तबले का कायदा उन्हें घुट्टी में मिला था। पिता अल्लारक्खा कुरैशी मशहूर तबलावादक थे। संगीत के माहौल में ही उनकी परवरिश शुरू हुई थी। मगर जाकिर हुसैन जैसे पैदा ही तालवाद्य के लिए हुए थे। बचपन से ही उनकी अंगुलियां थिरकनी शुरू हो गई थीं। पिता ने उन्हें तबले की तालीम देनी शुरू की। बारह साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने वह काबिलियत हासिल कर ली थी कि अमेरिका के संगीत समारोह में अपना हुनर दिखा सकें। अमेरिका के पहले कार्यक्रम में ही उन्हें ऐसी शोहरत मिली कि फिर उन्होंने पीछे लौट कर नहीं देखा।
पश्चिमी देशों में दिलाई तलबे की प्रतिष्ठा
जाकिर हुसैन ने उसे वाद्य के रूप में नहीं साधा, बल्कि तबले को उन्होंने जीया था। तबले में जितनी संभावनाएं उन्होंने तलाश कीं, उसकी जितनी बारीकियां उन्होंने उजागर कीं, उनसे पहले किसी तबला नवाज ने नहीं किया था। हर तरह के तालवाद्य और तारवाद्य के साथ उन्होंने जुगलबंदी की, देश और दुनिया के हर नामचीन गायक और वादक के साथ उन्होंने संगत की- अपनी पहले की पीढ़ी के भी, अपने समय और अपने बाद की पीढ़ी के भी। तबले को उन्होंने पश्चिमी देशों में भी प्रतिष्ठा दिलाई।
बाल और ताल की जुगलबंदी
जाकिर हुसैन न केवल अद्भुत तबलावादक थे, बल्कि उनका बजाने का अंदाज भी अनोखा था। तबला बजाते हुए उनके लंबे बाल जिस अंदाज में लहराते, लगता कि उनके बाल और ताल जुगलबंदी कर रहे हों। उनका वह अंदाज सभी को मोहता था। वे पहले वादक थे, जिन्होंने तबले से अन्य वाद्य यंत्रों की ध्वनियां भी निकालने का प्रयोग किया, जैसे उनका तबले से शिव के डमरु का नाद बहुत लोकप्रिय हुआ था।
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वे मंचीय प्रदर्शनों में तबले से धुनें निकाल कर भी कौतुक रच दिया करते थे। भारतीय शास्त्रीय संगीत के अलावा उन्होंने अमेरिकी जैज में भी अपने तबले से नया रंग भर दिया। इसका नतीजा था कि इसी साल अप्रैल में उन्हें एक साथ तीन ग्रेमी अवार्ड प्राप्त हुए। इससे पहले उन्हें दो ग्रेमी मिल चुके थे।
ग्रेमी अवार्ड संगीत की दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान माना जाता है। उन्होंने कई फिल्मों में अभिनय भी किया था, कई विज्ञापन उनके अभिनय से यादगार हो गए। भारत सरकार उन्हें तीनों पद्म सम्मानों से सम्मानित कर चुकी थी। उनका जाना निस्संदेह ताल की दुनिया को कुछ सूना कर गया है।