेहतर उदाहरण पेश कर सकती थी। फिर से परीक्षा के नाटक की तो जरूरत ही नहीं थी। अगर इन तीन बच्चों के कैमरे पर जवाब देखने के बाद भी सरकार को लगता था कि ये पास हो जाएंगे तो फिर क्या कहा जा सकता है। इस सारे मामले में धांधली पहले दिन से ही तय थी। जो पूरे देश को तो दिखाई दे रही थी, लेकिन नीतीश सरकार को नहीं। बेहतर होता कि सरकार पूरे मामले की पहले ठोस जांच करवाती और फिर एक तार्किक परिणाम पर पहुंचती। लेकिन तार्किक नतीजे पर पहुंचना हमारी राजनीति का एजंडा रहा कहां है?
पिछले दो दशकों में तो बिहार भ्रष्टाचार का प्रतीक चिह्न बन गया है। भर्ती में भ्रष्टाचार के लिए राज्य ने नए आयाम तय किए। स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती कागजों पर होती रही, कक्षाओं से वे नदारद रहे। ऐसा भी समय था कि 100 में से 40 शिक्षक अपनी कक्षाओं से गायब रहते और इनमें से कई तो अपने राजनीतिक आकाओं के पास ही अपनी हाजिरी भरते। प्रदेश में शिक्षकों की योग्यता का आलम तो यह रहा कि नेशनल युनिवर्सिटी आॅफ एजुकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक हालिया सर्वेक्षण में प्रदेश के 20 फीसद से भी ज्यादा शिक्षकों की डिग्री पर सवाल उठे हैं। क्या इन शिक्षकों को भर्ती करने वालों का कोई दोष नहीं?
बिहार हो या कोई अन्य प्रदेश, जहां तक सरकारी स्कूलों का सवाल है तो राजनीतिक कारणों से ये स्कूल खोले जाते हैं और फिर बीच भंवर में छोड़ दिए जाते हैं। बिहार के गांवों में सरकारी स्कूलों में आंतरिक ढांचा पूरी तरह से चरमराया हुआ है। कंप्यूटर का तो सवाल ही नहीं, कई स्कूलों में चॉक और ब्लैकबोर्ड भी नहीं हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां शिक्षकों को नियमित तौर पर तनख्वाह भी नहीं मिल रही। गांव में लोगों में तंगी का आलम ऐसा है कि वे अपने बच्चों को स्कूल के बजाय काम पर भेजने में विश्वास रखते हैं। यहां जागरूकता के नाम पर सरकार के खाते में शून्य ही है। लोगों का यह मानना भी है कि बच्चा पढ़ भी गया तो उसे रोजगार कहां मिलेगा। नौकरियों में भी तो पूरी धांधली है।
लिहाजा समय आ गया है कि शिक्षा के मुद्दे पर समग्रता से विचार हो और जो भी कार्रवाई की जाए वह महज नकल रोकने की कवायद तक ही सीमित न रहे। ऐसे में सरकार को तय करना होगा कि स्कूलों में न सिर्फ शिक्षक हों वरना सही तरीके से योग्यता परख कर लिए गए शिक्षक हों। शिक्षा राजनीति को समझने के लिए हो, राजनीति का हथियार बनने के लिए न हो। बिहार और देश के कई प्रदेशों का यह कड़वा सच बजरिए मीडिया ही सबके सामने आया। मीडिया और राजनीतिक दलों ने बिहार के ‘मैले रूप’ को लक्ष्य कर जिस तरह से इससे निपटने की कोशिश की उससे सिर्फ मुद्दे का सरलीकरण हुआ। और जाहिर सी बात है कि इससे समाधान भी एक सरलीकृत रूप में ही आया है।
यह कहना न होगा कि मीडिया से ही प्रभावित होकर और मीडिया के जरिए हल निकालने के लिए रूबी राय की गिरफ्तारी का शर्मनाक कदम उठाया गया।
जो समस्या सरकारी मशीनरी के फेल होने के कारण पैदा हुई है उसका यह मीडिया समाधान भी एक बड़ी चिंता पेश करता है। छवि सुधार के राजनीतिक टोटके के लिए हास्यास्पद रूप से टॉपर्स के फिर से इंटरव्यू लिए गए। सरकार कह रही है कि वह परीक्षा के पैटर्न में बदलाव करेगी। एक बहुत ही गंभीर सवाल को गैरजिम्मेदाराना तरीके से हल करने का अभियान शुरू हो गया है। मीडिया और सियासत ने मिल कर एक किशोरी को समाज में जीवन भर के लिए गुनहगार बना दिया है। उसके वर्तमान से लेकर भविष्य तक को चौपट कर दिया गया है। उसे इस हालत में पहुंचा दिया गया है कि शायद उसके लिए फिर से उठना बहुत मुश्किल होगा। और वह खुद तो ऐसा नहीं ही चाहती होगी। उसे तो सिर्फ सेकेंड डिवीजन चाहिए था, किसी ने ढंग से पढ़ाया नहीं, तो पढ़ नहीं पाई। इसमें उसका क्या कसूर। भारत जैसे जनतांत्रिक देश में एक सामंती समस्या के निदान के लिए उससे भी ज्यादा सामंती कदम उठाए गए। और इससे तो विकास के दौड़ में पीछे छूट गए राज्य और वहां के लोगों का दामन और मैला ही होगा।