राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम ऐसी चीजें हैं, जिनमें किसी को दखल नहीं देना चाहिए। सो, जब पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सिनेमाघरों को हर शो से पहले राष्ट्रगान बजाना चाहिए, मैं हैरान रह गई। सिर्फ सिनमाघरों में क्यों, जज साहब? दुकानों में क्यों नहीं? रेस्तरां में क्यों नहीं? क्या देशप्रेम सिर्फ सिनेमाघरों में दिखाया जाना अनिवार्य है? फिर यह भी सवाल उठता है कि जो लोग उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के कारण राष्ट्रभक्ति दिखाते हैं पिक्चर देखने से पहले, ऐसा करने से क्या देश में असली राष्ट्रभक्ति की लहर फैल जाएगी?
राष्ट्रभक्ति से जुड़े कई सवाल कुछ दिनों से मुझे सता रहे हैं। कुछ इसलिए कि मुझे बहुत अजीब लगा जब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने कहना शुरू किया कि जिन देशवासियों को नोटबंदी पर एतराज है, वे देशद्रोही हैं। कुछ इसलिए भी कि हाल में मैं इंडिया फाउंडेशन के तीसरे वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने गोवा गई थी, जहां राष्ट्रभक्ति की बहुत बातें हुई थीं। यह सम्मेलन पिछले तीन वर्षों से राम माधवजी आयोजित करते हैं, इस उम्मीद से कि यहां से उभर के आएगी एक ऐसी सोच, जो नेहरूजी की समाजवादी सोच से अलग साबित होगी।
जब से भारत एक स्वतंत्र देश बना है तब से एक ही सोच का बोलबाला रहा है विश्वविद्यालों में, मीडिया और अन्य उन संस्थाओं में भी, जो भारतीय सभ्यता को जीवित रखने का काम करती हैं। इतना बोलबाला रहा है नेहरू से प्रेरित बुद्धिजीवियों का कि जिनको इस सोच से प्रेरणा नहीं मिली, वे देश छोड़ कर भाग गए अमेरिका और ब्रिटेन के आला विश्वविद्यालों में, जहां लोगों ने उनका स्वागत किया और ऊंचे ओहदों पर जगह दी। इंडिया फाउंडेशन की कोशिश है कि ऐसे लोगों के लिए फिर से भारत में जगह बने और इस कोशिश का यह वार्षिक सम्मेलन एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इस साल राष्ट्रभक्ति पर खूब चर्चाएं हुर्इं, जिनमें मैं भी शामिल थी। मेरी बारी आई तो मैंने अर्ज किया कि राष्ट्रभक्ति जब राजनेताओं के आदेश पर पैदा होती है, तो अक्सर झूठी होती है, हानिकारक होती है। हर तानाशाह ने जुल्म ढाया है आखिर राष्टÑभक्ति के नाम पर। उस समय उच्चतम न्यायालय का आदेश नहीं आया था, वरना उनका भी नाम लेती। इसलिए कि असली राष्ट्रभक्ति वह होती है, जो खुद-ब-खुद उभरती है, किसी के कहने पर नहीं। अपने देश में अगर हुक्मनामे जारी करने की जरूरत महसूस कर रहे हैं राजनेता और न्यायाधीश, तो शायद इसलिए कि इनको राष्ट्रभक्ति का अभाव दिख रहा है देश में।

अभाव होगा भी, क्योंकि जब हम अपने बच्चों को उनके देश के बारे में कुछ नहीं सिखाते हैं तो कैसे प्रेम कर सकेंगे ऐसे देश को, जिसके बारे में वे जानते तक नहीं। सच तो यह है कि देश के पहले प्रधानमंत्री को प्राथमिकता देनी चाहिए थी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाने की, जो जवाहरलाल नेहरू ने दी नहीं। पंडितजी गर्व से कहा करते थे कि वे भारत के पहले अंगरेज प्रधानमंत्री हैं, सो उनको शायद कभी जरूरत नहीं महसूस हुई उस शिक्षा प्रणाली को बदलने की, जो हमको अंगरेजों से विरासत में मिली थी। याद रखिए की इस प्रणाली का निर्माण किया था लॉर्ड मैकाले ने भारत से भारतीयता मिटाने के लिए। उन्होंने मकसद इस शिक्षा का स्पष्ट शब्दों में बयान किया यह कहते हुए कि भारतियों को अंगरेजी सभ्यता में रंगने की जरूरत है, ताकि उनकी वफादारी ब्रिटेन से रहे, भारत से नहीं। क्या ऐसी शिक्षा को स्वतंत्रता के फौरन बाद बदलना नहीं चाहिए था?
कड़वा सच यह भी है उनके बाद जो राजनेता प्रधानमंत्री बने, उन्होंने भी इस प्रणाली को बदलने की जरूरत नहीं महसूस की, सो आज हाल यह है कि भारतीय बच्चे अमेरिका और यूरोप के बारे में अपने देश से ज्यादा जानते हैं। विदेशी सभ्यता का वैसे भी असर जोरों से फैल रहा है टीवी और सिनेमा की वजह से, लेकिन इसका कोई नुकसान न होता, अगर भारत के बच्चों को भारतीय सभ्यता, साहित्य और इतिहास के बारे में स्कूल में ही जानकारी दी जाती। ऐसा न कभी पहले हुआ है और न ही नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शिक्षा में भारतीयता लाने की कोशिश की गई है।

याद है मुझे कि 2014 वाले चुनाव में जब मेरी मुलाकात बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के कुछ छात्रों से हुई थी संस्कृत विभाग में तो उन्होंने कितना उत्साह दिखाया था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनको भी आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। इन छात्रों में से कई ऐसे थे, जिन्होंने संस्कृत में पीएचडी कर रखी थी, लेकिन उनको अपने भविष्य की चिंता इसलिए थी कि संस्कृत पढ़ने के बाद वे सिर्फ पुजारी बन सकेंगे। भारतीय शिक्षा में परिवर्तन आया होता, तो संस्कृत के पंडितों की कद्र होती उनके लिए रोजगार के कई अवसर होते। संस्कृत में लिखी गई अब भी हजारों किताबें, पर्चे और पुराण हैं, जिनका आधुनिक भाषाओं में अनुवाद नहीं किया गया है।
शिक्षा में परिवर्तन लाना सिर्फ प्रधानमंत्री का काम नहीं है, मुख्यमंत्रियों का भी है, लेकिन उन राज्यों में, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, वहां भी कोई परिवर्तन नहीं दिखता है। सो, आज भी अंगरेजी की तरफ दौड़ रहे हैं हमारे बच्चे, क्योंकि अंगरेजी के साथ खुल जाते हैं रोजगार के अवसर, लेकिन साथ-साथ बंद हो जाते हैं भारतीय संस्कृति के दरवाजे। ये दरवाजे अगर हमारी शिक्षा प्रणाली ने बहुत पहले बंद नहीं कर दिए होते, तो शायद आज राष्ट्रभक्ति हुकुमनामों से न पैदा करनी पड़ती। दिल से राष्ट्रभक्ति इसके बावजूद देखने को मिलती है, जब कोई जवान मरता है सीमा पर, जब किसी क्रिकेट मैच में हमारी टीम जीतती है। असली राष्ट्रभक्ति वह होती है।