कहा जाता है कि चुनाव लोकतंत्र का पर्व है। रूढ़ हो चुके इस कथन को ज्यों का त्यों मान लें, तब भी दो बातें कहना जरूरी है। एक यह कि चुनाव होते रहें, बस यही लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र और भी बहुत कुछ है: अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार, विविधता का सम्मान, सौहार्द आदि। इन कसौटियों पर भारत का लोकतंत्र आज कहां खड़ा है? फिर यह सवाल भी जरूर पूछा जाना चाहिए कि चुनाव के पर्व को हम कैसे मनाते हैं? किसी पर्व को पर्व की गरिमा उसे मनाने वालों के खरे व्यवहार से मिलती है, इसी तरह खोटे व्यवहार से पर्व की गरिमा नष्ट हो जा सकती है। यह बेहद अफसोसनाक है कि हमारे देश में चुनाव-प्रचार का स्तर गिरता जा रहा है। किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने के फेर में सारी मर्यादाएं ताक पर रख दी जाती हैं। न भाषा का खयाल रहता है न लहजे का। आरोप लगाने की कोई सीमा नहीं रहती। ओछे और अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप सोशल मीडिया के इस जमाने में देखते-देखते लाखों ही नहीं, करोड़ों लोगों तक पहुंच जाते हैं। अवांतर प्रसंग और अप्रासंगिक बातें इस तरह उठाई और फैलाई जाती हैं कि असल मुद्दे किनारे हो जाते हैं। इस सिलसिले में और भी कई चुनावों के उदाहरण दिए जा सकते हैं, पर गुजरात के विधानसभा चुनाव में यह कुछ ज्यादा ही हुआ है।
बरसों से ‘गुजरात मॉडल’ की चर्चा की वजह से इस चुनाव में राज्य के विकास और आम लोगों से जुड़े मुद्दे चुनाव को परिभाषित करने वाले मुद्दे होने चाहिए थे। यों ये मुद्दे उठते रहे, पर अप्रासंगिक बातों को लेकर ज्यादा चर्चा हुई। एक मंदिर के रजिस्टर में राहुल गांधी के नाम के आगे कौन-सा धर्म लिखा था, किसने वह दर्ज कर दिया से लेकर राहुल के जनेऊधारी होने की जो चर्चा चली, उसका क्या औचित्य था? इसी तरह चुनाव प्रचार में बाबर और औरंगजेब को लाने और फिर पाकिस्तान को घसीटने का क्या मतलब था? क्या चुनाव प्रचार का यह स्तर हमारे लोकतंत्र के अच्छे दिन आने का भरोसा दिला सकता है? विडंबना यह है कि गुजरात से ताल्लुक रखने वाले मसलों से ध्यान बंटाने की कोशिश सबसे ज्यादा खुद प्रधानमंत्री ने की, जबकि गुजरात उनका गृहराज्य है और वहां के बारे में वे अन्य राजनेताओं से ज्यादा जानते हैं। शायद ही इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने किसी एक राज्य के चुनाव में अपना इतना समय और इतनी ऊर्जा लगाई होगी।
इस चुनाव में प्रधानमंत्री की बेहद सक्रियता और इतनी ज्यादा मौजूदगी से चुनाव प्रचार का स्तर, अन्य चुनावों के मुकाबले, ऊंचा होना चाहिए था। पर हुआ इस अपेक्षा से भिन्न। सवाल दूसरों पर भी उठते हैं। कांग्रेस के एक नेता ने प्रधानमंत्री पर घोर आपत्तिजनक टिप्पणी की। पर उनके सार्वजनिक रूप से माफी मांग लेने और प्राथमिक सदस्यता से उन्हें निलंबित करने के पार्टी के फैसले के बाद भी उसे तूल देने, जातिपरक रंग देने और फिर चुनाव प्रचार में पाकिस्तान-प्रसंग का क्या औचित्य था? विडंबना यह है कि पाकिस्तान कार्ड खेलने के लिए एक ऐसी बैठक पर भी सवाल उठाए गए जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सेना के एक पूर्व जनरल भी मौजूद थे। हर चुनाव में किसी की हार किसी की जीत होती है। पर हमारे लोकतंत्र की दशा-दिशा का अंदाजा नतीजों से नहीं, चुनाव के मुद््दों, बहस के स्तर और चुनाव लड़ने के तौर-तरीकों से ही लगाया जा सकता है।