नीकु के व्यक्तित्व की यों तो कई खासियत हैं। नीकु यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। सबसे बड़ी एक खासियत तो यही है कि अपनों को संकट से उबारने में वे कभी पीछे नहीं हटते। संकटमोचक बन जाते हैं अवसर आने पर। अपने करीबियों को अक्सर समझाते हैं कि बोलते समय चौकस रहना चाहिए। ऐसे शब्द या वाक्य के इस्तेमाल से बचना चाहिए जो अर्थ का अनर्थ कर दे। यानी सोच-समझ कर ही बोलने की सलाह देते हैं नीकु। अपनी बात को सलीके से भी रखा जा सकता है। पर करीबी तो करीबी ठहरे। मुख्यमंत्री के करीबी को सत्ता का गुमान भला कैसे न हो। वे नीकु की बात सुनते तो हैं पर अमल कम ही करते हैं। तभी तो अपने एक करीबी के कारण नीकु को विधानसभा परिषद में माफी मांगनी पड़ी। दरअसल विपक्ष के एक नेता की हत्या हुई थी। नीकु के एक करीबी ने ऐसी बात कह दी कि अर्थ का अनर्थ हो गया। विरोधियों ने इस नेता से माफी मांगने की मांग कर दी। पर नीकु के करीबी भला माफी क्यों मांगते? फिर सत्ता पक्ष कमजोर तो है भी नहीं कि विपक्ष से दबे। विपक्ष के नेता सुमो यानी सुशील मोदी ने नीकु को जन्मदिन पर बधाई दी। फिर अच्छे माहौल का हवाला देते हुए नीकु के करीबी की आपत्तिजनक टिप्पणी का उल्लेख कर दिया। नीकु ताड़ गए। बड़प्पन दिखाया। करीबी से माफी मांगने के लिए तो नहीं कहा पर उसकी तरफ से खुद जरूर खेद जता दिया। फिर तो सुमो और दूसरे विरोधी संतुष्ट होते ही। विरोधियों के प्रति सहिष्णुता जता कर नीकु ने अपने करीबी को भी तो संकट से उबार लिया।
कुछ नहीं बदला
मुहावरा है- नौ दिन चले अढ़ाई कोस। पर राजस्थान की भाजपा सरकार के मंत्रियों की आपसी खटपट पर इस मुहावरे को भी फिट नहीं कर सकते। आखिर ढाई साल पुरानी सरकार में एक कदम भी तो नहीं बदले मंत्री। सरकार का रिपोर्ट कार्ड भी करीबन कोरा ही दिखता है। फिर क्यों सरकार की जनता में छवि बनती। मंत्रियों की कार्यशैली से भाजपाई भी खुश नहीं। हालांकि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपने मंत्रियों को लगातार नसीहत की घुट्टी पिलाती रहीं कि सुधर जाओ। असर किसी पर कुछ नहीं हो रहा। शिकायतें आलाकमान तक भी पहुंची हैं। इस चेतावनी के साथ कि नतीजे अगले चुनाव में दिल्ली और राजस्थान की याद ताजा करा देंगे। कामकाज पर ध्यान देने के बजाए हर मंत्री की दिलचस्पी मुख्यमंत्री का दरबारी बनने में लगती है। इसी चक्कर में एक दूसरे से तनातनी भी होती है। चिकित्सा मंत्री राजेंद्र राठौड़ अब वसुंधरा के चहेते नहीं रहे। यह हैसियत तो परिवहन मंत्री यूनूस खान और कृषि मंत्री प्रभुलाल सैनी की लगती है। यह बात अलग है कि इन दोनों में रत्ती भर नहीं पटती। टोंक के बाशिंदे सैनी झालावाड़ की बारां सीट से विधायक हैं। टोंक में मुख्यमंत्री एक समारोह में शिरकत करने पहुंची थीं। सैनी ने वहां युनूस खान की खासी खबर ले ली। जिले की खस्ताहाल सड़कों के मामले में परिवहन मंत्री सैनी की शिकायत मुख्यमंत्री से कर डाली। मुख्यमंत्री ने उन्हें खान से बात करने की सलाह दी तो सैनी तपाक से बोले कि नागौर और झालावाड़ के अलावा कुछ दिखता ही नहीं युनूस को। झालावाड़ मुख्यमंत्री का और नागौर युनूस का जिला ठहरा। युनूस भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। वे अब सैनी की सेवा में जुट गए हैं। जयपुर की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। जयपुर से कैबिनेट में तीन मंत्री हैं। तीनों का ओहदा कैबिनेट मंत्री का ठहरा। चौथे अशोक परनामी पार्टी के सूबेदार हैं। इसके बावजूद गुलाबी नगरी की बदहाली किसी से नहीं छिपी है। विकास के नाम पर कुछ भी तो नहीं हुआ ढाई साल में। जबकि कांग्रेस के राज में जयपुर की कायापलट गई थी। बेचारे मंत्रियों को देखो तो सनातन शिकायत करते हैं कि अफसर उन्हें तवज्जो ही नहीं देते। वे तो सीधे मुख्यमंत्री दफ्तर से नाता रखते हैं।
सियासी मौकापरस्ती
वाम मोर्चे और कांग्रेस के बीच चुनावी गठबंधन की चर्चा अब जोर पकड़ चुकी है। हालांकि कांग्रेस की फितरत को लेकर माकपा के सहयोगी दलों को अभी आशंका है। पश्चिम बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस का पल्लू पकड़ा था। वाम मोर्चे के नेता यह टीस लिए फिर रहे हैं कि सिंगुर और नंदीग्राम के अलावा लगातार सात बार राज करने वाले वाममोर्चे की सत्ता से बेदखली में कांग्रेस की भूमिका भी कम नहीं थी। कांग्रेस ममता बनर्जी के आगे ताता थैया करती नजर आई थीं। मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद खूब अपमानित भी हुई थीं। फिर वाममोर्चा तो अरसे तक कांग्रेस को उखाड़ने की लड़ाई लड़ता रहा। यह बात अलग है कि केंद्र में पहली बार यूपीए सरकार सत्ता में आई तो मोर्चे ने उसे बाहर से समर्थन भी दिया था। अमेरिका से हुए परमाणु समझौते के मुद्दे पर हालांकि यह समर्थन वापस भी ले लिया था। पिछले विधानसभा चुनाव में माकपा ने यह पुराना हिसाब चुकता भी कर लिया। पर उससे फायदा क्या हुआ? मौजूदा हालात में तो हकीकत वाममोर्चे को कांग्रेस से दोस्ती के लिए मजबूर कर रही है। आरएसपी को कांग्रेस के धर्म निरपेक्ष होने पर संदेह है, तो रहे। बेशक माकपा ने उसके संदेह को खारिज किया है। बुधवार को उसने साफ कहा कि कांग्रेस एक लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष पार्टी ठहरी। उस पर संदेह क्यों किया जाए? माकपा के सुजन चक्रवर्ती ने तो आरएसपी के एतराज से ही अनभिज्ञता जता दी। गठजोड़ के सवाल पर आरएसपी के नेता यही कह रहे हैं कि उन्हें कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष पार्टी नहीं लगती। गठबंधन से पहले तो यह जानना जरूरी है कि कांग्रेस की नीति क्या है? पहले उसने तृणमूल कांग्रेस से गठबंधन किया था। क्या इस बार उसका रुख बदला है। अभी तो सीटों के बंटवारे का पेच भी फंस सकता है। वाममोर्चा नेता जहां कांग्रेस को 70 से ज्यादा सीटें देने के मूड में नहीं लगते। वहीं कांग्रेस ने 90 सीटों पर दावेदारी ठोंकी है।
खेल का सवाल
सियासी झगड़ा अपनी जगह ठहरा। हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने बड़प्पन दिखाया है। खेल को सियासी जंग से अलग रखने के मूड में हैं। तभी तो धर्मशाला में टी-20 मैच होने की उम्मीद जगी है। हिमाचल क्रिकेट एसोसिएशन कराएगी यह मैच। पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के सांसद पुत्र अनुराग ठाकुर हैं उसके मुखिया। बीसीसीआइ के सचिव भी हैं। बड़ा दिल दिखाते हुए वीरभद्र ने शिमला में अनुराग से मुलाकात कर फरमाया कि वे मैच के विरोधी नहीं हैं। दुविधा पूर्व सैनिकों ने बढ़ाई है। वे अगर विरोध करेंगे तो सूबे की पुलिस उन पर बल प्रयोग नहीं कर पाएगी। लिहाजा बेहतर हो कि अनुराग जाकर शहीदों के परिवारजनों को मनाएं। उनकी एसोसिएशन से बात करें। शहीदों के लिए तो धूमल ने अपने राज में काफी कुछ किया था। इस नाते अनुराग ठाकुर के लिए उन्हें मनाना ज्यादा मुश्किल न हो। बेशक पूर्व सैनिक लीग के मुखिया विजय सिंह मनकोटिया अभी नखरे दिखा रहे हैं। आपरेशन बलिदान चलाने का दावा किया है। विरोध करो और मरो पर मैच मत होने दो है उनका नारा। दस मार्च को धर्मशाला में अपनी रणनीति का एलान करेंगे। जाहिर है कि मकसद शहीदों से सरोकार कम अपनी सियासत को चमकाना ज्यादा लगता है। हालांकि धूमल बात करेंगे तो मनकोटिया मन बदलने में देर भी नहीं लगाएंगे। बीसीसीआइ खुद भले मैच को कहीं और ले जाए पर हिमाचल सरकार की तरफ से तो अड़चन आने से रही।
कुएं में भांग
पीलिया ने हिमाचल को जकड़ लिया है। कहने को तो बेहतर पर्यावरण है हिमाचल में। फिर क्यों पीलिया से पीले हुए जा रहे हैं सूबे के लोग। अब तो हाईकोर्ट ने तेवर दिखा दिए हैं। पूरे सचिवालय की क्लास लगा दी है। कई आला अफसरों के खिलाफ अदालत की अवमानना की कार्यवाही की चेतावनी दी तो कई से हलफनामे दाखिल करा लिए। पर नौकरशाह भी कुत्ते की पूंछ की तरह अपनी फितरत नहीं छोड़ते। तभी तो इस गुरुवार को हाईकोर्ट ने फिर हड़काया। अगली तारीख पर कई सचिवों को तलब कर लिया। स्वास्थ्य सचिव अनुराधा ठाकुर को तो अदालत में पेश होकर माफी मांगनी पड़ी। ऊपर से गिड़गिड़ार्इं अलग कि उन्हें महकमे का काम संभाले ज्यादा दिन नहीं हुए। आते ही समीक्षा भी कर दी। अदालत ने दरियादिली दिखाते हुए माफ भी कर दिया। हालांकि तीन हफ्ते बाद भी रवैया नहीं बदला तो अदालत का चाबुक तेजी पकड़ेगा। गलत हलफनामे देकर हाईकोर्ट को गुमराह करने की चाल चली थी नौकरशाही ने। पर अदालत की निगरानी ने कलई खोल दी तो समझ आ गया कि सुख के दिन तो बीते गए। अब तो जान सांसत में है।
अंदाजे रावत
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत अपने विरोधियों से हिसाब चुकाना नहीं भूलते। हरिद्वार के जयराम आश्रम के बाबा ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मचारी नारायणदत्त तिवारी के मुख्यमंत्री रहते हरीश रावत विरोधी खेमे में थे पर वक्त के साथ उनको भी बदलना ही पड़ा। अब रावत की तूती बोल रही है तो उनका पल्लू पकड़ने की कोशिश में जुटे हैं। अपने गुरु देवेंद्र स्वरूप ब्रह्मचारी की प्रतिमा के अनावरण और उनके नाम पर स्थापित होने वाले पब्लिक स्कूल की आधारशिला रखने के लिए रावत को हरिद्वार बुलाया था। एक तो मुख्यमंत्री पहुंचे ही पांच घंटे की देरी से। ऊपर से ब्रह्मस्वरूप की लगे मजाक में खिंचाई करने। बोले- ब्रह्मस्वरूप को देश के सभी नेता अच्छी तरह जानते हैं। पर मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ब्रह्मस्वरूप किस नेता से कितने प्रभावित हुए। इशारा ब्रह्मस्वरूप की वक्त के साथ बदलती निष्ठा की तरफ था उनका। मुख्यमंत्री के कटाक्ष सुन वहां मौजूद श्रोताओं ने जम कर ठहाके लगाए। बेचारे ब्रह्मस्वरूप ने अपना सिर जरूर धुना होगा कि कहीं हरीश रावत को बुलाना उनकी चूक तो नहीं थी।
उत्तराखंड में भाजपा के हाल बेहाल हैं। यों अनिर्णय की शिकार तो पार्टी और भी राज्यों में है ही। मसलन, देश के जिस सबसे बड़े सूबे ने पार्टी को लोकसभा की 73 सीटें दी, उसका सूबेदार ही तय नहीं कर पा रहे अमित शाह। उत्तराखंड में स्थिति उलट है। विधायक दल के नेता अजय भट्ट को पार्टी का सूबेदार तो बना दिया पर उनकी जगह किसी को महीनों बीत जाने पर भी विधायक दल का नेता नहीं बनाया। हालांकि नौ मार्च से विधानसभा का सत्र शुरू हो रहा है। उलझन कई हैं। एक तरफ तो कुमाऊं और गढ़वाल का क्षेत्रीय संतुलन साधना है तो दूसरी तरफ ब्राह्मण और राजपूत की कैमिस्ट्री भी देखनी है। अब तो नया पेच मैदानी बनाम पहाड़ी का कर रहा है आलाकमान को परेशान। विधायक दल के नेता पद की दौड़ में मैदान यानी हरिद्वार के मदन कौशिक हैं तो कोशिश हरबंश कपूर भी कर रहे हैं। रही पर्वतीय विधायकों की बात तो उनकी पसंद पूर्व सूबेदार तीरथ सिंह रावत बताए जा रहे हैं। भाजपा की ऊहापोह का मुख्यमंत्री हरीश रावत खूब मजाक उड़ा रहे हैं कि भाजपाई उनसे क्या लड़ेंगे, उन्हें तो आपस में ही लड़ने से फुर्सत नहीं है।
कुश्ती का फलसफा
पहलवान खली के चक्कर में उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार बेवजह नुक्ता-चीनी झेल रही है। कारण है मुख्यमंत्री के सलाहकार रणजीत सिंह रावत। हल्द्वानी में खली और विदेशी पहलवानों की भिडंÞत इन्हीं महाशय के जतन से हुई थी। खुद भी मौजूद रहे ये जंग के दौरान। विदेशी पहलवानों ने खली को घायल कर दिया। नौबत अस्पताल की आ गई। ऊपर से विदेशी महिला पहलवानों ने देहरादून में मुख्यमंत्री के सलाहकार की मौजूदगी में और मुख्यमंत्री के बंगले में खली समेत भारत के पहलवानों को खूब खरी-खोटी सुनाई। इंडियन से नफरत होने तक की बात कह डाली। रणजीत रावत और मौजूद दूसरे सरकारी अफसर मूक दर्शक बने रहे। लिहाजा भाजपा को बैठे-बिठाए मुद्दा मिल गया। पार्टी ने खूब कोसा हरीश रावत को। पर रावत तो खली के शो से खुश दिख रहे हैं। उन्हें तो यही खुशफहमी है कि खली के चलते नौजवान मतदाताओं पर उनकी पैठ बढ़ गई।
दोहरा रवैया
हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। यही हो गया है अब ज्यादातर राज्य सरकारों का नजरिया। मध्यप्रदेश की सरकार भी दावे तो लंबे-चौड़े करती है पर अमल से कतराती है। भ्रष्टाचार पर तनिक भी न सहने का दावा लेकिन कार्रवाई के मौके पर उदासीन रवैया। तभी तो लोकायुक्त पुलिस ने एतराज जताया है। एतराज है भी वाजिब। आखिर 97 अफसर तो ऐसे हैं जिन्हें भ्रष्टाचार के मामले में अदालत से सजा हो चुकी है। इस नाते बर्खास्त हो जाना चाहिए उनको। जो रिटायर हो गए उनकी पेंशन रोकने का प्रावधान ठहरा। लोकायुक्त दफ्तर इनकी सूची मुख्य सचिव को भेज चुका है। लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही दिखता है। विधानसभा का बजट सत्र इसी कारण भ्रष्टाचार की चर्चा से मुक्त नहीं हो पा रहा। भाजपा विधायक गिरीश गौतम ने पंचायत समन्वय अफसरों की नियुक्ति में करोड़ों के घोटाले का आरोप जड़ दिया। कांग्रेस के विधायक मुकेश नायक भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने आरटीआइ के जरिए इस घोटाले के दस्तावेज नहीं मिलने का खुलासा कर डाला। छात्रवृत्ति घोटाले की गूंज सुनाई दी तो शिक्षा मंत्री उमाशंकर गुप्ता ने जांच समिति बनाने की बात कह पीछा छुड़ाया पर भ्रष्टाचारियों को सजा देने के प्रति कभी ज्यादा गंभीर दिखी ही नहीं शिवराज सरकार।
छवि की फिक्र
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान अब अपने विधायकों पर लाल-पीले होने लगे हैं। हों भी क्यों न? अपने ही विधायक विधानसभा में सरकार पर हमले कर उनकी जगहंसाई जो करा रहे हैं। इसी चक्कर में चौहान ने मंगलवार को अपने निवास पर पार्टी विधायकों की बैठक बुलाई थी। जिसमें वित्तमंत्री जयंत मलैया से बजट का खाका समझाने की बात कही। फिर विधायकों को लगे हड़काने कि वे वित्त मंत्री से कर लें अपनी जिज्ञासाओं का समाधान। बाद में सदन में सरकार की किरकिरी न करें। शिवराज तो उपदेशक की भूमिका में दिखे इस बैठक में। विधायकों से बोले- सकारात्मक रहो, सकारात्मक ही बातें करो और नकारात्मकता से दूर रहो। पर जैसे ही नल-जल योजना पर चर्चा शुरू हुई, मंत्री गोपाल भार्गव ने योजनाओं को बेहतर स्थिति में बता दिया। फिर तो विधायक धीरज खो बैठे। बोले कि सब ठीक-ठाक है तो फिर जनता परेशान क्यों है? मुख्यमंत्री को फिर अखरा अपने विधायकों का ऐसा रवैया। सो, नसीहत दी कि पार्टी की छवि खराब करने वाली भाषा कतई न बोलें। मनमोहन सिंह का उदाहरण भी दे डाला। फरमाया कि वे और उनकी योजनाएं दोनों ठीक थे। छवि भी खराब नहीं थी उनकी। पर उनके बारे में निगेटिव इतना बोला गया कि सब कुछ गुड़गोबर हो गया। चौहान का मंतव्य विधायकों को यही घुट्टी पिलाना था कि बजट चाहे सूबे का हो या केंद्र की सरकार का, उसके बारे में अच्छा-अच्छा ही बोलें। उसकी खूबियों को मई-जून में गांव-गांव और गली-गली दोहराएं।