उस दिन खबरों पर निगाह रखने के दौरान एक खबर पर मेरी निगाह गड़ गई। देश-दुनिया और बाजार के बाद फिल्म से जुड़ी वह एक भावनात्मक खबर थी। अपने दैदीप्यमान सौंदर्य और बिंदास अंदाज से सुर्खियां बटोर चुकीं विपाशा वसु अपने खुशहाल वैवाहिक जीवन का राज बता रही थीं। दो साल पहले करण से शादी के बाद इन दिनों वे काफी खुश दिखती हैं। करण के साथ किस तरह समय गुजारती हैं, वे बता रही थीं। चाहे मूवी देखना हो या खाना, दोनों की पसंद कई मामलों में एक जैसी हैं। वे एक साथ यात्रा करते हैं और एक दूसरे की फिटनेस की फिक्र भी। आपस में गहरा जुड़ाव और एक दूसरे का खयाल ही आप को किसी का बेहतरीन दोस्त बनाता है। निरंतर संवाद जोड़े रखता है दोनों को। निसंदेह करण उनके सबसे अच्छे दोस्त हैं।
………तो उस दिन विपाशा बता रही थीं कि वे करण के साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारती हैं। उनका सुझाव था कि अगर कोई शादी करे तो वह अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ करे। विपाशा का कहना था कि तब आप साधारण चीजें भी करते हुए असाधारण खुशी हासिल कर सकते हैं। उनके साथ भी ऐसा ही हैं। खबरों के जंगल से गुजरते हुए अकसर कई खबरें प्राथमिकता से मेरे जेहन में रहती हैं तो कुछ दिल में बैठ जाती हैं। विपाशा वाली खबर भी ऐसी ही थीं, जो मुझे अभी मेट्रो में यात्रा करते हुए याद आ गई है।
दिल्ली मेट्रो में आज मुझे बैठने की जगह नहीं मिली है। अंतिम कोच के आखिरी दरवाजे के किनारे मैंने खुद को स्थापित कर लिया है। डिस्प्ले पैनल पर मेरी नजर है। मेरी मेट्रो कई स्टेशनों को पार करने के बाद नई दिल्ली से चल चुकी है। वह राजीव चौक की ओर बढ़ रही है। मेरे आसपास खड़े युगल एक दूसरे का हाथ थामे खड़े हैं। इन युवाओं के लिए आज अहम दिन है। लेकिन मेरे लिए सबसे जरूरी अभी दफ्तर पहुंचना है। मैं अब अतीत में जीने लगा हूं। मगर इन युवाओं में आज को जी लेने की ललक है।
अगला स्टेशन राजीव चौक है। दरवाजे दायीं ओर खुलेंगे। उद्घोषणा हो रही है। गेट के पास दबाव बढ़ गया है। अब मैं बुत की तरह खड़े नहीं रह सकता। कोच के शीशे पर अपने चेहरे को देख कर कुछ युवा अपने बाल संवारने लगे हैं। खुद को सुंदर दिखाने की चाहत आपके मन को बयां कर देती है। ……. स्टेशन आ गया है। दरवाजे खुल गए हैं। बाहर से आई सुगंधित हवा के झोंके ने जैसे मन को छू लिया है। प्लेटफार्म पर युवाओं की कतार है, इस कोच में आने के लिए। उनकी देह से लिपटी खूशबू से यहां की आबोहवा गुलाबी हो गई है। सीढ़ियों के किनारे खंबों से बदन टिकाए कुछ युवतियां किसी ग्रीक मूर्तिकार की तराशी मूर्तियां लग रही हैं। एकदम बिंदास और बेफिक्र। उनकी आंखों में इंतजार की न जाने कितनी सदियां झलक रही हैं।
मैं प्लेटफार्म नंबर तीन पर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ रहा हूं। बाकी दिनों की अपेक्षा आज भीड़ है। यहां कॉफी शॉप के बाहर अकसर युवतियां किसी न किसी का इंतजार करती दिख जाती हैं। मगर आज खास बात है। भीड़ से निकलते चेहरों में अपने मित्र की तलाश करतीं इन युवतियों के चेहरे पर चट्टान जैसा संकल्प और दिल में भावनाओं का समंदर है। वे अमर प्रेयसी का प्रतिमान गढ़ती हुई मालूम देती हैं। सहसा अपने मित्र को देख कर वे चहक उठती हैं। दौड़ कर गले लगाती हैं। ये लड़के भी उन्हें जादू की झप्पी देते हैं। अपनी भावनाओं को इस तरह सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने में दो-ढाई दशक पहले के युवाओं को संकोच होता था। वे इस तरह के दृश्य सिनेमा में ही देखते थे। जब भावनाओं के ज्वार में उमगती नायिका दौड़ती हुई नायक की बांहों में झूल जाती थी। लेकिन कई बंदिशों से घिरी भावनाओं को आज के दौर ने युवाओं को खुला आसमान दे दिया है। जहां लड़कियां अपने सपनों का इंद्रधनुष रचने लगी हैं। अपने जीवन में प्रेम का संगीत बुनने लगी हैं। अब अभिव्यक्ति की कोई सीमा नहीं। कोई संकोच नहीं।
मैं प्लेटफार्म नंबर तीन के अंतिम छोर पर पहुंच गया हूं। यहां एक युगल ने बरबस ध्यान खींच लिया है। वे इस तरह सट कर खड़े हैं जैसे कोई दो फूल एक दूसरे से गुंथे हों। युवक के सीने में दुबकी घुंघराले बालों वाली इस लड़की का चेहरा नहीं दिख रहा। नाक तक झुक आए युवक के चश्मे को सरकाते हुए उसने जैसे कुछ कहा है उससे। तभी उसके ललाट को मित्र ने चूम लिया है। मालूम नहीं, वे आपस में क्या बातें कर रहे हैं। युवक बार-बार उसकी पीठ को सहलाते हुए दिलासा दे रहा है। उनकी यह अंतरंगता कई यात्रियों का ध्यान खींच रही है। मगर मेरी नजर डिस्प्ले पैनल पर है, जो यह बता रही है कि नोएडा सिटी सेंटर की मेट्रो आने में अब एक मिनट बचा है।
उधर, काफी देर से खड़ी इस युवती के मन में उठती लहरें शांत हो गई हैं। वे एक दूसरे का हाथ थामे मेरे पीछे खड़े हो गए हैं। उन्हें भी जाना है। वे प्रेम मार्ग पर चल पड़े हैं। यों यह मार्ग सीधा ही होता है। ……..अभी रीतिकाल के सर्वाधिक चर्चित कवियों में से एक महाकवि घनानंद की पंक्ति याद आ रही है- अति सुधो सनेह को मारग है/जहां नेकु सयानप बांक नहीं/तहां सांचे चलैं ताजि आपुनपौ,/झिझकै कपटी जे निसांक नहीं। ……. इसका अर्थ है कि प्यार का रास्ता तो एकदम सीधा है। इधर-उधर भटके तो गिर पड़ोगे। इस रास्ते पर चालाकी नहीं चलती। क्योंकि यहां सच्चाई के साथ ही आगे बढ़ सकते हैं। कपटी लोग न तो प्रेम कर सकते हैं और न ही इस रास्ते पर चल सकते हैं। उन्हें खुद ही झिझक होती है। इसलिए सच्चा प्रेम करने वाला न तो अहंकारी होगा न चालाकी दिखाएगा।
……… धीमी रफ्तार से आई मेट्रो के दरवाजे खुल गए हैं। लास्ट कोच मेरे सामने हैं। यात्रियों के उतरते ही युवती ने अपने मित्र का हाथ खींच लिया है। वे सीधे मार्ग पर चल पड़े हैं। कोच में एक भी सीट खाली नहीं। मैं गेट के किनारे खड़ा हो गया हूं। युगल ठीक मेरे सामने है गलबहिया डाले हुए। मैं उन दोनों की बातें सुन सकता हूं। वैसे यह इनकी निजता में घुसने जैसा है। हालांकि यह निजता उन्होंने खुद ही भंग की है। उनमें कोई झिझक भी नहीं। वे बेहद सहजता से घुले हुए हैं एक दूसरे में। मुस्कुराती हुई युवती के अधर खिल उठते हैं। उसकी नाक की कील में जड़ा हीरा बार-बार चमक उठता है। …….मेट्रो चल पड़ी है।
वह पूछ रही है, ‘अरे तुमने ये जैकेट कहां से ली? थोड़ी बड़ी नहीं ले सकते थे। ये देखो, चेन भी ठीक से नहीं लग रही।’ यह कहते हुए उसने अपने दोनों हाथ उसके जैकेट के भीतर डाल दिए हैं। युवक ने हंसते हुए कहा, ‘हाथ निकालो। गुदगुदी मत करो।’ युवती ने हठ किया, ‘जाओ नहीं निकालती अपने हाथ। मेरी ठंडी हथेलियों को गरम होने दो।’ फिर उसने अपना सिर मित्र के कंधे पर टिकाते हुए कहा, ‘….. तो पापा से मिलने कब आ रहे हो?’ युवक के चेहरे पर सन्नाटा है। उसके होंठ सिल गए हैं। वह कह रही है, ‘देखो मैं पापा का भरोसा तोड़ नहीं सकती। वे एक अच्छे और भावुक इंसान है। उन्हें बताना होगा। भाग कर कोर्ट मैरिज नहीं कर सकते। क्या सोचेंगे वे। मैं उन्हें धोखा नहीं दे सकती। सुन रहे हो न तुम?’ … दोस्त ने कहा, ‘हां सुन रहा हूं।’ उसका चेहरा सपाट हो गया है। कभी-कभी गंभीर हो जाता है। क्या सोच रहा है वह?
इस युवती का मित्र बेहद सामान्य युवक है। शायद यह बड़े पद पर काम करता हो या ज्यादा कमाई करता हो। कोई रिसर्च स्कॉलर हो या फिर बड़े घर का बेटा। क्या पता? फिलहाल उसकी चुप्पी से कुछ भी अंदाज नहीं लग रहा। मगर इतना तो तय है कि वह उसके प्रेम डूबी है। वैसे प्रेम करने की कोई वजह नहीं होती। बस हो जाता है। अगर कोई वजह है, तो समझ लीजिए कि वहां और कुछ नहीं बस स्वार्थ और वासना है। प्रेम तो कतई नहीं। मगर इस युवक में ऐसा क्या खास है? वह क्या है जो एक स्त्री को किसी भी पुरुष से जोड़ देती है। औसत कद के इस युवक में ऐसा क्या है? दाढ़ी बढ़ी हुई। एक कान में स्टड (बूंदे)। लगता है जैसे दो दिन से नहाया ही न हो। कुछ तो खास होगा इस नौजवान में?
युवती ने फिर उसे टोका, ‘…. तो कब आ रहे हो घर?’ इस पर युवक ने कहा, ‘अच्छा देखता हूं।’ यह सुन कर वह नाराज हो गई है। ‘…… तुम साल भर से सोच ही रहे हो? हम चार साल साथ पढ़े। दोनों नौकरी कर रहे हैं, तो अब सोचना क्या। तुम्हारे घर वाले नहीं मानेंगे? तो मनाओ उन्हें। ये तुम्हारा काम है। मैं अपने पापा को मना लूंगी।’ उसने कहा। ‘….अच्छा सोचता हूं।’ युवक ने एक बार फिर सपाट जवाब दिया। ‘ये क्या बात हुई। अच्छा देखता हूं, अच्छा सोचता हूं। तुम अगर ये सोच रहे हो कि मैं चुपचाप बिना किसी को बताए शादी कर लूंगी तो तुम गलत हो। किसी को भी इस शादी में शामिल करें या करें कम से कम हम लोगों को पापा को बता देना चाहिए।’
युवती की आंखें नम हो गई हैं। आजकल की लड़कियां बेशक प्रेम करती हों, लेकिन अब भी वे परिवार की सहमति से विवाह करना पसंद करती हैं। इसकी वजह कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना है। क्योंकि भारतीय समाज उन्हें आज भी वह सुरक्षित माहौल नहीं दे पाया है, जिसमें वह खुद फैसला ले सके या अकेले रह कर समाज का मुकाबला कर सके। हालांकि कई युवतियां अपनी पहचान बनाने और पुरुष वर्चस्व वाले समाज में अपने अस्तित्व का अहसास कराने के लिए आत्मनिर्भर बन रही हैं। अपनी खुशियों को जीने की कोशिश कर रही हैं। वे हर तरह के दबाव से बाहर निकल रही हैं। धीरे-धीरे ही सही, मगर एक बड़ा बदलाव है, जो आने वाले बरसों में साफ दिखेगा।
अपनी जेब से रूमाल निकालते हुए युवक ने उसके आंसुओं को पोंछ दिया है। फिर उसके गालों पर चिकोटी काटते हुए कहा, थोड़ा समय दो न। मैं आऊंगा मिलने। इस पर उस युवती ने उसकी पीठ पर मुक्का मारते हुए कहा, ‘ऐसे तुम नहीं मानोगे। ये लो… ये लो……।’ फिर उसके कंधे पर सिर धरते हुए बोली, ‘मेरे पिता के बाद तुम्हारे सिवाय कौन है? तुम मुझसे पूरे मन से प्यार करते तो इतनी मिन्नत नहीं करनी पड़ती। एक बार कहने पर ही मान जाते’ वह रुआंसी हो गई है। अब युवक से रहा नहीं जा रहा। उसने उसे अपनी ओर खींच लिया है। उसकी आंखों में झांकते हुए उसने कहा, ‘अच्छा इसी संडे को आता हूं तुम्हारे घर।’ अब तो खुश। …….. युवती के चेहरे पर मुस्कुराहट खिल उठी है। उसकी नोज पिन में जड़े हीरे ने झिलमिला कर उसके सपनों में इंद्रधनुष रच दिया है।
इस क्रम में कई स्टेशन निकल चुके हैं। मेरी मंजिल आ रही है। उद्घोषणा हो रही है, अगला स्टेश्न न्यू अशोक नगर है। मुझे महाकवि घनानंद की कुछ और पंक्तियां याद आ रही हैं-
घन आनंद प्यारे सुजान सुनौ
यहां एक ते दूसरों आंक नहीं
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला
मन लेहुं पै देहु छंटाक नहीं।
यानी प्रेम में एक के सिवाय दूसरा कोई नहीं होता। कृष्ण तुमने ये सब कहां पढ़ा? मन (दिल) भर लेते हो, मगर छंटाक भर (थोड़ा सा प्यार) भी नहीं देते।
…..स्टेशन पर मेट्रो पहुंच गई है। दरवाजे खुल गए हैं। मैं प्लेटफार्म पर आ गया हूं। एक सहयात्री पुराना गीत गाता हुआ साथ चल रहा है- तुम मेरे पास होते हो, दूसरा कोई नहीं होता…..। इसे सुनते हुए खयाल आया कि कविवर घनानंद तो बहुत पहले अपनी रचनाओं में यह भाव सहेज गए हैं। आप भी सुनिए इस गीत को। मैं फिर मिलूंगा इसी लास्ट कोच में किसी नई कहानी के साथ।