संगीतकार मदन मोहन के पिता रायबहादुर चुन्नीलाल नहीं चाहते थे कि उनका बेटा गाना-बजाना कर उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को कमजोर करे। उन्होंने बेटे को सेना में भेजा। मगर जब वह सेना छोड़ आया, तो अंग्रेजों से रायबहादुर का खिताब पाने वाले पिता ने गुस्से में आकर उन्हें घर से निकाल दिया। तानपुरा उठा कर निकले मदन मोहन से घर नहीं आया गया। न पिता ने बुलाया। दोनों जिद पर अड़े थे। मदन मोहन की ‘देख कबीरा रोया’ के गाने, ‘हमसे आया न गया, तुमसे बुलाया न गया…’ की तरह।

घर से निकले मदन मोहन ने कुछ गजलें रिकॉर्ड कीं। बात नहीं बनी, तो एक्टिंग की। मन नहीं लगा। फिर एसडी बर्मन के सहायक बने। पहली बार फिल्म में गाने का मौका मिला था ‘शहीद’ (1948, जिसका गाना ‘वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हों…’ खूब चला था ) में। फिल्मितान स्टूडियो इसे बना रहा था जिसके मालिक शशधर मुखर्जी, उनके साले अशोक कुमार के साथ रायबहादुर चुन्नीलाल भी थे। यह नियति का ही खेल था कि पिता की फिल्म में पुत्र पहली बार गाना गा रहा था। तब लता मंगेशकर संघर्ष कर रहीं थीं। मदन-लता का एक गाना ‘पिंजरे में बुलबुल बोले मेरा छोटा-सा दिल डोले…’ संगीतकार गुलाम हैदर ने रिकॉर्ड कर लिया था।

जब यह गाना शशधर मुखर्जी ने सुना, तो उन्होंने इसे रिजेक्ट कर दिया। कहा कि लता मंगेशकर की आवाज बहुत पतली है। 1941 की ‘खजांची’ के संगीत से फिल्मी दुनिया में तूफान पैदा कर चुके हैदर ने कहा, एक दिन इसी आवाज के पीछे लोग दौड़ेंगे। तो हुआ यह कि ‘शहीद’ से गाना हट गया। रायबहादुर चुन्नीलाल पर क्या गुजरी होगी, कहा नहीं जा सकता। वह चाहते तो शशधर मुखर्जी को समझा-बुझाकर यह गाना फिल्म में रख सकते थे, बेटे के भविष्य का सवाल था। मदन-लता को बुरा लगा। वे संघर्ष कर रहे थे। उनके लिए यह झटका था। इस घटना के बाद मदन मोहन ने लता को मुंहबोली बहन बनाया और वादा किया कि जब वह संगीतकार बनेंगे तो लता मंगेशकर से जरूर गवाएंगे। इसी स्नेह के कारण लता ने हमेशा मदन मोहन को ‘मदन भैया’ कहकर ही संबोधित किया। यह भी नियति का ही खेल था कि मदन मोहन की पहली फिल्म में लता नहीं गा सकीं।

1950 में मदन मोहन को देवेंद्र गोयल (जिन्होंने 1955 में संगीतकार रवि को ‘वचन’ में मौका दिया जिन्होंने ‘चंदा मामा दूर के पुए पकाए बूर के…’ गाना बनाया था) की ‘आंखें’ में पहली बार संगीत देने का मौका मिला, मगर लता किसी कारण से इस फिल्म में गा नहीं सकीं। अनिल बिस्वास, एसडी बर्मन, सी रामचंद्र जैसे नामीगिरामी और शंकर-जयकिशन जैसे उभरते संगीतकारों के दौर में मदन मोहन को अपनी पहचान बनानी थी। उत्कंठा से पिता की नजरें बेटे की पहली फिल्म पर लगी थीं। ‘आंखें’ रिलीज हुई। संगीत की खूब तारीफें हुर्इं।

‘मोरी अटरिया पे कागा बोले…’ गाना लोगों की जुबान पर चढ़ा। मगर इन्हीं तारीफों के साथ फिल्म पत्रिकाओं में एक खबर और छपी थी। रायबहादुर चुन्नीलाल के निधन की। बेटे की सराहना हो रही था, मगर पुत्र की कामयाबी पर गर्व करने के लिए पिता रायबहादुर चुन्नीलाल नहीं थे। नियति के ऐसे खेलों का मदन मोहन ने जीवन भर सामना किया।

मनद मोहन (25 जून, 1924-14 जुलाई, 1975)