दुनिया भर में आर्थिक असमानता का लगातार बढ़ते जाना अब कई मायनों में चिंता का विषय बन गया है। अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ने के साथ जब किसी देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती है, तो इस पर प्रसन्नता जाहिर करने वाले प्राय: यह भूल जाते हैं कि इसके समांतर करोड़ों लोग हाशिए पर जा चुके हैं और भुखमरी, कुपोषण तथा बेरोजगारी उन्हें घेर रही है। स्वतंत्र विशेषज्ञों की जी-20 समिति की ताजा रपट में भी वैश्विक असमानता पर चिंता जताई गई है।

इसमें कहा गया है कि वर्ष 2020 में वैश्विक गरीबी में कमी लगभग रुक गई है, लेकिन दुनिया के कई देशों में आर्थिक असमानता बढ़ी है। भारत के संदर्भ में कहा गया है कि यहां सबसे अमीर एक फीसद लोगों की संपत्ति पिछले करीब दो दशकों में बासठ फीसद बढ़ी है। इस चमकती तस्वीर के पीछे एक सच यह भी है कि करोड़ों भारतीय नागरिक बेहद गरीबी में गुजर-बसर कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। रपट में कहा गया है कि करीब सवा दो अरब लोग गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं।

विश्व भर में आर्थिक असमानता के गंभीर जोखिम कई स्तरों पर दिखने लगे हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज की अगुआई में किए गए इस अध्ययन रपट में तो यहां तक चेतावनी दी गई है कि वैश्विक स्तर पर यह असमानता ‘संकट’ के स्तर पर जा पहुंची है। इससे न केवल लोकतंत्र, बल्कि आर्थिक स्थिरता को भी खतरा है। चीन में भी समान अवधि में शीर्ष एक फीसद लोगों की संपत्ति चौवन फीसद बढ़ी है।

इससे पता चलता है कि दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से में आर्थिक असमानता की खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि इसे भरना अब आसान नहीं है। हालांकि राजनीतिक स्तर पर इच्छाशक्ति दिखाई जाए, तो इस असमानता को बदला जा सकता है। मगर यह निराशाजनक है कि दुनिया के किसी भी देश की ओर से इस आर्थिक असमानता को पाटने की पहल होती नजर नहीं आ रही है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो इसके दूरगामी प्रभाव होंगे, जिनसे निपटना बेहद मुश्किल होगा।