त्रिनिदाद के मूल निवासी विनोद केविन बचन ने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ओडिशी नृत्य पेश किया। ओडिशी नर्तक विनोद कई सालों से ओडिशी नृत्यांगना रंजना गौहर से नृत्य सीख रहे हैं। वे उनके सामूहिक प्रस्तुति में समूह नृत्य करते रहे हैं। इस बार उन्होंने एकल नृत्य प्रस्तुत किया। उन्होंने उत्सव की ओर से आयोजित ‘अर्घ्य’ समारोह में शिरकत की। इस समारोह में विनोद ने मंगलाचरण से नृत्य आरंभ किया। उनकी इस प्रस्तुति में गणेश वंदना थी। उनकी दूसरी पेशकश देवी स्तुति थी। देवी स्तुति रचना ‘जय जय जननी, दुर्गे देवी’ पर आधारित थी। इसमें देवी के सौम्य रूप का विवेचन नर्तक विनोद ने हस्त मुद्राओं, भंगिमाओं और भावों के जरिए दर्शाया। उनकी अगली नृत्य प्रस्तुति अर्धनारीश्वर थी। यह आदि शंकराचार्य की रचना ‘चांपेय गौरार्ध शरीर कायाय’ और कालिदास की रचना के जरिए पिरोई गई थी। यह राग मालिका और ताल मालिका में निबद्ध थी। इसमें भगवान शिव नीलकंठ, गंगाधर, वाराणसीपति, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, जगतपति, पार्वतीपरमेश्वर रूपों को विवेचित किया गया। इसके मध्य में ही उन्होंने भगवान शिव के अर्धनारीश्वर रूप का भी निरूपण किया।
उन्होंने ओडिशी की तकनीकी बारीकियों को ‘ताझम झेणा’ में पेश किया। यह राग भैरव और एक ताली में निबद्ध था। नृत्य प्रस्तुति का समापन मोक्ष नृत्य से हुआ। समारोह में प्रस्तुत नृत्य रचनाएं गुरु रंजना गौहर की थीं और संगीत रचना सरोज मोहंती ने की थी। नर्तक विनोद केविन कई सालों से नृत्य सीख रहे हैं। उनका प्रयास सराहनीय है। नृत्य में तकनीकी पक्ष पर उनकी अच्छी पकड़ हो गई है। भाव में भी धीरे-धीरे परिपक्वता आ जाएगी ऐसी अपेक्षा है। हालांकि, उन्हें एकल प्रस्तुति के लिए अभी खुद को और मांजने की जरूरत है। वैसे भी भारतीय शास्त्रीय नृत्य निरंतर साधना की मांग करते हैं। कहा भी जाता है कि यह करने की विद्या है।

नृत्य की चाहत त्रिनिदाद से भारत ले आई : विनोद
विनोद केविन को कला विरासत में नहीं मिली है। उनकी कला के प्रति जिजीविषा उन्हें भारत ले आई। उनके पिता एक निजी कंपनी में नौकरी करते हैं और मां व्यवसायी हैं। विनोद ने शुरुआत में गुरु वेम्पति चिन्ना सत्यम के एक शिष्य से कुचिपुडी नृत्य सीखा। उन्हीं दिनों उन्होंने ओडिशी नृत्यांगना संगीता दास की नृत्य रचना ‘नवरस’ देखी। वह विनोद को अनूठा और अद्भुत लगी। नर्तक विनोद बताते हैं कि वे त्रिनिदाद में रहकर ओडिशी नृत्य सीखना चाहते थे। लेकिन, वहां जो शिक्षक थे, उनकी दिलचस्पी लड़कों को ओडिशी सिखाने में नहीं थी। इसलिए वे कला क्षेत्र के कुछ दोस्तों के साथ भारत आ गए। वे भुवनेश्वर में करीब साढ़े तीन साल रहो। वहां वे वित्तीय संकट और भावनात्मक अकेलेपन से जूझते रहे। उनदिनों उनकी ही तरह की परेशानियों से जापानी नृत्यांगन इको शिनोहारा भी जूझ रही थीं। संयोगवश वे चंडीगढ़ आए हुए थे। वहां उनकी मुलाकात गुरु रंजनाजी से हुई। उन्होंने बहुत अपनेपन से दिल्ली आने को कहा। सो वे यहां आ गए। शुरू-शुरू में गुरुजी की कक्षा में भी थोड़ी झिझक होती थी। भुवनेश्वर में तीन साल तक कई गुरुओं से सीखने गया, पर कुछ भी सीख नहीं पाया। अब समझ में आता है कि इच्छा और लक्ष्य जब एक हो जाते हैं तो कड़ी मेहनत से उसको पाया जा सकता है।

