हमारे देश में कैदियों की बाबत मोटा हिसाब यह है कि दो तिहाई या इससे भी कुछ अधिक विचाराधीन कैदी हैं। यहां न्यायिक प्रक्रिया इतनी धीमी है कि विभिन्न आरोपों में पकड़े गए अधिकतर लोग बरसों-बरस विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में सड़ने को अभिशप्त रहते हैं। अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा से ज्यादा वक्त जेल में गुजारने के भी ढेरों मामले मिल जाएंगे। यही नहीं, ऐसे लोग भी जेल में रहने को विवश होते हैं जिनकी जमानत अदालत से मंजूर हो चुकी होती है, पर जो अतिशय गरीबी के कारण मुचलका या जमानत राशि का प्रबंध नहीं कर पाते हैं। यह अच्छी बात है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसे कैदियों की सुध ली है और निचली अदालतों को निर्देश दिया है कि वे ऐसे कैदियों की बाबत ज्यादा संवेदनशीलता और सतर्कता दिखाएं। हाइकोर्ट ने इस पर दुख जताया है कि सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देश, कानूनी प्रावधानों और विधि आयोग की सिफारिशों के बावजूद जमानत पा चुके कैदी जेल में हैं। दुख जताने के पीछे उच्च न्यायालय की नजर में आया यह तथ्य है कि जमानत मंजूर होने के बाद भी दो सौ तिरपन लोग तिहाड़ में बंद हैं। जाहिर है, उच्च न्यायालय की टिप्पणी और निचली अदालतों को निर्देश बुनियादी नागरिक अधिकारों के अनुरूप है जिनमें कैदियों के अधिकार भी शामिल हैं।

जो लोग गरीबी की वजह से मुचलका या जमानत राशि का इंतजाम नहीं कर पाते, उन्हें यह सहायता मुहैया कराने के लिए या तो बाकायदा सरकारी अनुदान से प्रबंध हो, या फिर जमानत की शर्तें इतनी लचीली बनाई जाएं कि गरीबी बाधा न बने। पर इस सिलसिले में एक और मसले पर भी विचार करना जरूरी है। फैसले के इंतजार में, यानी दोषसिद्धि के बिना जेल में बरसों-बरस बंद रहना एक घोर अन्यायपूर्ण स्थिति है। फैसला आने पर जो निर्दोष ठहराया जाता है वह इस व्यवस्था से पूछ सकता है कि उसे किस बात के लिए इतने दिन जेल में रखा गया था? उसे और उसके परिवार को जो तकलीफ उठानी पड़ी, इसकी जवाबदेही किसकी है? इस अवधि में अपना रोजगार न कर पाने के कारण उसे जो आर्थिक हानि हुई और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को जो ठेस पहुंची, इस सब की भरपाई कैसे होगी? विडंबना यह है कि इस सवाल से हमारी न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका, सबने कन्नी काट रखी है। इसलिए हैरत की बात नहीं कि इस संबंध में भारत में अब तक कोईकानून नहीं है। जबकि अमेरिका में बाईस राज्यों में ऐसे मामलों में मुआवजा देने का कानून है। ब्रिटेन और न्यूजीलैंड जैसे कई और देशों ने भी इस संबंध में कुछ प्रावधान कर रखे हैं। भारत में भी इस तरह के मामलों में मुआवजा देने का कानून बनना चाहिए।

ऐसा कानून बनने का असर यह होगा कि गलत आधार पर गिरफ्तारी करने से पुलिस हिचकेगी, और सरकारों पर भी कुछ दबाव बनेगा। अभी तो हाल यह है कि पुलिस जहां कई बार निराधार गिरफ्तारी करती हैं, वहीं जहां गिरफ्तारी का वाजिब कारण होता है वहां अनावश्यक रूप से सख्त धाराएं लगा देती है। फिर, सरकारें भी राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने की खातिर बेजा गिरफ्तारी और गैरजरूरी मुकदमे थोपने से बाज नहीं आतीं। इन तरीकों से नागरिक अधिकारों पर हमले लंबे समय से होते आ रहे हैं। सवाल है यह सिलसिला कब बंद होगा।