सवाल यह है कि जो हम कहना चाहते हैं, क्या वह ठीक उसी तरह से कह पाते हैं जिस तरह कहना चाह रहे थे! कहीं ऐसा तो नहीं कि कह देने के बाद ऐसा लगता हो कि हम इसे ठीक उस तरह नहीं कर पाए, जिस तरह कहना चाह रहे थे। यह ‘मिसिंग लिंक’ यानी विस्मृत या छूटी कड़ियां हमें परेशान करती हैं। कुछ लिखे हुए को अंतिम रूप देने के पहले लोग उसे कई बार लिखते, काटते और फाड़ते हैं। यहांं तक कि प्रेम पत्र जैसे नाजुक मसलों का मजमून भी कई दफा फाड़ा और फेंका जाता है और बमुश्किल अंतिम रूप ले पाता है। यानी अनुभूति की अभिव्यक्ति का वरदान अपवादस्वरूप ही मिल पाता है।

चाहे बात बोलने की हो या लिखने की, कह पाने के कौशल को कहन, शैली या अंदाज कहा जाता है। हरेक का अंदाज-ए-बयांं दूसरों से अलहदा होता है। यह कहन, शैली या अंदाज ही लेखक के शिल्प का प्रमुख आधार है। अपनी बात ठीक से न कह पाने का मलाल और शिकायत शायर भी अपने-अपने लहजे में करते नजर आते हैं। एक शायर ने कहा- ‘कौन जाने शेर में, कैसे हैं और कैसे नहीं, दिल समझता है कि जैसे दिल में थे, वैसे नहीं।’ जब निदा फाजली कहते हैं कि ‘हर नज्म मुकम्मल होती है, लेकिन वो जबां से कागज तक जब आती है, थोड़ी-सी कमी रह जाती है’ तो वे यही तकलीफ बयां करते हैं। अच्छे वक्ता भी इस समस्या से जूझते रहे हैं।

जीवन की उत्पत्ति और उसकी विकास यात्रा में भी ‘विस्मृत कड़ियों’ की बात की जाती है। बंदर से पूर्ण विकसित मानव के बीच भी कुछ नदारद या गायब-सा लगता है और उसे ही ‘मिसिंग लिंक’ कहा जाता है। बर्नार्ड शॉ सुंदर और प्रभावशाली अभिव्यक्ति के कायल थे और उसे सर्वोच्च वरीयता देते थे। वे कहते थे कि इससे बड़ी उपलब्धि कोई नहीं है कि कोई व्यक्ति सुंदर प्रस्तुतिकरण में माहिर है। वे कहते थे कि वैसे तो उनकी आंंखों में आंंसू कम ही आते हैं। पर जब वे किसी सुंदर विचार को सुंदर शैली में व्यक्त करते पाते हैं तो बरबस उनकी आंंखें खुशी से भर जाती हैं। सफल अभिव्यक्ति का संतोष और आनंद का लेखक को भी महसूस होता है।

शब्दों का सोच-विचार के बाद चयन और फिर उनको सही स्थान पर सजाने की कला लेखक की झोली में चार चांद लगा देती है। दरअसल, सारा खेल शब्दों में चयन और उनकी जमावट का है। शब्द सटीक हों, औचित्यपूर्ण हों, उनमें सौंदर्यबोध हो, अर्थपूर्ण और भावपूर्ण हों और ऐसे हों कि उन्हें उनके जैसे शब्दों से बदला न जा सके। ठीक ही कहा जाता है कि किसी बात को कहने का एक ही तरीका होता है और एक शायद ही उस बात को ठीक से कह सकता है। इसी से हर शब्द की अपनी अहमियत पता चलती है।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि थॉमस ग्रे ने कुल जमा छह कविताएंं लिखीं, जिनमें से सिर्फ तीन को ही लोग याद करते हैं और उनमें से भी एक केवल ‘एलिजी’ ही उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता है। कहते हैं उन्होंने इसे कई बार लिखा और कई शब्द बार-बार बदले तब जाकर उन्होंने इसे अंतिम रूप दिया। इससे पता चलता है कि कुछ लोग शब्दों के प्रति आवश्यकता से अधिक सचेत रहते हैं और इसके लिए वे खुद अपनी ही पंक्तियों को तब तक बदलते रहते हैं जब तक वे पूरी तरह संतुष्ट न हों। कुछ लोग इसे उनका आवश्यकता से अधिक सचेत होना मान सकते हैं।

चुने हुए शब्दों को वाक्य के धागे में सलीके से पिरोने में सोने के जेवर गढ़ने जैसी ही कलाकारी आवश्यक है। मोती को माला में पिरोने जैसी कलात्मकता चाहिए। धैर्य चाहिए, एकाग्रता और रचनात्मक समझदारी भी। एक ही अर्थ के कई समानधर्मी शब्द होते हैं, जैसे नीर, जल, पानी पर कहां कौन-सा शब्द उपयुक्त है, इसका ज्ञान स्वयमेव होता है और अनुभव से भी प्राप्त होता है।

ठीक शब्द ही रचना को सार्थक करता है। लेखक चूंंकि श्रेष्ठतम और सार्थक शब्द का प्रयोग करता है। इसलिए कोई अन्य पर्यायवाची शब्द उसका स्थान नहीं हो सकता। खासकर कविता और शायरी में तो गलत शब्द लय ही बिगाड़ देता है। मसलन, ‘न मान नीर का घटे, न शीष प्यास का झुके’। इसमें नीर की जगह जल या पानी कविता

को बेमजा कर देगा। अगर कहन यानी शैली यानी अभिव्यक्ति की खूबी हो तो गिने-चुने शब्दों में भी बड़ी से बड़ी खूबसूरत बात कही जा सकती है। मसलन- ‘दिल बुझा हो तो दिन भी है रात, दिल हो रोशन तो रात रात नहीं’। एक और शेर है- ‘मैं ऐसे शख्स को जिया में क्यों शुमार करूं, जो सोचता भी नहीं, ख्वाब देखता भी नहीं।’ शुमार की जगह अगर शरीक लगाएंं तो वजन वही रहता है और अर्थ भी, पर शुमार और शरीक में शेर में शुमार ही सार्थक लगता है। लोग ठीक ही कहते हैं कि अच्छा लेखन स्याही से नहीं, खून से लिखा जाता है। ऐसा सशक्त लेखन हो कि कागज ही जलने लगे।