यह संभव है कि किसी समस्या के हल की मंशा से सरकार एक योजना की घोषणा करे। मगर यह तभी सार्थक है, जब इस पर अमल पूरा हो। इसके उलट अक्सर यही देखा जाता है कि सरकार किसी महत्त्वाकांक्षी योजना की घोषणा तो कर देती है, मगर बात जब उस पर अमल की आती है, तब धन के अभाव को कारण बता कर इसे ज्यादा से ज्यादा समय तक टाला जाता है। ऐसे में न केवल योजनाओं की घोषणा बेमानी हो जाती है, बल्कि समस्या की जटिलता और बढ़ती जाती है।
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान लगातार बनती ऐसी ही स्थिति को रेखांकित किया और सरकार को एक तरह से कठघरे में खड़ा किया। शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकार को किसी भी योजना का एलान करने से पहले उसके वित्तीय प्रभाव को जरूर ध्यान में रखना चाहिए। अदालत ने इस संदर्भ में शिक्षा का अधिकार अधिनियम का हवाला देते हुए कहा कि यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि इसके तहत एक अधिकार को बाकायदा कानूनी दर्जा दिया गया है, लेकिन स्कूल कहां हैं!
सुप्रीम कोर्ट की ओर से किया गया यह सवाल ऐसा है, जिसका विस्तार ज्यादातर घोषित सरकारी योजनाओं के मामले में देखा जा सकता है। देश भर में नगरपालिकाओं से लेकर राज्य सरकारों सहित विभिन्न प्राधिकरणों की ओर से स्कूल स्थापित किए जाते हैं। लेकिन हर स्तर पर सरकार संचालित स्कूलों की दशा शायद ही किसी से छिपी हो। बुनियादी ढांचे के अभाव से लेकर भारी तादाद में शिक्षकों की कमी की वजह से सरकारी स्कूलों को पढ़ाई-लिखाई की महज औपचारिकता पूरी करने के ठिकानों के तौर पर देखा जाता है।
कई राज्यों में नियमित और स्थायी प्रकृति के बजाय नियोजित या अनुबंध आधारित व्यवस्था के तहत शिक्षकों की नियुक्ति की जाने लगी है। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि कुछ राज्यों में ‘शिक्षा मित्र’ हैं, जिन्हें नियमित भुगतान के बदले करीब पांच हजार रुपए दिए जाते हैं। जब अदालत राज्यों से इस बारे में सवाल करती है, तब जवाब दिया जाता है कि बजट में कमी है। जाहिर है, सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम को तो लागू कर दिया, लेकिन इस पर सही तरीके से कैसे अमल हो, इसके लिए धन की व्यवस्था कैसे बिना बाधा संभव हो, इसे सुनिश्चित करना जरूरी नहीं समझा।
सवाल है कि अगर सरकार ने बतौर अधिकार शिक्षा देने के लिए कानून बनाया है, तो इस पर अमल की जिम्मेदारी किसकी है! सुप्रीम कोर्ट ने जिस याचिका पर सुनवाई के दौरान सरकार को आईना दिखाया है, उसमें घरेलू हिंसा कानून, 2006 के तहत प्रताड़ित महिलाओं को प्रभावी कानूनी सहायता देने के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा दिलाए जाने की मांग की गई है। इसमें पीड़ित महिलाओं की शिकायत सुनने के लिए अधिकारी की नियुक्ति से लेकर महिलाओं को कानूनी मदद और उनके लिए आश्रय घर बनाने की मांग भी शामिल है।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक कानूनी अधिकार के तहत कायम व्यवस्था बुनियादी ढांचे के अभाव के साथ चल रही है, जिसका असर प्रभावित लोगों या समुदायों पर पड़ता है। ऐसी तमाम योजनाएं हैं, जिनके बारे में सरकारों ने लंबे समय से घोषणा कर रखी है, लेकिन उन पर अमल की बात आने पर धन की कमी का रोना रोया जाता है। इसी के समांतर सरकार प्रायोजित अन्य ऐसे कार्यक्रम भी चलते रहते हैं, जिनमें भारी राशि खर्च की जाती है, मगर उसकी जन-उपयोगिता या तो शून्य होती है या फिर बेहद कम। सवाल है कि क्या घोषित योजनाओं पर अमल में टालमटोल का मुख्य कारण प्रबंधन की दूरदर्शिता या फिर राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है!