ब्रह्मदीप अलूने
नक्सली हिंसा से कई दशक तक जूझने के बाद भी सरकारें नक्सल नीति की दिशा तय करने की चुनौतियों से जूझ रही हैं। यह अभी भी साफ नहीं हो पाया है कि नक्सलवाद की समस्या का समाधान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रयासों में है या फिर कानून और व्यवस्था से जुड़ा मामला है। नक्सलवाद के अंतर्गत आने वाले लाल गलियारे की हिंसा पिछले पांच दशकों से जारी है। देश के इक्कीस राज्यों के लगभग ढाई सौ जिलों को प्रभावित करने वाला नक्सलियों का यह इलाका आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। इन इलाकों में अपहरण, फिरौती, डकैती, बम विस्फोट, निर्ममता से हत्याएं, अवैध वसूली, विकास को बाधित करने की कोशिशें, लोकतांत्रिक सत्ता को उखाड़ फेंकने की इच्छा और समांतर सरकार चलाने की हिमाकतें होती रही हैं।
देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बने नक्सलियों को राज्य और केंद्र सरकारें अक्सर चुका हुआ घोषित करने की गलती करते रही हैं और हमेशा इसका जवाब बेहद कायराना मिलता रहा है। 25 मई 2013 को जीरम घाटी में हुए नक्सली हमले ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। नक्सलियों ने कांग्रेस नेताओं की परिवर्तन रैली पर आत्मघाती हमला कर दिया था, महेंद्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल जैसे वरिष्ठ नेताओं सहित तीस से ज्यादा कांग्रेसी मारे गए थे। आजाद भारत के इतिहास में नेताओं को निशाना बनाने का यह सबसे वहशियाना कृत्य था। नक्सलियों ने नेताओं को जिस बेरहमी से मारा उससे लोकतंत्र के प्रति उनकी नफरत का पता चलता है। इसके पहले छतीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में सबसे बड़ा नक्सली हमला 6 अप्रैल 2010 को हुआ था, जिसमें छिहत्तर जवान शहीद हो गए थे।
बड़ी संख्या में नक्सलियों ने जवानों को चारों ओर से घेर कर उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाई थीं। साल 2009 में कोलकाता से ढाई सौ किलोमीटर दूर लालगढ़ जिले पर नक्सलियों के कब्जे का घटनाक्रम भी हैरान कर देने वाला था। माओवादियों ने इस इलाके को कब्जे में लेकर स्वतंत्र घोषित कर दिया था, जिसके बाद कई महीनों तक संघर्ष चला और आखिरकार सुरक्षा बल इस विद्रोह को दबाने में कामयाब रहे थे। दरअसल, सामाजिक न्याय की स्थापना के नाम पर अस्तित्व में आई नक्सल विचारधारा अब हिंसा, रक्तपात और वैधानिक सत्ता के खिलाफ काम करने वाला ऐसा संगठन बन गया है जिसमें खूनी विद्रोह को स्वीकार कर लिया गया है।
भारत, नेपाल और बांग्लादेश की सीमा पर स्थित नक्सलबाड़ी में भूस्वामियों के खिलाफ संथालों ने तीर कमान लेकर जिस असमानता के खिलाफ हिंसक रुख अपनाया था, उसका बड़ा और हिंसक रूप देश के कई भागों में लगातार देखने को मिलता है। सन 1967 में ही आॅल इंडिया कमेटी ऑन कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी का गठन किया गया था, जिसमें पश्चिम बंगाल, ओड़िशा आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, केरल और जम्मू-कश्मीर के नेता शामिल हुए थे और उन्होंने संगठन को मजबूत करने, सशस्त्र संघर्ष चलाने और गैर संसदीय मार्ग अपनाने का निर्णय लिया। इससे साफ था कि वंचितों, गरीबों और शोषितों के हितों के नाम पर स्थापित संगठन ने लोकतंत्र की वैधानिक व्यवस्था को चुनौती देते हुए हिंसक और अलोकतांत्रिक रास्ता चुना।
आजादी के बाद जब देश बड़े बदलावों के लिए तैयार हो रहा था और सरकारें भूदान, योजना आयोग, पंचवर्षीय योजनाएं, पंचायती राज और अन्य लोक कल्याणकारी कार्यों से देश का पुनर्निर्माण करने को संकल्पबद्ध थीं, तभी नक्सलवाद का उदय होना शुरू हो चुका था जो हिंसक विचारधारा को पोषित करने वाला था। सन 1969 में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर नामक हिंसक समूह की स्थापना से यह साफ हो गया था कि नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। इसका प्रभाव दक्षिण में भी हुआ और वहां पर भू स्वामियों के विरुद्ध हिंसक आंदोलन के लिए 1980 में पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्लूजी) की स्थापना की गई। इस समय नक्सलवाद का प्रभाव स्थानीय रूप से बढ़ रहा था और उसमें मजदूर और गरीब लोगों को शामिल करने के प्रयास किए जा रहे थे। यह भारत के लिए राजनीतिक तौर पर अस्थिरता और क्षेत्रीय दलों के उभार का भी समय था।
इस समय माकपा भी अस्तित्व में आ चुकी थी जो लोकतंत्र में भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना चाहती थी। 1977 के बाद भाकपा ने माकपा और दूसरी छोटी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ मिल कर वाम मोर्चे का गठन किया। व्यावहारिक तौर पर केरल सहित अधिकांश जगहों पर यह पार्टी माकपा के एक छोटे सहयोगी दल में बदल गई। पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में वाम दल सत्ता में आए भी। नक्सलवाद की हिंसक विचारधारा को भी राजनीतिक कारणों से स्थानीय समर्थन मिलने से यह समस्या बढ़ती गई। नक्सलियों ने पुलिस और अर्धसैनिक बलों को निशाना बना कर नब्बे के दशक में इसे देश की बड़ी आंतरिक चुनौती बना दिया। नक्सलियों ने बुनियादी रूप से पिछड़े हुए सुदूरवर्ती और भौगोलिक रूप से कटे इलाकों पर अपना प्रभाव कायम किया।
भारत सरकार ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए इससे निपटने के लिए ‘ग्रे हाउंड्स’ और ‘कोबरा’ जैसे बल तैयार किए। नक्सलियों के सफाए के लिए ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया गया। यूपीए शासनकाल में नक्सलियों पर त्वरित कार्रवाई और समेकित कार्रवाई योजना जैसी रणनीतियां बनाई गईं। बाद में नक्सल विरोधी अभियान और नक्सल प्रभावित इलाकों के लिए संचार माध्यमों को विकसित करने और आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को भत्ते देने के लिए सुरक्षा संबंधी खर्च की योजना बनाई गई। इस योजना के तहत यह भत्ता केंद्र सरकार राज्यों को देती है। इसके तहत नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात सुरक्षा बलों और थानों के लिए भी धन का आबंटन किया जाता है।
नक्सली हमलों की कड़ी चुनौती के बीच आठ मई 2017 को माओवादी हिंसा से प्रभावित दस राज्यों में एकीकृत कमान के गठन की पहल करते हुए सभी राज्यों की साझा रणनीति बना कर एक आठ सूत्रीय समाधान तैयार किया गया। इसके अंतर्गत कुशल नेतृत्व, आक्रामक रणनीति, प्रशिक्षण, कारगर खुफिया तंत्र, कार्ययोजना के मानक, कारगर प्रौद्योगिकी, प्रत्येक रणनीति की कार्ययोजना और वामपंथी उग्रवाद के वित्त पोषण को विफल करने की रणनीति को शामिल करने की जरूरत बताई। इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि नक्सलवाद से निपटने की सरकारी योजनाओं और उनके क्रियान्वयन में गहरा फर्क देखने को मिला। छत्तीसगढ़ में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए पुलिस की पुनर्वास नीति के अंतर्गत वादे तो बेहद लुभावने किए गए, जबकि नीतियों को लागू करने में नाकामी छिपी नहीं है। सरकार आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों में से दस फीसद को भी अब तक रोजगार देने में नाकाम रही।
नक्सलवाद की समाप्ति के लिए केंद्र और राज्य विकास को अपना ध्येय बनाने का दावा करते हैं, प्रभावित इलाकों को भारी भरकम मदद भी दी जाती रही है, लेकिन जमीनी हालात में कोई बदलाव नजर नहीं आता। बस्तर के कई इलाके आज भी बिजली, पानी और सड़क के महरूम हैं और स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर ग्रामीणों की निर्भरता नक्सलियों पर बनी रहती है। यह भी बेहद दिलचस्प है कि माओवादी हिंसा से प्रभावित राज्यों में पुलिस बलों के आधुनिकीकरण के लिए केंद्र सरकार ने पिछले चार सालों में सबसे अधिक बजट का आबंटन उत्तर प्रदेश को किया है, छत्तीसगढ़ को इसके मुकाबले छह गुना कम बजट का आबंटन चौंकाने वाला है।
इस समय देश के साठ फीसद राज्य नक्सलवाद से प्रभावित हैं। इन राज्यों में कहीं नक्सली हमलों की तीव्रता ज्यादा है तो कहीं पर कम। नक्सलियों के लिए पिछड़े इलाके मुफीद माने जाते हैं, इसलिए सरकार को पिछड़े क्षेत्रों में विकास और आदिवासियों के बीच विश्वास बहाली के उपाय करने की जरूरत है। साथ ही प्रभावित इलाकों में उचित आबंटन, सेना का आधुनिकीकरण और हथियार डालने वालों का पुनर्वास जैसी नीतियों पर लगातार काम कर नए नक्सलियों की नई पौध को रोका जा सकता है।

