दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं को लेकर केंद्र सरकार को स्वाभाविक ही बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है। वजह यह है कि यह मसला खासकर ऊना कांड की वजह से चर्चा का विषय बना, जो कि पिछले महीने गुजरात में घटित हुआ, जहां लंबे अरसे से भाजपा की सरकार है और जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य है और जहां वे लगातार बारह साल तक मुख्यमंत्री थे। फिर, ऊना कांड में दलितों की बर्बरतापूर्ण पिटाई कथित गोरक्षा के बहाने की गई, और गोरक्षा के नाम पर बने अधिकतर संगठनों व समूहों का संघ परिवार से नाता किसी से छिपा नहीं है। इस घटना के चलते दलितों का आक्रोश गुजरात में तो फूटा ही, बाकी में देश में भी नाराजगी की लहर फैली। और इस बात ने भाजपा को गहरी चिंता में डाल दिया।
उसे डर सताने लगा कि कहीं उसकी छवि दलित-विरोधी दल की न बन जाए। उसे दूसरी आशंका अगले साल उत्तर प्रदेश, पंजाब और गुजरात के विधानसभा चुनावों में हो सकने वाले नुकसान को लेकर थी। बहरहाल, प्रधानमंत्री ने चुप्पी तोड़ी। उन्होंने दो दिन में दो बार कड़े शब्दों में तथाकथित गोरक्षकों को चेताया और राज्य सरकारों से कहा कि उनकी हिंसा से सख्ती से निपटें। फिर गृह मंत्रालय ने इस आशय की लिखित हिदायत भी राज्यों को भेजी। दलित उत्पीड़न पर संसद में हुई चर्चा पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह का जवाब भी सख्ती दिखाने की इसी कवायद का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि गोरक्षा या किसी अन्य विषय के नाम पर दलितों या किसी का भी उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ कठोर से कठोर कार्रवाई की जाएगी। गृहमंत्री ने सदन में जो कहा और प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों जो बयान दिए उनके पीछे नेक मंशा ही होगी। लेकिन सवाल है कि सरकार इतनी देर से हरकत में क्यों आई? ऊना से पहले भी गोरक्षा के नाम अवांछित घटनाएं हो रही थीं। क्या यह सिर्फ संयोग है कि इनमें ज्यादा तेजी भाजपा-शासित राज्यों में दिखी?
प्रधानमंत्री ने गोरक्षा के नाम पर होने वाली जिस गुंडागर्दी का जिक्र किया, क्या भाजपा की राज्य सरकारें उससे अनजान थीं? राज्यों को केंद्र का हिदायतनामा पहले क्यों नहीं भेजा गया? राजनाथ सिंह ने भले विपक्ष पर भ्रम फैलाने का आरोप मढ़ा हो, पर देर से हरकत में आने के दोष से सरकार पल्ला नहीं झाड़ सकती। सरकार को सदन में विपक्ष के इस आरोप का भी सामना करना पड़ा कि अनुसूचित जाति-जनजाति के बजटीय आबंटन में कटौती की गई है। गृहमंत्री ने उचित ही कहा कि दलितों का उत्पीड़न एक विकृत मानसिकता का परिचायक है और हमें इस विकृत मानसिकता को खत्म करना है।
पर यह उत्पीड़न सिर्फ मानसिकता का मामला नहीं है, यह सदियों से चले आ रहे सामाजिक ढांचे की भी देन है। विडंबना यह है कि दलित उत्पीड़न को रोकने के लिए राज्यतंत्र अपने अधिकारों का उपयोग मुस्तैदी से नहीं कर रहा है। इस मामले में उसमें इच्छाशक्ति की कमी नजर आती है। यह इससे भी जाहिर है कि अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण कानून के तहत दर्ज होने वाले मामलों में सजा की दर बहुत कम रही है। दरअसल, जांच के दौरान ही, ज्यादातर मामलों को पुलिस कमजोर कर देती है। फिर, सबूतों के अभाव या पर्याप्त सबूत न होने की बिना पर अधिकतर आरोपी छूट जाते हैं। दलित उत्पीड़न की घटनाओं को रोकने का सबसे कारगर तरीका यह सुनिश्चित करना ही हो सकता है कि अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण कानून के तहत दर्ज मामले तर्कसंगत परिणति तक पहुंचें।

