इस सोलह जनवरी को मैं अपनी आयु के पचहत्तर वर्ष पूरे कर गया। संयोगवश इस वर्ष कविता लिखने के साठ वर्ष, आलोचना लिखने के पचास वर्ष, पहले कविता संग्रह के प्रकाशन के भी पचास वर्ष हो जाएंगे। यों तो हम सभी जीवन को समझने-सराहने-पाने आदि के कई दरवाजों का प्रयोग करते हैं, मैंने जिस एक दरवाजे से लगभग सब कुछ देखने-समझने की कोशिश की वह कविता का रहा। जीवन का जो कुछ आशय, रहस्य, आश्चर्य और सार्थकता हाथ आए उन तक अधिकांशत: कविता के माध्यम से ही पहुंचा। कविता न होती तो जीवन लगभग अकारथ होता: कविता है, तो जीवन इतना व्यर्थ नहीं लगता।
पता है कि कविता के अलावा और भी दरवाजे हैं, जो कहीं ज्यादा लोगों की जीवन में मदद करते हैं। यह भी कि कविता का दरवाजा शायद पुराना पड़ चुका है: भारी है और आसानी से नहीं खुलता। उससे जीवन अतीत से लेकर आज तक निरंतरता में दीखता और दिपता है, जबकि हममें से अधिकांश जीवन की ऐसी निरंतरता अपने लिए विशेष महत्त्व की नहीं पाते। ऐसे दरवाजे भी बढ़ते गए हैं, जिन्हें आप दूर से ही एक बटन दबा कर खोल सकते हैं, जो कविता के धूसर दरवाजे के बरक्स ज्यादा रंगीन, चिकने-चुपड़े हैं। यह मेरी दकियानूसी और मूर्ख जिद का ही एक और साक्ष्य है कि मैं इसी दरवाजे पर हिलका-टिका रहा। प्रलोभन कभी कम नहीं हुए, लेकिन उनसे अपने को बचाए रखने का जतन भी नहीं छोड़ा-छूटा। जीवन-समय-समाज-आत्म-संबंध-संवाद आदि की जो समझ मुझमें विकसित हुई, जो विचार जब-तब जागे-बढ़े, उज्ज्वलता-निर्मलता-पावनता का जो बोध गहराता रहा, संघर्ष की उद्दाम विकलता, मौन के अनेक अर्थ, भाषा की सीमाओं की शिनाख्त आदि प्राय: सभी कविता से ही आए।
कविता का यह दरवाजा मैंने स्वयं अधिकांशत: नहीं बनाया है: वह मुख्यत: दूसरों का बनाया-खोला हुआ है, जिसमें बड़ी संख्या में कई पुरखे शामिल हैं, विभिन्न भाषाओं और देश-विदेश में फैले आधुनिक कवियों की एक बड़ी बिरादरी का यह दरवाजा एक तरह से उपहार है। वह सिर्फ मेरे लिए नहीं है और उस तक कोई भी जाकर, उसे खोलकर आलोक और अर्थ पा सकता है। भले यह पहचान दुखद है, पर सच है कि कविता, हमारे समय में, पढ़ने और लिखने दोनों में ही एक अल्पसंख्यक मामला है। कई बार एक पेशावरी शायर की उक्ति याद आती है: ‘हम थोड़े-थोड़े हैं, हम कम-कम होते हैं!’ पर यह अल्पसंख्यकता हमें निरर्थक या अप्रासंगिक नहीं बनाती। जगह भले थोड़ी-सी मिली है, पर उसकी सीमाओं में हम हैं: हमारा होना पूरे वितान को कहीं-न-कहीं कुछ अर्थ और आभा देता है। ऐसा समाज नहीं हो सकता, कम से कम अब तक नहीं खुला है, जिसमें कविता न हो। यह स्मृति हमारा मनोबल बनाए रखने के लिए पर्याप्त है कि वेदों से लेकर हमारे लोकतांत्रिक समय तक को, हमारी परंपरा और धर्मों तक को जिन्होंने गढ़ा-रचा और बचाया है उनमें कविता और कवि भी रहे हैं। कविता अपनी जगह बनाने के लिए दूसरों की जगह पर बेजा कब्जा नहीं करती: वह दूसरों के रौब में भी कम ही आती है। दूसरों की उदासीनता उसे अपने पथ से विरत नहीं कर पाती। कविता ने कभी मनुष्य का न तो साहचर्य छोड़ा है, न ही उसके साथ कभी विश्वासघात किया है जैसा कि धर्मों, विज्ञान, राजनीति आदि ने बारहा किया है। ग़ालिब के एक बिंब को याद करते हुए यह कह सकता हूं कि कविता के दरवाजे पर ‘पासबान’ तो नहीं ‘गदा’ जरूर हूं और अब भी इंतजार है कि, शामत की तरह सही, कविता आएगी!
शास्त्रीयता के आलोक में
पिछले एक महीने में तीन बार शास्त्रीय कलाओं से अपने लगाव और समझ पर खुली बातचीत करने के तीन अवसर जुटे: दो दिल्ली में और एक पुणे में। मुझे शास्त्रीय कलाओं का, कविता के अलावा, निर्लज्ज पक्षधर माना जाता है। कई बार मुझे लगता है कि मुझ पर कविता का जो यत्किंचित आलोक झरा उसे सघन और दीप्त किया उस आलोक ने, जो शास्त्रीयता से मुझे मिलता रहा है। रसिकता के अलावा इस शास्त्रीय आलोक में कोई निजी हिस्सेदारी कभी नहीं रही है। वह पूरी तरह से दूसरों से मिला, उन्हीं का रचा-दिया आलोक है। इसमें संदेह नहीं कि उसने कविता को भी समृद्ध किया और जिजीविषा को उद्दीप्त। जीवन में कुछ न कुछ बहुत अंधेरा रह जाता अगर यह आलोक न मिलता। इसलिए शास्त्रीयता के प्रति अपार कृतज्ञता मेरे मन में बराबर रही है।
शास्त्रीय ज्ञान यानी उस ज्ञान तक जो शास्त्रीयता के माध्यम से रूपायित होता है, बिना तकनीकी जानकारी या अनुभव-अभ्यास के पहुंचा जा सकता है। रसिकता भी ज्ञान का एक दरवाजा है। कविता की तुलना में इन कलाओं में शास्त्रीयता और आधुनिकता का द्वैत अस्वाभाविक लगता, अपने आप ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि एक अर्थ में शास्त्रीय कलाएं स्वयं अपना संग्रहालय भी हैं। साहित्य के बरक्स उनमें परंपरा का सबसे स्पंदित और ऐंद्रिय रूप प्रगट होता रहता है: उनमें परंपरा अपने आप सजीव होती है और उसके लिए कोई जतन या दुस्साहस नहीं करना पड़ता। परंपरा आधुनिक होकर, समकालीन ढंग से बोलती है। हमें विराट से तदाकार होने का न्योता भी लगातार मिलता रहता है। सच्चा संगीत आपको भी, जब तक वह है, संगीत में बदल देता है। यह बात नजरंदाज नहीं की जा सकती कि हमारे संगीत में धार्मिक आस्था, जातिबोध, वर्गबोध आदि अप्रासंगिक हो जाते हैं- सिर्फ मनुष्य होने का गहरा बोध भर झंकृत होता रहता है। आस्तिकता-नास्तिकता, विचारदृष्टियों के तनाव और द्वंद्व, तुच्छताएं और टुच्चापन आदि एक तरह की निर्मल-उज्ज्वल पावनता में घुल-धुल जाते हैं। यह गुण साहित्य, ललित कलाओं, संगीत, नृत्य और रंगकर्म में समान है कि उनसे अभिभूति के दौरान हम बेहतर मनुष्य हो जाते हैं, थोड़ी देर के लिए सही। वरना जैसा गालिब ने कहा है: ‘आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना!’
रसिकता ने शास्त्रीय संगीत के अनेक कलाकारों की सोहबत का अवसर दिया। उनमें से ज्यादातर कलाकार मंच से अपने कौशल या कला की व्याख्या शब्दों में नहीं कर पाते। पर अनौपचारिक बातचीत में उनकी कलाओं के अनेक दरवाजे नहीं तो खिड़कियां सहज भाव से खुलती जरूर हैं। यह थोड़ा विचित्र है कि कठिन अनुशासन और औपचारिकता में बंधी इन कलाओं को पूरी तरह से समझने-सराहने का दरवाजा अनौपचारिकता और आत्मीय प्रसंगों में बेहतर और ज्यादा खुलता है। सच तो यह है कि हमारा काम अकेले साहित्य से नहीं चल सकता, नहीं चला कम से कम मेरा: दूसरी कलाओं ने जीवन का अर्थ, मर्म और अभिप्राय: पूरे किए। हम जैसे आधों-अधूरों को भरेपूरेपन का कुछ अहसास मिलता रहा है, जो कि कृतज्ञ बनाने के लिए काफी है।