गुजरात के सूरत जिले में अपनी पसंद के युवक से विवाह करने के बाद जिस तरह एक युवती की हत्या उसके भाई ने कर दी, वह एक बार फिर झूठे सम्मान के नाम पर समाज में पल रहे विद्रूप को ही दर्शाता है। इस घटना ने फिर से इस जरूरत को रेखांकित किया है कि अर्थव्यवस्था से लेकर तमाम मोर्चों पर विकास के दावे के बीच सामाजिक स्तर पर कायम पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को दूर करने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

सूरत के लिंबायत इलाके में एक युवती और उसके पड़ोस के युवक एक दूसरे को पसंद करते थे। लड़की के परिवार वालों की इच्छा के विरुद्ध दोनों ने आपसी सहमति से अदालत में विवाह कर लिया। हालांकि लड़के के परिवार के बीच इस संबंध को लेकर स्वीकार्यता थी और उन लोगों ने सामाजिक रीति-रिवाज से विवाह समारोह का आयोजन किया था। लेकिन लड़की के रिश्ते के एक भाई ने समारोह के बीच जाकर उस पर चाकू से हमला कर दिया। खबरों के मुताबिक, हत्या के आरोपी और लड़की के परिवार वालों को उसका जाति से बाहर विवाह करना नागवार गुजरा था।

दरअसल, सामाजिक-आर्थिक हैसियत से बाहर किसी लड़की का अपनी पसंद से लड़के से विवाह और उस पर परिवार और समाज की ओर से मुखर आपत्ति ऐसा सवाल है, जो अमूमन हर स्तर पर विकास और आधुनिकता के बीच आज भी अक्सर बेहद अफसोसनाक शक्ल में उभर आता है। सरकार आए दिन सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों की घोषणा करती है, समाज सुधार के प्रयासों को लेकर भी दावे किए जाते रहते हैं, लेकिन सच यही है कि जाति और वर्ग के बीच सदियों से कायम एक त्रासद फांक को दूर करने में अब तक कामयाबी नहीं मिल सकी है।

आखिर क्या वजह है कि किसी व्यक्ति के भीतर स्त्रियों और अन्य परंपराओं को लेकर रूढ़ धारणाएं इस कदर गहरे बैठी होती हैं कि इसमें वह बदलाव स्वीकार नहीं कर पाता है! शिक्षा-दीक्षा से लेकर रहन-सहन तक के मामले में ज्यादातर लोग उच्च गुणवत्ता की पढ़ाई-लिखाई और वक्त के साथ बदलते चलन के मुताबिक आधुनिक वेश-भूषा और जीवनशैली अपनाने की अपनी ओर से कोशिश करते हैं। मगर स्त्रियों, जाति और धर्म को लेकर कायम पितृसत्तात्मक जड़ता इस कदर हावी रहती है कि इस मुद्दे पर कुछ लोग न केवल सामाजिक बहिष्कार, बल्कि हिंसा और हत्या तक करने से नहीं हिचकते।

किसी भी समाज के सभ्य और आधुनिक होने की कसौटी यही है कि वह किसी वयस्क युवा की पसंद या उनके अधिकारों का सम्मान करे। लेकिन ऐसा लगता है कि संवैधानिक या कानूनी तौर पर की गई व्यवस्थाओं के बावजूद समाज का एक बड़ा तबका आज भी मनोवैज्ञानिक रूप से न केवल विकृत रूढ़ियों से जकड़ा हुआ है, बल्कि इनके प्रभाव में वह आपराधिक हरकत भी कर बैठता है।

यह समझना मुश्किल है कि महज अपनी पसंद से विवाह करने पर किसी युवती की हत्या करने से किस तरह का सम्मान बच जाता है। बल्कि ऐसा करने से होता यही है कि झूठे सम्मान के नाम पर आवेश में आकर हत्या करने वाले लोग अपना बाकी जीवन ऐसे अपराध की सजा काटते हुए बिताते हैं। सामाजिक विभाजन और मान्यताओं के सिरे से उपजी कुंठाएं कई बार विकृत होकर व्यक्ति को अमानवीय बना डालती हैं।

इस सोच से संचालित लोग न कभी समाज को आधुनिक होने देते हैं, न ही अपना हित सुनिश्चित कर पाते हैं। जरूरत यह है कि सरकार सामाजिक विकास के लिए पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को दूर करने को लेकर नीतिगत पहल भी करे। अन्यथा झूठे सम्मान के नाम पर हत्याओं से समाज के आधुनिक और मानवीय मूल्यों पर सवाल उठते रहेंगे।