पंकज शुक्ला

भारतीय ज्ञानगंगा में कश्मीर का स्थान काशी जैसा है, लेकिन मध्यकालीन विकृति ने कश्मीरियत की पहचान को संकीर्ण कर दिया। कश्मीरियत की स्थापना में आचार्य अभिनवगुप्त का योगदान कश्मीर की सांस्कृतिक चेतना को संवारने में प्रभावकारी सिद्ध हुई। आचार्य अभिनवगुप्त के माध्यम से कश्मीर के हजारों वर्षों की पहचान को बल मिला। अभिनव गुप्त के अध्ययन के बिना हिंदी, संस्कृत साहित्य, नाटक और भारतीय दर्शन पूरा नहीं होता। आज अभिनवगुप्त के चिंतन और दर्शन का समस्त विश्व में प्रचार-प्रसार हो रहा है। ऐसे में उनके वासस्थान कश्मीर में ही उनके ज्ञान और साहित्य के प्रति उदासीनता एक विडंबना ही है।
आचार्य दसवीं शताब्दी के दार्शनिक थे। उन्होंने नवान्मेष के आधार पर भारतीय चिंतन को नई ऊंचाई दी। उनके पूर्वज कश्मीर के राजा ललितादित्य के समय में कन्नौज से कश्मीर गए थे। कन्नौज में उस समय राजा यशोवर्मन का शासन था। आचार्य के पिता का नाम नरसिंहगुप्त और माता का नाम विमला था।
उनके गुरुओं की लंबी शृंखला है। उन्होंने किसी व्यक्ति विशेष को अपना गुरु नहीं बनाया, बल्कि उस काल के अनेक प्रसिद्ध आचार्यों और विद्वानों से अपनी ज्ञान-पिपासा शांत की। वे गुरुऔर शिष्य परंपरा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके परिवार और कुटुंब में भी बड़े-बड़े विद्वान और शास्त्रज्ञ थे। इसलिए उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने चाचा और पिता आदि से ग्रहण किया। आचार्य ने व्याकरण की शिक्षा अपने पिता नरसिंहगृप्त, प्रत्यभिज्ञाशास्त्र की शिक्षा लक्ष्मणगुप्त और कौल संप्रदाय की साधना की दीक्षा आचार्य शंभूनाथ से ग्रहण की थी। उन्होंने अपनी कृतियों में अपने नवगुरुओं का स्मरण किया है। उनके शिष्यों में क्षेमराज क्षेमेंद्र और मधुराजयोगी प्रमुख हैं। वे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए 19 गुरुओं के शिष्य बने।
तंत्रालोक के टीकाकार आचार्य जयरथ ने आचार्य अभिनवगुप्त को योगिनी-भू की उपाधि से विभूषित किया है। साक्ष्य बताते हैं कि अभिनवगुप्त के दस हजार शिष्य और अनुयायी थे। वे आचार्य को एक मंत्रसिद्ध साधक और भैरव का अवतार मानते थे। सत्तर वर्ष की अवस्था में गुलमर्ग मार्ग पर स्थित एक गुफा में 1016 विक्रमी संवत में प्राणत्याग किया था। आज उस गुफा को भैरवगुफा के नाम से जाना जाता है। विद्वान मानते हैं कि आचार्य अभिनव गुप्त ने एक हजार साल पहले बयालीस ग्रंथों की रचना की थी, जिसमें से मात्र बीस-बाईस ग्रंथ ही आज उपलब्ध हैं। उनके ग्रंथों की कुछ पांडुलिपियां मिली हैं। उन्होंने विभिन्न ग्रंथों की रचना करते हुए ‘शतहस्ते समाहार सहस्रहस्ते विकिर’ जैसे सिद्वांतों पर प्रकाश डाला। तंत्रालोक, परात्रिंषिका विवरण, परमार्थसार, तंत्रसार, गीतार्थसंग्रह, लाघवी और बृहित्वमर्षिनी जैसी महत्त्वपूर्ण कृतियों की सर्जना करने के साथ-साथ नाट्यशास्त्र और ध्वन्यालोक पर विवेचना भी लिखी। उन्होंने ध्वनि को चौथा आयाम नाम प्रदान किया था। श्रीमद्गवद्गीता में कृष्ण के उपदेशों को प्रतीक रूप में अभिव्यक्त करते हुए महाभारत के युद्ध को विद्या और अविद्या के बीच होने वाले संघर्ष के रूप में उन्होंने वर्णित किया।
इसके अलावा उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियों में मालिनीविजयावार्तिका, परात्रिंषिकाविवृत्ति, बोधपंचदर्शिका और पूर्णपंचिका आदि उल्लेखनीय हैं। उन्होंने प्रसिद्ध ‘भैरवशास्त्र’ नामक ग्रंथ की रचना की। आचार्य अभिनवगुप्त ने भरतमुनि के नाट्यशासत्र पर अभिनवभारती और आनंदवर्धन के ध्वन्यालोक पर टीकाओं की रचना की।
उन्होंने लगभग एक सहस्राब्दी पहले तंत्रालोक जैसी कालजयी कृति की सर्जना की थी। भरतमुनि के रससूत्र के सर्वमान्य व्याख्याकार आचार्य अभिनवगुप्त ही है। उन्होंने रस की अभिव्यक्तिवादी व्याख्या की है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आचार्य रजनीश मिश्र का कहना है कि आचार्य अभिनवगुप्त का प्रत्यभिज्ञा दर्शन आत्म को पहचानने की है। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है स्वयं को विस्मृति के आवरण से मुक्तकर वास्तविक स्वरूप को जानना। आचार्य अभिनवगुप्त शैवदर्शन के मूर्धन्य विद्वान थे। कश्मीरी शैवदर्शन परमात्मा द्वारा दिया गया उपहार माना जाता है। इसके उद्गम की जानकारी किसी को नहीं। उनकी मान्यता है कि चर-अचर, जड़-चेतन, समस्त जगत में शिव ही व्याप्त हैं। वह माया जो जीव को उसके धर्मपथ से विपथ करती है उसमें भी उसी शिव का प्रकाश है। शैवदर्शन के चार अनिवार्य आयाम हैं- क्रमपरंपरा, कुलपरंपरा, स्पंदपरंपरा और प्रत्यभिज्ञा परंपरा। उन्होंने इस दर्शन को समाज के जन-जन तक पहुंचाने का भगीरथ प्रयास किया।
आचार्य को भारतीय चिंतन परंपरा का दार्शनिक साहित्य और समीक्षक भी माना जाता है। उन्होंने ज्ञान की विविध विधाओं का संस्पर्श करते हुए आगम अद्वैत और प्रत्यभिज्ञा दर्शन की व्याख्या की, जिस दर्शन को कालांतर में आधार बनाकर महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी कालजयी कृति ‘कामायनी’ की रचना की। उन्हें समवन्ववादी दार्शनिक माना जाता है, क्योंकि उन्होंने ज्ञान और साधना की कई धाराओं को समेकित किया। आगम-निगम, शैव-शाक्त, योग-सौंदर्य, जीवन और जगत सबका समन्वय मिलता है। यह अचरच की बात है कि हजार वर्ष पूर्व जब विभिन्न सत्तालोलुप शासक अपनी तलवार के बल पर विश्व विजय का स्वप्न देख रहे थे, उस समय अभिनवगुप्त जैसे आचार्य ने अपने ज्ञान के आलोक से लोकमंगल की कामना से अपने दर्शन और आध्यात्मिक से उसका मुकाबला किया। उन्होंने ज्ञान और दर्शन का सार निकालकर समाज को रूढ़ियों और कुप्रथाओं से मुक्त किया।
वे स्वयं भले ही अविवाहित थे, लेकिन उन्होंने अपने अनुयायियों को गृहस्थ आश्रम छोड़ने के लिए कभी नहीं कहा। उन्होंने भरतमुनि के रससिद्वांत की व्याख्या करते हुए अभिव्यक्तिवाद नामक सिद्धांत की स्थापना की। उन्होंने निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्ति और संयोग का अर्थ व्यंग्य-व्यंजक भाव से पोषण किया। रस केवल अभिव्यक्त होता है। सहृदय के मन में जो स्थायी भाव सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहता है, वही विभावादि की सहायता से जाग्रत और संपुष्ट होकर रस-रूप में प्रकच होता है। इस प्रक्रिया को वे आत्मिक प्रक्रिया मानते थे। जैसे मिट्टी की गंध सुप्तावस्था में विद्यमान रहती है, लेकिन जल सिंचन से वह प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार सुप्त स्थायी भाव-विभावादि के कारण प्रकट होते हैं। रस की अभिव्यक्ति पर बल देने के कारण ही यह सिद्धांत अभिव्यक्तिवाद कहलाता है। यही सिद्धांत परवर्ती आचार्यो ने भी स्वीकार किया। उनके सहस्राब्दी वर्ष के इस अवसर पर उनकी कृतियों का मूल्यांकन किया जाना जरूरी है। ०