शास्त्री कोसलेन्द्रदास
भारतीय दर्शन शास्त्र की मुख्य एवं बड़ी समस्याओं में काल के रूप की समस्या है। वहां स्वभावत: प्रश्न उठते हैं कि क्या काल अन्ततोगत्वा वास्तविक है? क्या हमारा अवगम्य विश्व कालविहीन है? क्या अखिल विश्व का आरम्भ काल से है? क्या काल द्रव्य-वस्तु है या वास्तविक या वस्तुओं के गुण या संबंध है? अतिप्राचीन से लेकर अब तक इस समस्या के विषय में मत-मतांतर पाए जाते रहे हैं?
ऋग्वेद में काल
डा पीवी काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में काल पर व्यापक विचार किया है। उन्होंने काल पर हुए व्यापक विचार को एकत्रीकरण किया। वे लिखते हैं कि ऋग्वेद में काल शब्द केवल एक बार आया है। अथर्ववेद में दो सूक्त हैं, जिनमें काल की उच्चतम धारणा व्यक्त होती है। अति आरम्भिक वैदिक काल में भी काल शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता था – सामान्य रूप से काल और वह काल जो परम तत्त्व के समनुरूप है या सृष्टि का मूल है।
काल है सृष्टि का मूल
शतपथब्राह्मण में काल का प्रयोग समय या उचित समय के अर्थ में हुआ है। श्वेताश्वतरोपनिषद में काल शब्द सृष्टि के कारण या मूल के अर्थ में आया है। मांडूक्योपनिषद का कथन है कि ओंकार त्रिविध काल (भूत, वर्तमान एवं भविष्य) से ऊपर है। मैत्री-उपनिषद में आया है – अन्न सम्पूर्ण संसार की योनि है, काल अन्न की योनि है और सूर्य काल की योनि है।
काल के हैं विभाग
मनुस्मृति में परमात्मा को काल और उसके विभागों का सृष्टिकर्ता कहा गया है। महर्षि कपिल के सांख्यशास्त्र ने काल को अपने 25 तत्त्वों में परिगणित नहीं किया है किन्तु इस पद्धति में काल को अछूता नहीं छोड़ा गया है। महामुनि कणाद के वैशेषिकसूत्र ने काल को नौ द्रव्यों में रखा है। पतंजलि से प्रकट होता है कि उनके समय में कुछ ऐसे दार्शनिक थे जो वर्तमान काल को नहीं मानते थे।
बौद्ध और जैन मत में काल
बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में भी काल के विषय में विवेचन है। बौद्ध मत भी कहता है कि काल कोई वस्तु नहीं है, यह विचार मात्र है, यह केवल मनुष्य के इन्द्रियज्ञान-भण्डार एवं प्रज्ञा की आत्मगत दशा है, अपने में यह नास्तिक का द्योतक है, यह कर्ता से भिन्न है किन्तु जैन सिद्धान्त के अनुसार छह पदार्थ हैं, यथा – जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल एवं काल अर्थात काल की पृथक सत्ता है।
लोगों का अंत करने वाला
कूर्मपुराण में काल का स्वरूप आया है – यह पूजनीय काल अनंत, अजर एवं अमर है। यह सर्वगत्व, स्वतंत्रतत्व, सर्वात्मत्व रूप से महेश्वर है। ज्योतिष के ग्रंथ सूर्यसिद्धांत में आया है- काल लोगों का अंत करने वाला है। काल से गणना की जाती है। काल के दो प्रकार हैं – स्थूल एवं सूक्ष्म, जिन्हें मूर्त भी कहा जाता है और अमूर्त भी।
काल बनाता है शुभ और अशुभ स्थिति
महाभारत में काल पर कई बार लिखा गया है- काल प्राणियों की सर्जना करता है, काल लोगों का नाश करता है। प्रजा के संहार में संलग्न काल, काल को शमित करता है। काल शुभ एवं अशुभ स्थितियां उत्पन्न करता है। काल सबको समाप्त करता है और पुन: सबकी सृष्टि करता है। काल ही ऐसा है जो सबके सो जाने पर भी जागता रहता है। काल अजेय है। गीता में काल शब्द सामान्य समय या यथासमय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वहां यह श्रीकृष्ण के लिए भी प्रयुक्त है, जिन्हें परब्रह्म कहा गया है।